बंगाली पहचान की जंग, भाषा से सम्मान तक की लड़ाई

बंगाली पहचान आंदोलन अब भाषा से आगे बढ़कर सम्मान और अस्तित्व की जंग बन गया है। प्रवासी मजदूरों पर संकट और राजनीति ने इसे और गहराया है।;

Update: 2025-08-27 02:41 GMT

कोलकाता के एक प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक ने हाल ही में अपनी संडे एडिशन में प्रकाशित एक फीचर स्टोरी की हेडलाइन में बंगला लिपि का एक अक्षर शामिल किया। यह प्रयोग न केवल रचनात्मक था बल्कि बंगाली भाषायी पहचान का प्रतीक भी बना। राज्य में यह चलन तेजी से सांस्कृतिक आत्मप्रकाशन का रूप ले रहा है। शांतिपुर और फूलिया के बुनकरों का कहना है कि इस बार दुर्गा पूजा पर बंगला लिपि या बंगाली कविताओं और गीतों की पंक्तियों वाले साड़ियों की मांग बढ़ गई है। पद्मश्री से सम्मानित बुनकर बिरेन बसाक ने बताया “इस बार बंगला लिपि वाले डिज़ाइन की मांग इतनी बढ़ी है कि विदेशों से भी ऑर्डर मिल रहे हैं।”

भाषाई पहचान की यह लहर सड़कों पर भी दिखाई दे रही है। राज्यभर में विरोध रैलियां और जुलूस बंगाली कविताओं की पंक्तियों के साथ गूंज रहे हैं, जो बुज़ुर्गों को 1952 के भाषा आंदोलन की याद दिलाते हैं।

ऐतिहासिक संदर्भ और ममता बनर्जी की अपील

एक पूर्व छात्र नेता, जो 1952 के ऐतिहासिक आंदोलन के दौरान स्कूली छात्र थे, ने कहा—“आज जो विरोध हो रहा है, उसमें वही भावनात्मक आत्मा झलक रही है, जिसने हमें भाषा के लिए लड़ने की प्रेरणा दी थी। हालांकि दोनों परिस्थितियाँ पूरी तरह अलग हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में “दूसरे भाषा आंदोलन” का आह्वान किया और रैली में घोषणा की—“अगर बंगाली बोलना अपराध है, तो मुझे पहले गिरफ्तार करो।”

प्रवासी मज़दूरों पर असर

मौजूदा आंदोलन की जड़ में बीजेपी-शासित राज्यों जैसे दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और ओडिशा में बंगाली बोलने वाले प्रवासी मज़दूरों के साथ होने वाला कथित उत्पीड़न है। इन्हें अवैध बांग्लादेशी आप्रवासी बताकर परेशान किया जाता है। हाल ही में दिल्ली पुलिस की एक नोटिस में बंगाली को “बांग्लादेशी भाषा” कहा गया और बीजेपी आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने विवादित दावा किया कि बंगाली नाम की कोई भाषा नहीं है।

1952 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में छात्रों ने बंगाली भाषा को मान्यता दिलाने के लिए प्राण न्योछावर कर दिए थे। 21 फरवरी को ढाका विश्वविद्यालय में पुलिस गोलीकांड में सात से अधिक छात्रों की मौत हुई थी। इसी की याद में आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।इसी तरह, 1961 में असम के बराक घाटी में असमिया भाषा थोपे जाने के खिलाफ आंदोलन हुआ, जिसमें सिलचर में 11 प्रदर्शनकारियों की जान गई।

आज का आंदोलन: भाषा से अधिक पहचान

वरिष्ठ स्तंभकार सुक्हरंजन दासगुप्ता ने टिप्पणी की—“1952 और 1961 के संघर्ष मातृभाषा में शिक्षा और अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए थे। लेकिन आज बंगाली भाषा पर सीधा खतरा नहीं है। यह आंदोलन प्रवासी मज़दूरों के साथ हो रहे अन्याय और भेदभाव से उपजा है। मजदूरों के अनुभव चिंताजनक हैं—रात में छापे, गलत गिरफ्तारियाँ और यहाँ तक कि जबरन बांग्लादेश भेजे जाने के आरोप सामने आए हैं। मलदा के एक प्रदर्शनकारी मोसारकुल अनवर ने कहा—“यह सिर्फ भाषा का मुद्दा नहीं है। यह सम्मान और बराबरी का सवाल है। जब हमारे लोग गुजरात या राजस्थान में सिर्फ बंगाली बोलने की वजह से पीटे जाते हैं, तब यह जीने-मरने का सवाल बन जाता है।”

आर्थिक जड़ें और राजनीतिक कथानक

पिछले एक दशक में औद्योगिक विकास की कमी और रोजगार संकट के कारण लाखों बंगाली युवा दूसरे राज्यों में काम की तलाश में गए हैं। राज्य सरकार का अनुमान है कि करीब 22 लाख लोग प्रवासी मज़दूरी कर रहे हैं। इनकी उपस्थिति को बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों ने “अवैध आप्रवासियों” के राजनीतिक विमर्श से जोड़ दिया है।

राजनीतिक विश्लेषक अमल सरकार के अनुसार बीजेपी यह दिखाना चाहती है कि बंगाल से बड़ी संख्या में लोग रोज़गार के लिए बाहर जा रहे हैं, खासकर बीजेपी-शासित राज्यों में। इनमें से बड़ी संख्या मुस्लिम मज़दूरों की है, जिसे बांग्लादेशी घुसपैठ की कहानी से जोड़ा जा सकता है। यह राजनीतिक नैरेटिव भारतीय बंगालियों और वास्तविक अवैध प्रवासियों के बीच की रेखा को धुंधला कर देता है। लेकिन अब यही रणनीति उलटी पड़ रही है क्योंकि हर बंगाली भाषी को बाहरी या बांग्लादेशी कहकर पूरा समुदाय अलग-थलग करने का जोखिम उठाया जा रहा है।

भाषा से परे पहचान का संघर्ष

2025 का यह बंगाली पहचान आंदोलन भाषा की रक्षा से अधिक उसके पुनर्प्रकाशन की कोशिश है। यह सांस्कृतिक आत्मविश्वास है, जिसकी जड़ें आज की राजनीति, बेरोजगारी, विस्थापन और बढ़ते क्षेत्रीय तनाव में हैं। भाषा अब केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि अस्तित्व और सम्मान का हथियार और ढाल बन चुकी है।

Tags:    

Similar News