‘डिजिटल अरेस्ट’ का बढ़ता जाल: डर दिखाकर करोड़ों की ठगी, पढ़े-लिखे लोग भी बन रहे शिकार
डिजिटल अरेस्ट असल में कोई कानूनी गिरफ्तारी नहीं, बल्कि प्रशिक्षित साइबर ठगों द्वारा रची गई एक फर्जी कार्रवाई है। ये ठग खुद को पुलिस, सीबीआई, ईडी या किसी अन्य जांच एजेंसी का अधिकारी बताकर पीड़ित को डराते हैं।
लगभग ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब सुबह के अखबारों में किसी न किसी व्यक्ति के “डिजिटल अरेस्ट” का मामला सामने न आता हो। इन मामलों में पीड़ितों को डराकर उनसे लाखों, करोड़ों रुपये वसूले जाते हैं और तब जाकर उन्हें “रिहा” किया जाता है। सामने आए लगभग सभी मामलों में पीड़ितों को तब होश आता है, जब उनकी जीवन भर की जमा-पूंजी लुट चुकी होती है।
क्या है ‘डिजिटल अरेस्ट’?
डिजिटल अरेस्ट असल में कोई कानूनी गिरफ्तारी नहीं, बल्कि प्रशिक्षित साइबर ठगों द्वारा रची गई एक फर्जी कार्रवाई है। ये ठग खुद को पुलिस, सीबीआई, ईडी या किसी अन्य जांच एजेंसी का अधिकारी बताकर पीड़ित को डराते हैं। पीड़ित को यह यकीन दिलाया जाता है कि उसने कोई बड़ा अपराध किया है और जल्द ही उसकी गिरफ्तारी होने वाली है। इसके बाद ठग मदद का झांसा देकर दबाव में उससे पैसे ऐंठ लेते हैं।
बेंगलुरु की लेक्चरर से दो करोड़ की ठगी
ताज़ा मामला बेंगलुरु की एक महिला लेक्चरर का है, जिसे कथित तौर पर छह महीने तक डिजिटल अरेस्ट में रखा गया। इस दौरान उसने दो प्लॉट और एक फ्लैट बेच दिया, साथ ही लोन भी लिया। लेक्चरर ने ठगों को करीब 2 करोड़ रुपये दे दिए। जब ठगों ने अचानक फोन उठाना बंद कर दिया, तब उसे ठगी का एहसास हुआ और उसने स्थानीय पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई।
छह महीने में 31.83 करोड़ गंवाने का मामला
बेंगलुरु में ही एक वरिष्ठ महिला आईटी प्रोफेशनल से डिजिटल अरेस्ट के दौरान 187 ट्रांजैक्शनों में 31.83 करोड़ रुपये की ठगी की गई। यह अब तक सामने आए मामलों में सबसे बड़ी रकम मानी जा रही है।
आंकड़े चौंकाने वाले
सरकार ने इस साल संसद को बताया कि भारत में डिजिटल अरेस्ट के मामलों में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।
साल 2022
39,925 मामले
कुल ठगी: 91.14 करोड़ रुपये
साल 2024
1,23,672 मामले
कुल ठगी: 1,935.51 करोड़ रुपये
यानी दो साल में मामलों की संख्या लगभग तीन गुना और ठगी की रकम 21 गुना तक बढ़ गई।
पढ़े-लिखे लोग भी क्यों फंस रहे हैं?
