भारत का लोकतंत्र: धर्मनिरपेक्षता के पतन का खतरा!
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर डी-सेक्युलराइजेशन गहराता गया तो भारत गहरे डी-डेमोक्रेटाइजेशन की ओर बढ़ सकता है।
प्राचीन और मध्यकालीन दौर में राज्य और धर्म एक ही कार्यशील इकाई के रूप में काम करते थे, जहां पुरोहितों और राजाओं का साझा नेतृत्व होता था। भारत में चंद्रगुप्त मौर्य का राज्य इसका प्रमुख उदाहरण माना जाता है, जिसे पहला गैर-धर्मनिरपेक्ष राजतांत्रिक साम्राज्य कहा जाता है। इस व्यवस्था में कौटिल्य हिंदू मुख्य पुरोहित थे और चंद्रगुप्त राजा।
इतिहासकारों के अनुसार, कौटिल्य की शक्तियां भत्तों और अधिकारों सहित राजा से भी अधिक थीं। चंद्रगुप्त से अपेक्षा की जाती थी कि वे कौटिल्य की सलाह के अनुसार शासन करें। इसे प्राचीन भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया का पहला हिंदू धर्मतांत्रिक राजतंत्र भी माना जाता है। हालांकि चंद्रगुप्त को शूद्र बताया जाता है। क्योंकि वे शूद्र महिला मुरा के पुत्र थे, लेकिन उनके जातिगत पृष्ठभूमि को लेकर प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत ब्राह्मण कौटिल्य और उनकी कृति अर्थशास्त्र (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) के बारे में पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण हैं। अर्थशास्त्र में भविष्य की पीढ़ियों के लिए ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने वाली ऐसी ही गैर-धर्मनिरपेक्ष राज्य प्रणाली का सुझाव मिलता है।
पोप और राजा
यूरोप में भी इसी तरह की व्यवस्था देखने को मिली, जब प्राचीन काल के उत्तरार्ध में कैथोलिक होली सी राज्य की स्थापना हुई। वहां पोप की भूमिका कौटिल्य जैसी थी, जो यूरोपीय राजाओं को नियंत्रित करता था और राजा उनसे मार्गदर्शन लेते थे। यह प्रभुत्व मार्टिन लूथर के प्रोटेस्टेंट विद्रोह और प्रोटेस्टेंट ईसाई संप्रदाय के उदय के बाद ही टूटा। पोप के खिलाफ पहला बड़ा विद्रोह ब्रिटिश सम्राट हेनरी अष्टम (1491–1547) ने किया। इसकी तुलना सम्राट अशोक द्वारा ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था के विरुद्ध बौद्ध दृष्टि अपनाने से की जाती है। हालांकि अशोक ने भी धर्म को राज्य से अलग नहीं किया, बल्कि बौद्ध धर्म को अपने अधीन रखा, ठीक वैसे ही जैसे हेनरी अष्टम ने एंग्लिकन चर्च को आर्चबिशप की संस्था बनाकर अपने नियंत्रण में रखा। ब्रिटेन में आर्चबिशप कभी भी राज्य नीति तय करने वाला नहीं बना।
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों का उदय
समय के साथ ब्रिटेन एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य के रूप में विकसित हुआ, जहां धर्म और राज्य को अलग किया गया। इसी प्रक्रिया ने यूरोप और अमेरिका में कई धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों को जन्म दिया। इसके विपरीत, मुस्लिम दुनिया में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र व्यापक रूप से विकसित नहीं हो पाए और आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली वहां कुछ ही देशों तक सीमित रही।
पूर्वी दुनिया में भारत एकमात्र ऐसा देश था, जिसने 1949 में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संविधान अपनाया। उस समय तक भारत एक जटिल, बहु-धार्मिक समाज बन चुका था, जहां हिंदू-बौद्ध, सिख और जैन परंपराओं के साथ-साथ इस्लाम और ईसाई धर्म का भी गहरा प्रभाव था। इन दोनों धर्मों का राजनीतिक इतिहास रहा है और भारतीय मुस्लिम शासकों ने सदियों तक बड़े हिस्सों पर धर्मतांत्रिक राजतंत्र के तहत शासन किया।
