300 साल बाद कब्र में भी सलामत नहीं औरंगजेब !
मुगल बादशाह औरंगजेब की मौत 1707 में हो गई थी। उसके बाद उसकी इच्छानुसार उसे खुल्दाबाद में कब्र में दफना दिया गया। लेकिन राजनीति ने औरंगजेब को आज भी जिंदा रखा है।;
औरंगजेब को कब्र में दफ्न हुए तीन सौ साल से ज्यादा हो चुके हैं यानी तीन सदियां गुजर चुकी हैं, लेकिन ताज्जुब है कि मौत के 318 साल बाद औरंगजेब आज भी भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बना हुआ है।
इतिहास मेंं औरंगजेब को भले ही क्रूर और अत्याचारी मुगल शासक माना जाता रहा है, लेकिन ये भी कम दिलचस्प बात नहीं है कि आज के महाराष्ट्र के खुल्दाबाद में तीन सदी तक उसकी कब्र आज तक सलामत है। यहां तक कि छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशजों तक ने भी इस कब्र को बचाए रखा।
लेकिन अब तीन सौ साल बाद उसकी मजार को तोड़ने के लिए जिस तरह से हिंदूवादी संगठनों ने झंडा उठाया हुआ है, उससे तो लग रहा है कि अब तो औरंगजेब कब्र में भी सलामत नहीं है। उसकी कब्र पर खतरा मंडरा रहा है। इसको देखते हुए इन दिनों इस कब्र के इर्द गिर्द सुरक्षा की तगड़ी किलेबंदी की गई है।
कब्र खुल्दाबाद में, हिंसा नागपुर में
हैरानी की बात तो ये है कि खुल्दाबाद, जहां कि औरंगजेब की कब्र है, वहां से लगभग साढ़े चार सौ-पांच सौ किलोमीटर दूर नागपुर में औरंगजेब को लेकर हिंसा हो गई।
खुल्दाबाद में स्थित औरंगजेब की कब्र को हटाने की मांग कर रहे विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने सोमवार को नागपुर के महाल गांधी गेट परिसर में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा के सामने औरंगजेब का पुतला जलाया। इसमें एक समुदाय की धार्मिक पुस्तक को जलाने की अफवाह फैली।
जिसके बाद दो समुदायों के बीच तनाव पैदा हो गया। देखते ही देखते हिंसा भडक उठी। मामला पथराव, आगजनी, लाठीचार्ज, आंसू गैस के गोले दागने तक पहुंच गया। हालात बिगड़ते देखकर नागपुर के कई इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा। नागपुर वही शहर है जहां से कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस चुनकर आते हैं।
औरंगजेब का जिन्न कैसे बाहर आया?
वैसे औरंगजेब का जिक्र भारतीय राजनीति मे कोई नया नहीं है। खासकर चुनावी मौसम में किसी न किसी बहाने मुगलों के शासन और औरंगजेब का जिक्र आ ही जाता है। इस पर कैसे ध्रुवीकरण का खेल होता है, ये किसी से छिपा नहीं है।
लेकिन इस बार औरंगजेब के जिन्न को एक फिल्म 'छावा', बोतल से बाहर निकाल ले आई। विक्की कौशल के लीड रोल वाली फिल्म छावा वैसे तो छत्रपति शिवाजी महाराज की बेटे छत्रपति संभाजी की वीरता की कहानी कहती है, लेकिन सारा फोकस चला गया औरंगजेब पर। सोशल मीडिया औरंगजेब की चर्चाओं से पट गया।
राजनीति में मौका ताड़ लिया। समाजवादी पार्टी के नेता अबू आजमी के बयान ने आग में घी डालने का काम कर दिया। फिर क्या था, महाराष्ट्र में सत्ताधारी दल के बडे-बड़े नेता औरंगजेब पर बयानबाजी करने लगे। और अब नतीजा सामने है। नागपुर के कई इलाके हिंसा में झुलस चुके हैं।
जब-जब चुनाव,औरंगजेब पर तनाव
औरंगजेब के नाम को किस तरह से हिंदुत्व की राजनीति के लिए राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि अक्सर चुनावों के वक्त औरंगजेब के मुद्दे को हवा दी जाती है।
साल 2023 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों से पहले भी औरंगजेब को लेकर हिंसा हुई थी। कोल्हापुर में औरंगजेब के समर्थन में वॉट्सएप स्टेटस लगाने के बहाने हिंसा भड़क उठी थी।
औरंगजेब की वापसी के लिए इस बार निकट भविष्य में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों और बहुप्रतीक्षित बीएमसी चुनाव को भी एक वजह माना जा रहा है। ये वो चुनाव हैं जिनमें सत्ताधारी गठबंधन से लेकर विपक्षी गठबंधन तक सभी का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है।
ऐसे में माना जा रहा है कि सत्ताधारी गठबंधन को ऐसा इमोशनल मुद्दा चाहिए था जिससे वो अपने कार्यकर्ताओं को आने वाले चुनावों के लिए चार्ज रख सके।
औरंगजेब ही क्यों?