हैरानी की बात यह है कि डिजिटल अरेस्ट के शिकार ज़्यादातर शिक्षित और समझदार लोग हैं—शिक्षक, कारोबारी, रिटायर्ड अधिकारी, आईटी प्रोफेशनल और यहां तक कि पत्रकार भी। तर्क यह कहता है कि अगर किसी को पता है कि उसने कोई अपराध नहीं किया तो उसे सीधे नज़दीकी पुलिस स्टेशन जाकर सच्चाई पता करनी चाहिए। लेकिन ऐसा लगभग कभी नहीं होता।
डर की दो बड़ी वजहें
विशेषज्ञों के अनुसार, लोगों के फंसने की दो मुख्य वजहें हैं:-
1. या तो लोग खबरें नहीं पढ़ते और जानकारी से दूर रहते हैं
2. या फिर “पुलिस” शब्द सुनते ही घबरा जाते हैं
भारत में पुलिस से दूरी बनाए रखने की मानसिकता लंबे समय से रही है। कई लोग सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति की मदद करने से भी बचते हैं, ताकि पुलिस के चक्कर में न पड़ना पड़े।
आपराधिक न्याय व्यवस्था पर भरोसे की कमी
डिजिटल अरेस्ट की सफलता की एक बड़ी वजह आपराधिक न्याय प्रणाली पर लोगों का कम भरोसा है। ऐसे कई आरोप सामने आते रहे हैं, जिनमें पुलिस पर मदद के बदले पैसे मांगने के आरोप लगे हैं। राजनेता कार्ति चिदंबरम ने एक लेख में लिखा था कि अस्पताल और अदालतों के साथ-साथ पुलिस भी ऐसी संस्था बन गई है, जहां मददगार के बजाय परेशान करने वाला बनने का खतरा रहता है।
हिरासत में मौतें और पुलिस की छवि
पुलिस हिरासत में मौतों के मामलों ने भी डर को बढ़ाया है। माना जाता है कि कई मामलों में हिरासत में मौतें पूछताछ के दौरान थर्ड डिग्री टॉर्चर की वजह से होती हैं। फरवरी 2025 में लंदन की एक अदालत ने मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपी संजय भंडारी के प्रत्यर्पण से इनकार कर दिया था। अदालत ने कहा था कि भारत में हिरासत में यातना “आम और गंभीर” है और प्रत्यर्पण मानवाधिकारों का उल्लंघन होगा।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी बेअसर
सुप्रीम कोर्ट ने सभी पुलिस थानों में सीसीटीवी लगाने के आदेश दिए थे, ताकि जवाबदेही तय हो सके। लेकिन कई जगह या तो कैमरे लगे ही नहीं या फिर काम नहीं कर रहे। सितंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान में आठ महीनों में हिरासत में 11 मौतों की खबर के बाद स्वतः संज्ञान लिया, क्योंकि पुलिस सीसीटीवी फुटेज देने में विफल रही।
म्यूल अकाउंट और बैंकिंग सिस्टम की कमजोरी
हालांकि आरबीआई के सख्त नियम हैं, फिर भी ठग आसानी से म्यूल अकाउंट खुलवा लेते हैं, जिनका इस्तेमाल ठगी की रकम ट्रांसफर करने में होता है। इस साल की शुरुआत में सीबीआई ने उत्तर भारत में 42 ठिकानों पर छापेमारी की थी और 700 बैंक शाखाओं में 8.5 लाख म्यूल अकाउंट्स का पता लगाया था।
पीड़ितों की “सहमति” भी अहम कारण
विशेषज्ञों का कहना है कि डिजिटल अरेस्ट तभी काम करता है, जब पीड़ित खुद ठगों के साथ सहयोग करता है। अधिकतर मामलों में बैंक खाते से पैसा सिर्फ खाता धारक ही ट्रांसफर करता है। यह सवाल उठता है कि जब किसी से लाखों या करोड़ों रुपये मांगे जा रहे हों, तब भी खतरे की घंटी क्यों नहीं बजती—यह एक गहरे मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय है।
समाधान क्या है?
विशेषज्ञों का मानना है कि सिर्फ टीवी, मोबाइल या विज्ञापनों के जरिए चेतावनी देना काफी नहीं होगा। जब तक पुलिस व्यवस्था में वास्तविक सुधार, पारदर्शिता और नागरिकों के प्रति भरोसा पैदा नहीं किया जाता, तब तक डिजिटल अरेस्ट जैसे घोटाले चलते रहेंगे और नए शिकार बनते रहेंगे।