ईसाई धर्म और औपनिवेशिक शासन
हालांकि ईसाई धर्म का आगमन भारत में पहली शताब्दी ईस्वी में माना जाता है, लेकिन उसका राजनीतिक जुड़ाव औपनिवेशिक शासन से रहा। इस सामाजिक जटिलता को देखते हुए आधुनिक भारतीय चिंतकों ने पश्चिमी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रों का गहन अध्ययन किया। डॉ. भीमराव आंबेडकर और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस जटिलता को सबसे गहराई से समझा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य की अवधारणा विकसित हुई और 1947 से 2014 तक भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में कार्य करता रहा। आंबेडकर, नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने इसकी स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई, जबकि महात्मा गांधी ने इसे नैतिक बल प्रदान किया।
लोकतंत्र का डी-सेक्युलराइजेशन
21वीं सदी में दुनिया भर में लोकतांत्रिक देशों के ‘डी-सेक्युलराइजेशन’ यानी धर्मनिरपेक्षता के क्षरण की प्रक्रिया देखी जा रही है। अमेरिका में रिपब्लिकन राजनीति और यूरोप में रूढ़िवादी ताकतें धीरे-धीरे इस दिशा में बढ़ रही हैं। भारत में भी पिछले 11 वर्षों में राज्य सत्ता और संस्थानों में धर्मनिरपेक्षता के कमजोर होने की प्रक्रिया तेज हुई है। आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की वैचारिक पकड़ के बाद भारतीय राज्य और संस्थानों में कौटिल्य-मनु धर्म आधारित विचारधारा केंद्र में आ गई है। शिक्षा व्यवस्था पर भी प्राचीन ग्रंथों और धार्मिक दृष्टिकोण का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
अंबेडकर, पटेल और नेहरू की चेतावनी
अंबेडकर ने हिंदू राष्ट्र की स्थापना के खतरों को पहले ही भांप लिया था। नेहरू दो-राष्ट्र सिद्धांत के संदर्भ में जटिलताओं को लेकर चिंतित थे, जबकि पटेल मुस्लिम प्रश्न पर केंद्रित थे। इन नेताओं का मानना था कि यदि धर्मतांत्रिक राज्य मॉडल को फिर से स्थापित होने दिया गया, तो लोकतंत्र टिक नहीं पाएगा।
संस्थानों का डी-डेमोक्रेटाइजेशन
विश्लेषकों के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता का क्षरण अक्सर लोकतंत्र के कमजोर होने के साथ चलता है। सत्ता एक व्यक्ति या एक विचारधारा के हाथ में केंद्रित होने लगती है, असहमति को दबाया जाता है और संस्थानों में एक ही विचारधारा के लोगों की नियुक्तियां होती हैं। धर्म, एक संस्था के रूप में, असहमति को स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह तर्क नहीं, आस्था पर आधारित होता है। यही प्रवृत्ति लोकतांत्रिक संस्थाओं में भी दिखने लगती है।
आगे की राह
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर डी-सेक्युलराइजेशन गहराता गया तो भारत गहरे डी-डेमोक्रेटाइजेशन की ओर बढ़ सकता है। बहु-धार्मिक और बहु-जातीय समाज में यह प्रक्रिया और भी खतरनाक हो सकती है। भारत आज एक कठिन दौर से गुजर रहा है, चारों ओर गैर-धर्मनिरपेक्ष शासन प्रणालियों से घिरा हुआ और अगर समय रहते चेतना नहीं जगी तो लोकतांत्रिक मूल्यों पर इसका गंभीर असर पड़ सकता है।
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