सबसे चौंकाने वाली बात तो ये है कि औरंगजेब कब का इतिहास हो चुका है..औरंगजेब के बाद से आज तक इतिहास कई करवटें ले चुका है। उसके बाद तो अंग्रेज भी आए...उन्होंने भी लंबे समय तक हिंदुस्तान पर राज किया...उनके शासन के खिलाफ जो विराट भारतीय स्वाधीनता आंदोलन चला, उसके बारे में किसी को बताने की जरूरत नहीं है।
लेकिन ताज्जुब है कि हिंदूवादी संगठनों की सुई सदियों बाद भी औरंगजेब पर ही अटकी हुई है...शायद उन्हें औरंगजेब के क्रूर शासन की याद दिलाकर आज हिंदू बनाम मुस्लिम का खेल खेलने में ज्यादा आसानी होती है।
तीन सौ साल से भी ज्यादा पुराना इतिहास आज की भारतीय राजनीति को प्रभावित कर रहा है।औरंगजेब का जिक्र जब-तब हो ही जाता है...यहां तक कि औरंगजेब के नाम पर जो औरंगाबाद शहर बसा था, उसका नाम बदलकर भी छत्रपति संभाजीनगर कर दिया गया। लेकिन फिर भी औरंगजेब की चर्चा थम नहीं रही।
औरंगजेब की कब्र खुल्दाबाद में क्यों?
अब विवाद के बीच एक जिज्ञासा यह भी जगती है कि मुगल शासक औरंगजेब तो उस समय हिंदुस्तान का बादशाह था...दिल्ली से उसकी सल्तनत चलती थी, तो उसे दिल्ली से इतनी दूर महाराष्ट्र के खुल्दाबाद में क्यों दफनाया गया था? दरअसल साल 1658 में छठा मुगल शासक बनने से पहले औरंगजेब को उसके पिता शाहजहां ने तब के दक्कन (दक्षिण भारत) का सूबेदार बनाया था।
औरंगजब ने खुद को आलमगीर नाम दिया, जिसका अर्थ है दुनिया को जीतने वाला, लेकिन दुनिया जीतने के ख्वाब संजोने वाले औरंगजेब के सपनों को छत्रपति शिवाजी महाराज कई बार तोड़ चुके थे।
दरअसल खुल्दाबाद दक्षिण भारत में इस्लाम का गढ़ और सूफी आंदोलन का केंद्र हुआ करता था। इसी वजह से यहां देश-विदेश से सूफी आते रहे हैं. उन सभी सूफी संतों क कब्र ख़ुल्दाबाद में है..जिनमें सैयद जैनुद्दीन शिराजी की कब्र भी है, जिन्हें मुगल बादशाह औरंगजेब अपना गुरु मानता था।
खुल्दाबाद को औरंगजेब ने खुद चुना
इतिहासकारों का कहना है कि औरंगज़ेब ने अपनी वसीयत में लिखा था कि मृत्यु के बाद उसकी कब्र अपने गुरु और सूफी संत सैयद ज़ैनुद्दीन शिराजी की कब्र के बगल में हो. औरंगज़ेब की मौत के बाद उसके बेटे आजम शाह ने ख़ुल्दाबाद में अपने पिता की कब्र बनवाई.
औरंगज़ेब की मृत्यु साल 1707 में आज के अहिल्यानगर में हुई थी, जोकि पहले अहमदनगर के नाम से जाना जाता था. उसके बाद उसका पार्थिव शरीर ख़ुल्दाबाद लाया गया जोकि अहमदनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर है।
ऐसा कहा जाता है कि उस समय कब्र को बनाने में 14 रुपये खर्च हुए। औरंगजेब को यहीं दफनाया गया।