चरखे से लेकर सत्याग्रह तक: गांधी ने कैसे जोड़ा भारत को एक सूत्र में

वह आधुनिक बुद्धिजीवियों के लिए एक चतुर रणनीतिकार और एक संत थे। जिन्होंने अनपढ़ लोगों के लिए उपवास, प्रार्थना और सादा जीवन व्यतीत किया।

Update: 2025-10-01 16:23 GMT
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महात्मा गांधी का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राजनीतिक योगदान इसलिए अनोखा था, क्योंकि उन्होंने दो अलग-अलग और प्रायः असंबद्ध राजनीतिक संसारों — एक ओर आधुनिक शिक्षित अभिजात वर्ग की सोच और दूसरी ओर आम जनमानस की पारंपरिक सांस्कृतिक भावनाओं को एक सूत्र में पिरो दिया।

उपनिवेश-विरोधी आंदोलन था बंटा हुआ

गांधी से पहले भारत में उपनिवेश-विरोधी आंदोलन दो हिस्सों में बंटा हुआ था। एक ओर था शिक्षित वर्ग, जो असंतोष को वाणी दे रहा था, लेकिन जिसके पास जन समर्थन नहीं था। दूसरी ओर, किसानों और गरीबों के छोटे-छोटे विद्रोह, जो भले ही तीव्र थे, परंतु क्षेत्रीय स्तर तक ही सीमित थे। ब्रिटिश शासन एक को दबा सकता था और दूसरे को नज़रअंदाज़ कर सकता था।

गांधी की सबसे बड़ी ताकत: दोहरे अर्थों वाली राजनीति

गांधी का असली कमाल उस "सांकेतिक द्वैतवाद" (semiotic dualism) में था, जिससे उनकी राजनीति दोनों वर्गों — अभिजात और आम जनता — के लिए अलग-अलग लेकिन समान रूप से असरदार साबित हुई। 1917 के चंपारण सत्याग्रह को ही लीजिए — जब गांधी ने मजिस्ट्रेट के आदेश की अवहेलना की तो किसानों के लिए वे एक नैतिक उद्धारक बन गए, जो नील के जमींदारों के अत्याचार के विरुद्ध खड़े हुए। वहीं, अभिजात वर्ग के लिए वे एक रणनीतिकार थे, जो क़ानून और संवाद के माध्यम से काम कर रहा था।

एक ही कार्य, दो अर्थ

उनकी यही दोहरी समझ 1930 के नमक सत्याग्रह में भी दिखी। लंदन का 'द टाइम्स' अख़बार इसे देशद्रोह मानता रहा, वहीं बिहार और उत्तर भारत में लोकगीतों में इसे धार्मिक चमत्कार की तरह गाया गया। उच्च शिक्षित भारतीयों के लिए, गांधी एक वकील थे, जो ब्रिटिश सिस्टम को उसकी ही भाषा में जवाब देते थे। उनके 1922 के मुकदमे में जब उन्होंने देशद्रोह का दोष स्वीकारा तो वे सिर्फ अपराधी नहीं, एक नैतिक प्रतिरोध के प्रतीक बन गए। गांव-देहात के लोगों के लिए गांधी "महात्मा" बन गए — एक संत, जिन्होंने अपने त्याग, उपवास, खादी वस्त्रों और प्रार्थना से लोगों के बीच पुराने सांस्कृतिक प्रतीकों को जीवित किया।

प्रतीकों की ताकत

गांधी की राजनीति महज भाषणों या नारों पर नहीं, बल्कि प्रतीकों पर आधारित थी — चरखा, बकरी, नमक, उपवास, प्रार्थना, मौन। ये प्रतीक आम जनता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े थे और उनमें सांस्कृतिक अर्थ समाहित थे।

चरखा — आत्मनिर्भरता और प्रतिरोध का प्रतीक

नमक — आम आदमी की ज़रूरत और ब्रिटिश कर प्रणाली का विरोध

उपवास — शिक्षितों के लिए राजनीतिक दबाव, लेकिन आम हिंदुओं-जैनों के लिए आत्मशुद्धि का मार्ग

द्वैभाषिक राष्ट्रवाद (Diglossia Nationalism)

गांधी ने द्वैभाषिक राष्ट्रवाद की कल्पना को मूर्त रूप दिया — एक ओर अंग्रेज़ी, जो शासन और अभिजात वर्ग की भाषा थी और दूसरी ओर क्षेत्रीय भाषाएं, जो जनता के हृदय से जुड़ी थीं। जहां अभिजात वर्ग अंग्रेज़ी में राजनीतिक विमर्श कर सकता था, वहीं गांधी के प्रतीकों और कार्यों ने गांवों में बिना अनुवाद के राष्ट्रीय भावना का संचार किया।

सांस्कृतिक वस्तुएं बनीं क्रांति के प्रतीक

गांधी के आंदोलन में प्रयोग हुई वस्तुएं — चरखा, बकरी, नमक— ये केवल प्रतीक नहीं, बल्कि आम जनजीवन की जानी-पहचानी चीज़ें थीं। अभिजात वर्ग के लिए ये जटिल राजनैतिक विचारों को सरल प्रतीकों में बदलने का तरीका थे, जबकि ग्रामीणों के लिए ये पवित्रता और संघर्ष का पर्याय बन गए।

गांधी: एक सेतु, दो दुनियाओं के बीच

गांधी न सिर्फ एक राजनीतिक रणनीतिकार थे और न ही केवल एक संत। वे इन दोनों का संयोजन थे। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक सामूहिक नैतिक परियोजना बना दिया, जो शिक्षित और अशिक्षित, शहरी और ग्रामीण, हर वर्ग को एक साथ लेकर चल सका। उनकी सबसे बड़ी विरासत यह है कि उन्होंने राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं रहने दिया, बल्कि उसे एक सांस्कृतिक चेतना और नैतिक प्रतिबद्धता में तब्दील कर दिया — जो आज भी प्रेरणा देने वाली है।

(फेडरल सभी पक्षों के विचारों और राय को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेखों में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)

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