गिधग्राम में ऐतिहासिक परिवर्तन, बंगाल में दलित अधिकारों की नई शुरुआत
गिधग्राम में ममता दास और उनके साथ चार अन्य लोग, जिला प्रशासन की मदद से मंदिर की 16 सीढ़ियां चढ़े. यह घटना बंगाल में दलित अधिकारों के लिए एक मील का पत्थर साबित हुई.;
12 मार्च को पश्चिम बंगाल के गिधग्राम गांव में एक ऐतिहासिक घटना घटी, जब 50 वर्षीय दलित महिला ममता दास ने एक शिव मंदिर में पूजा अर्चना की. यह घटना न केवल उस गांव के दलित समुदाय के लिए, बल्कि पूरे राज्य के लिए एक अहम मोड़ साबित हुई. दशकों से दबे हुए जातिवाद के एक गूढ़ सत्य को इस दिन उजागर किया गया. जो सदियों से लोगों की नजरों से ओझल था. गिधग्राम कोलकाता से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित है, एक बहु-जातीय गांव है और यहां पर 5,000 से ज्यादा लोग रहते हैं.
गांव में इस दिन की महत्ता को देखते हुए सुरक्षा इंतजाम कड़े किए गए थे. पुलिस और रेपिड एक्शन फोर्स (RAF) के जवानों को तैनात किया गया था, ताकि किसी भी अप्रिय घटना को रोका जा सके. घटना के दिन, उप-विभागीय अधिकारी (SDO) अहिंसा जैन भी मौके पर मौजूद थीं, ताकि स्थिति पर नजर रखी जा सके. गिधग्राम गांव का दसपारा इलाका विशेष रूप से दलित समुदाय का गढ़ माना जाता है. यह इलाका एक तरह से गेटो जैसा हो गया था. करीब 550 दलित परिवार मुख्य रूप से यहीं रहते थे. इन परिवारों का मुख्य पेशा चप्पल बनाना था और मंदिर में उनका प्रवेश सदी दर सदी प्रतिबंधित था. यह परंपरा जातिवाद के खिलाफ राज्य के असल रंग को उजागर करती है, जहां बंगाल हमेशा खुद को जातिवाद से मुक्त बताता रहा है.
ज्योति बसु और पश्चिम बंगाल का जातिवाद
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने 1980 में मंडल आयोग के सवालों का जवाब देते हुए कहा था कि राज्य में केवल दो जातियां हैं: अमीर और गरीब. उनका यह बयान राज्य में जातिवाद की जटिल सच्चाई को छुपाने की कोशिश की तरह था. वास्तव में, पश्चिम बंगाल के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे पर जातिवाद की गहरी जड़े थीं और जाति-हिंदू राजनीतिक प्रतिष्ठान (मुख्य रूप से ब्राह्मण, बैद्य और कायस्थ समुदाय) ने राज्य की सत्ता पर लंबे समय तक कब्जा बनाए रखा. इतना ही नहीं, राज्य में अनुसूचित जाति (SC) समुदाय की जनसंख्या 23.51 प्रतिशत है. लेकिन फिर भी इस समुदाय से किसी को मुख्यमंत्री बनने का अवसर नहीं मिला. बंगाल देश की दलित जनसंख्या का 10 प्रतिशत हिस्सा है और इसके बावजूद इस समुदाय की सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी बहुत ही सीमित रही.
ममता बनर्जी की सरकार और दलित समुदाय
ममता बनर्जी के 43 सदस्यीय कैबिनेट में 2021 में केवल चार सदस्य SC समुदाय से थे. इसके अलावा दलित समुदाय को रोजगार और शिक्षा में भी भेदभाव का सामना करना पड़ा. जबकि राज्य में 22 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था थी. 2011 की जनगणना के मुताबिक, SC समुदाय की साक्षरता दर 69.4 प्रतिशत थी. जो राज्य के औसत (77.08 प्रतिशत) से कम है. उच्च शिक्षा में SC छात्रों का सकल नामांकन अनुपात (GER) भी 25.9 प्रतिशत था. जो राज्य के औसत 27 प्रतिशत से थोड़ा ही कम था. ममता बनर्जी ने मुंबई में इंडिया गठबंधन के सहयोगियों के साथ हुई बैठक में जाति आधारित जनगणना का विरोध किया, शायद इसलिए कि यह जातिवाद के मौजूदा ढांचे को उजागर कर सकता था.
SC समुदाय के भीतर भेदभाव
रवीदासिया महासंघ के महासचिव राम प्रसाद दास का कहना है कि SC समुदाय के भीतर भी भेदभाव जारी है और उनका कहना है कि SC समुदाय के प्रतिनिधित्व की स्थिति महज दो से तीन प्रतिशत तक सीमित है. उन्होंने राज्य सरकार से SC समुदायों के बीच आरक्षण का उप-वर्गीकरण करने की मांग की है. पश्चिम बंगाल में SC समुदाय के 60 उप-जातियां हैं, जिनमें प्रमुख उप-जातियां राजबंशी और नमसूद्रास हैं. ये दोनों समुदाय 19वीं शताब्दी के मध्य में अविभाजित बंगाल में दलित समाज के उत्थान के लिए शुरू हुए सामाजिक आंदोलनों के मुख्य अंग थे.
विभाजन और दलित पहचान
विभाजन के बाद, इन दोनों प्रमुख SC समुदायों के सदस्य शरणार्थी बन गए और उनकी दलित पहचान नए शरणार्थी पहचान में समाहित हो गई. इसने जातिगत पहचान की पुष्टि करने वाले किसी संगठित आंदोलन को कमजोर कर दिया. हालांकि, गिधग्राम में हुई घटना ने इस बदलाव की ओर इशारा किया. अब यह पहल दलित समुदाय के सबसे हाशिए पर रहने वाले वर्ग द्वारा की गई थी.
गिधग्राम में दलित अधिकारों की नई शुरुआत
गिधग्राम में ममता दास और उनके साथ चार अन्य लोग, जिला प्रशासन की मदद से मंदिर की 16 सीढ़ियां चढ़े. यह घटना बंगाल में दलित अधिकारों के लिए एक मील का पत्थर साबित हुई. ममता दास ने The Federal से बात करते हुए बताया कि हम अब कूच बिहार से लेकर काकद्विप तक ऐसे कई स्थानों से रिपोर्ट प्राप्त कर रहे हैं, जहां दलितों के खिलाफ भेदभाव होता आ रहा है. मैंने मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखा है, जिसमें उन स्थानों की सूची दी है, जहां ये भेदभाव वर्षों से चल रहे हैं. गिधग्राम में दलित अधिकारों के इस नए दावे के पीछे रवीदासिया महासंघ की 2019 से चल रही सामाजिक संघर्ष की पहल का हाथ है.
आशा की नई किरण
गिधग्राम में हुई घटना उम्मीद की एक नई किरण साबित हो सकती है. यह दिखाता है कि दलित समुदाय अब अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए तैयार है. आशा की जाती है कि राज्य अब जातिवाद से जुड़ी समस्याओं को नकारने का रवैया छोड़ देगा. जैसा कि पहले वाम मोर्चे के शासनकाल में किया गया था, जब राज्य को जातिविहीन बताने की कोशिश की गई थी. अब यह उम्मीद जताई जा रही है कि बंगाल में जातिवाद पर खुलकर बात होगी और दलित समुदाय को उनका हक मिलेगा.