राही मासूम रज़ा: भाषा के नक़्शे पर बिछी एक कराह
राही मासूम रज़ा अपने उपन्यासों में, कविताओं में और सबसे बढ़कर अपने गद्य की लय में हमेशा जिंदा रहेंगे-एक टीस की तरह, एक दस्तावेज़ की तरह, एक चेतावनी की तरह।;
राही मासूम रज़ा का नाम लेते ही हिंदी साहित्य में एक अनूठी और बेमिसाल उपस्थिति दर्ज होती है-एक ऐसा लेखक जिसने भाषा, राजनीति, समाज और धर्म के उन अंधेरे गलियारों में प्रवेश किया जहाँ अधिकांश लेखक जाने से कतराते थे। उनकी लेखनी में गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक ऐसी अनुगूंज सुनाई देती है जो भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को उसकी पूरी जटिलता के साथ पकड़ने की कोशिश करती है।
राही मासूम रज़ा का सबसे चर्चित उपन्यास आधा गाँव (1966) भारतीय समाज के विभाजन और संक्रमण की उस पीड़ा को दर्ज करता है जिसे अक्सर इतिहास की मोटी किताबें अनदेखा कर देती हैं। यह सिर्फ़ एक गाँव की कहानी नहीं है बल्कि उत्तर भारत के मुस्लिम समाज का सांस्कृतिक और राजनीतिक आख्यान है। विभाजन के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों के भीतर उपजी असुरक्षा, धार्मिक पहचान की उलझन और राजनीति के छल-प्रपंच इस उपन्यास में जिस ईमानदारी और संवेदनशीलता से दर्ज हैं, वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ है।
‘आधा गाँव’ का सबसे बड़ा कमाल इसकी भाषा है। यह हिंदी-उर्दू की उस मिली-जुली ज़बान में रचा गया है, जो किताबों से ज़्यादा गलियों, चौबारों और खेतों में बोली जाती थी। राही ने इस भाषा को साहित्य की भाषा बना दिया। उपन्यास में गालियाँ भी हैं, ठेठ अवधी-भोजपुरी शब्द भी और उस गाँव की मिट्टी की खुशबू भी जिसे आधुनिकता लीलने को तैयार बैठी है।
राही मासूम रज़ा के लेखन की दूसरी बड़ी ताक़त यह है कि वे हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को उस सहजता से देख पाते हैं, जो न तो साम्प्रदायिक राजनीति की चाशनी में लिपटी होती है और न ही नकली धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े होती है। टोपी शुक्ला (1968) इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। यह एक ऐसे किरदार की कहानी है जो भारतीय समाज की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचानों के बीच कहीं अटक जाता है। टोपी का विद्रोह, उसका क्रोध और उसकी भटकन इस उपन्यास को एक तीखी राजनीतिक चेतना देती है।
राही मासूम रज़ा की सबसे लोकप्रिय पहचान शायद महाभारत (1988) टीवी धारावाहिक के संवाद लेखक के रूप में है। यह वही दौर था जब भारतीय समाज ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के प्रसारण के दौरान सड़कों पर सन्नाटा देखता था। राही ने इस महाकाव्य को जिस भाषा और संवेदनशीलता के साथ टीवी स्क्रीन पर उतारा, उसने करोड़ों लोगों के लिए धर्म, इतिहास और पौराणिक कथाओं को नए ढंग से देखने की दृष्टि दी।
लेकिन विडंबना देखिए-एक मुस्लिम लेखक होने के कारण उन पर ‘महाभारत’ लिखने का विरोध भी हुआ। राही ने इस विवाद का जवाब अपनी चिर-परिचित तल्ख़ी के साथ दिया था—“मुझसे बड़ा हिंदू कौन होगा, जिसने महाभारत लिखी?”
राही मासूम रज़ा की भाषा उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी-बेबाक, बेतकल्लुफ़ और बेलाग़। उन्होंने हिंदी को एक नया तेवर दिया, एक ऐसी भाषा जो न सिर्फ़ जनसामान्य के क़रीब थी बल्कि राजनीतिक रूप से भी तीखी थी। वे जब ‘ओस की बूँद’ जैसा कोमल उपन्यास लिखते हैं, तब भी उनकी भाषा में वही ईमानदारी होती है, जो वे ‘कटरा बी आर्ज़ू’ में लाकर उसे एक धारदार हथियार बना देते हैं।
राजनीति और साहित्य के बीच जो महीन रेखा होती है, राही हमेशा उसे पार करते रहे। वे न तो साहित्य में शुद्धतावादी थे और न ही राजनीति में निष्क्रिय दर्शक। उनके लेखन में इमरजेंसी का गुस्सा भी दिखता है और बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद की निराशा भी। वे धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों से हमेशा लड़ते रहे और इसीलिए शायद वे कभी किसी ख़ास धारा के लेखक नहीं बन पाए।
आज जब भारतीय समाज लगातार धार्मिक और सांप्रदायिक खाँचों में बँटता जा रहा है, राही मासूम रज़ा का लेखन और भी प्रासंगिक हो जाता है। उनकी भाषा हमें सिखाती है कि हिंदी सिर्फ़ नागरी लिपि में लिखे जाने वाले शब्दों का नाम नहीं बल्कि गंगा के पानी में घुली हुई वह रवानी है, जो अवधी, भोजपुरी, उर्दू और फ़ारसी से मिलकर बनी है। उनकी कहानियाँ हमें बताती हैं कि साहित्य की असली ताक़त किसी नारे में नहीं, बल्कि उन छोटे-छोटे क्षणों में होती है, जहाँ आदमी आदमी से जुड़ता है-बिना नाम, धर्म या पहचान पूछे।
राही मासूम रज़ा सिर्फ़ एक लेखक नहीं थे, वे हिंदी साहित्य की अंतरात्मा में गूँजने वाली वह आवाज़ थे, जो यह याद दिलाती है कि भाषा सिर्फ़ शब्दों का खेल नहीं बल्कि स्मृतियों, संघर्षों और संवेदनाओं की साझी विरासत है।
रज़ा ने कभी अपनी पहचान को सीमाओं में नहीं बांधा। वे न हिंदू थे, न मुसलमान - वे उस भाषा के वारिस थे जो मिटने के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी शहादत दे सकती थी। यही कारण है कि उनका लिखा हुआ हर वाक्य आज भी गूंजता है, हर शब्द किसी भूले-बिसरे दर्द की तरह हमारी रगों में धड़कता है। वे अपने उपन्यासों में, कविताओं में और सबसे बढ़कर, अपने गद्य की लय में हमेशा जिंदा रहेंगे-एक टीस की तरह, एक दस्तावेज़ की तरह, एक चेतावनी की तरह।