नौरादेही में चीते बसाने की योजना पर मतभेद, वैज्ञानिकों में बढ़ी बहस
मध्य प्रदेश के नौरादेही में अफ्रीकी चीते बसाने की योजना पर वैज्ञानिकों ने सवाल उठाए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यह परियोजना अपने वैज्ञानिक उद्देश्य से भटक गई है।
मध्य प्रदेश के सागर, दमोह और नरसिंहपुर जिलों में फैले लगभग 1,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य को अफ्रीकी चीतों के लिए तीसरा घर बनाने का प्रस्ताव एक बार फिर उस पुराने वैज्ञानिक और पारिस्थितिक विवाद को हवा दे रहा है, जो भारत के ‘प्रोजेक्ट चीता’ को लेकर वर्षों से जारी है।
मध्य प्रदेश में पहले से ही दो चीता आवास कूनो नेशनल पार्क और गांधी सागर अभयारण्य मौजूद हैं। अब जब वन विभाग नौरादेही को तीसरे विकल्प के रूप में परख रहा है, विशेषज्ञों ने इस कदम पर सवाल उठाते हुए कहा है कि यह निर्णय फिर वही चिंताएँ दोहरा रहा है क्या यह जगह चीतों के लिए उपयुक्त है, क्या वे यहां अन्य शिकारी प्रजातियों के साथ सहअस्तित्व रख पाएंगे, और क्या यह प्रोजेक्ट अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है?
‘सब-ऑप्टिमल’ आवास?
वन्यजीव विशेषज्ञ रवि चेल्लम का मानना है कि नौरादेही पूरी तरह अनुपयुक्त नहीं है, लेकिन इसे ‘आदर्श आवास’ भी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा “मुझे बताया गया है कि नौरादेही का इलाका ज़्यादातर वुडलैंड (घना वन) है, न कि खुला मैदान। यह स्थिति चीतों के लिए कम उपयुक्त (सब-ऑप्टिमल) बनाती है, हालांकि पूरी तरह असंगत नहीं। चीते कई तरह के आवासों में रह सकते हैं। लेकिन उनकी सबसे बड़ी चिंता है — अन्य बड़े शिकारी जीवों की उपस्थिति। उन्होंने बताया कि इस क्षेत्र में 20 से अधिक वयस्क बाघ रहते हैं, जिनके अलावा कई ‘ट्रांजिट’ बाघ भी आते-जाते रहते हैं।इतने बाघों के बीच चीते बसाना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा, खासकर घने वनों में,” उन्होंने चेताया।
‘वैज्ञानिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण योजना’
वन्यजीव वैज्ञानिक अर्जुन गोपालस्वामी का कहना है कि यह परियोजना शुरू से ही वैज्ञानिक आधार पर कमजोर रही है। उन्होंने कहा “चीतों को लाने के लिए जो एक्शन प्लान तैयार किया गया था, वह वैज्ञानिक रूप से गलत था। कूनो की क्षमता को तीन से चार गुना अधिक आंका गया, जबकि वास्तविकता में वह इतने चीते संभाल नहीं सकता।”
उनके मुताबिक, कूनो से चीतों का बाहर निकलना और राजस्थान तक पहुंच जाना एक स्वाभाविक परिणाम था — “यह चीतों के व्यवहार का हिस्सा है, जिसे प्लान में ध्यान में नहीं रखा गया। गोपालस्वामी और चेल्लम ने 2022 में ‘नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन’ नामक जर्नल में प्रकाशित अपने शोधपत्र में लिखा था “अफ्रीकी चीतों को ऐसे देश में छोड़ा जा रहा है जहां मानव जनसंख्या घनत्व नामीबिया से 150 गुना अधिक है। ऐसी अस्थिर और वैज्ञानिक दृष्टि से कमजोर योजना मानव-चीता संघर्ष, चीतों की मौत, या दोनों की ओर ले जाएगी।”
उनका कहना है कि उनके लगभग सभी अनुमान अब सच साबित हुए हैं चीतों का आवास से बाहर निकलना, बकरियों को मारना, ग्रामीणों द्वारा हमला करना “सब कुछ हो चुका है।”
‘रीवाइल्डिंग नहीं, नेचुरल ज़ू बन रहा है प्रोजेक्ट’
गोपालस्वामी ने आगे कहा, “अब जो हो रहा है, वह असल ‘रीवाइल्डिंग’ नहीं है। चीतों को छोटे-छोटे बाड़ों में रखा जा रहा है। यह धीरे-धीरे एक प्राकृतिक चिड़ियाघर जैसा बनता जा रहा है।”
‘पोस्टर स्पीशीज़’ के रूप में चीता
वहीं वाइल्डलाइफ़ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (WII) के वैज्ञानिक क़मर कुरैशी का मत थोड़ा अलग है।उनका कहना है कि नौरादेही शुरू से ही योजना का हिस्सा था और इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा रहा है।“पहले चरण में हमने मध्य प्रदेश की तीन साइटें चुनीं ताकि उनसे सीख लेकर आगे अन्य राज्यों में विस्तार किया जा सके।”
कुरैशी के अनुसार “हर क्षेत्र में कोई न कोई प्रतीक प्रजाति होती है — जैसे बाघों के संरक्षण के नाम पर पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा होती है। वैसे ही चीतों के नाम पर शुष्क और अर्ध-शुष्क इलाकों की रक्षा की जा सकती है। चीता भारत के इस पारिस्थितिकी तंत्र का ‘फ्लैग बेयरर’ है।”
“क्या भारत को वाकई चीतों की ज़रूरत थी?”
संरक्षण जीवविज्ञानी रघु चंदावत इस तर्क से असहमत हैं।उन्होंने कहा “यह पूरा विचार बिना किसी ठोस वैज्ञानिक योजना के चल रहा है। यह केवल एक दिखावटी कदम है — सोच अधूरी है और उद्देश्य अस्पष्ट।”
उन्होंने पूछा, “क्या भारत को सच में चीतों की ज़रूरत थी? और अगर थी, तो किस उद्देश्य से?” चंदावत ने कहा कि अगर चीतों को डेज़र्ट नेशनल पार्क में बसाया जाता, तो वहाँ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसी संकटग्रस्त प्रजाति को भी संरक्षण मिलता।“लेकिन बाघ और तेंदुए वाले क्षेत्रों में चीते लाना किसके हित में है?” उन्होंने सवाल किया।
उनका मानना है कि नौरादेही में पहले से ही बाघों और तेंदुओं की घनी आबादी है, जिससे चीतों के बच्चों की मृत्यु दर बढ़ सकती है। “तेंदुए ज़्यादा चालाक होते हैं, इसलिए उनसे खतरा ज़्यादा है,” उन्होंने कहा।
क्या भारत दे पाएगा ‘वाइल्ड होम’?
गोपालस्वामी ने अंत में कहा चीतों को बसाने से पहले हमें उनकी पारिस्थितिक ज़रूरतें पूरी करनी होंगी, न कि अपनी इच्छाएं। उन्हें कम से कम 10,000 से 20,000 वर्ग किलोमीटर का खुला, शिकार-समृद्ध और संघर्ष-मुक्त क्षेत्र चाहिए। जैसे-जैसे मध्य प्रदेश नौरादेही को एक नए प्रयोग स्थल के रूप में तैयार कर रहा है, वैज्ञानिकों का सवाल अब भी वही है “भारत में चीते रह तो सकते हैं, लेकिन क्या उन्हें यहाँ सचमुच ‘जंगली घर’ मिल पाएगा?”