लद्दाख की तीरंदाजी: लोक कला से आधुनिक खेल बनने की कहानी
मोतुप नामग्याल ने 40 वर्षों से अधिक समय से लद्दाख में तीरंदाजी को बढ़ावा दिया। पारंपरिक खेल को आधुनिक रूप देने में उनकी अहम भूमिका रही। कोविड काल में महिलाओं के लिए तीरंदाजी के द्वार खोले। स्टैंजिन जैसी नई पीढ़ी की खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर छा रही हैं। अभी भी बुनियादी सुविधाओं की कमी, लेकिन स्थानीय प्रयासों से उम्मीदें जिंदा हैं।
उम्र भले ही 62 हो चुकी है, लेकिन मोतुप नामग्याल का जीवन अब भी तीरंदाजी के इर्द-गिर्द घूमता है। लेकिन अब खिलाड़ी के रूप में नहीं, बल्कि एक समर्पित कोच के रूप में। लद्दाख के चांगथांग इलाके के निवासी मोतुप पिछले चार दशकों से अधिक समय से तीरंदाजी को बढ़ावा देने और इस पारंपरिक खेल को एक पेशेवर रूप देने में जुटे हैं।
उनकी शुरुआत बेहद सामान्य रही – लद्दाख के सुदूर गांवों में बुजुर्गों के साथ हाथ से बने धनुष-बाण से प्रतियोगिता खेलते हुए। वर्ष 1986 में उन्होंने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAI) द्वारा आयोजित एक क्षेत्रीय प्रतिभा खोज में हिस्सा लिया। वहां चयनित होकर उन्हें ₹500 का पुरस्कार मिला, जो उस समय उनके लिए एक बड़ी प्रेरणा थी। इसी वर्ष दिसंबर में उन्हें दिल्ली के नेहरू स्टेडियम में प्रोफेशनल ट्रेनिंग के लिए बुलाया गया।
लद्दाख लौटने के बाद एक मिशन की शुरुआत
दिल्ली से लौटने के बाद मोतुप का लक्ष्य तय था – लद्दाख में प्रतिस्पर्धात्मक तीरंदाजी की नींव रखना। उनके अनुसार, अब तक वह 2000 से अधिक छात्रों को प्रशिक्षित कर चुके हैं, जिनमें से कई ने पैरा-मिलिट्री में नौकरी पाई है या राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लिया है।
महिलाओं के लिए नया द्वार खोलना
2021 में कोविड महामारी के दौरान मोतुप ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया – उन्होंने पहली बार लड़कियों को तीरंदाजी की ट्रेनिंग देना शुरू किया। पारंपरिक लद्दाखी समाज में महिलाओं को तीरंदाजी में हिस्सा लेने की अनुमति नहीं थी, लेकिन मोतुप ने इस मान्यता को तोड़ा। नुब्रा घाटी के तक्शा गांव में आज 200 से अधिक लड़कियां तीरंदाजी का प्रशिक्षण ले रही हैं।
स्टैंजिन चोसडोन की सफलता
मोतुप की शिष्या 12 वर्षीय स्टैंजिन चोसडोन ने सिर्फ तीन महीने की ट्रेनिंग के बाद 'खेलो इंडिया' और 'योद्धा कप' में दो स्वर्ण पदक जीतकर सबको चौंका दिया। अब वह उन छह खिलाड़ियों में शामिल हैं, जिन्हें जयपुर में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। उनके पिता और समुदाय संगठन ‘सोग फंदेल सोकस्पा’ के अध्यक्ष जिग्मत लोटस के अनुसार, यह सब समुदाय की सामूहिक पहल का परिणाम है।
लद्दाखी संस्कृति में तीरंदाजी की गहराई
पद्मश्री मोरुप नामग्याल, जो लद्दाखी लोकगीतों के संरक्षक हैं, बताते हैं कि तीरंदाजी केवल खेल नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक परंपरा है। केसर-ए-गुरुम्स जैसे महाकाव्य तीरंदाजों और जादुई तीरों की कहानियों से भरे पड़े हैं। यहां तक कि पारंपरिक शादी या बच्चे के जन्म जैसे धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठानों में भी तीरों का उपयोग होता था। कई गांवों में बुल्स-आई (त्सग्ये) को "दुश्मन की आंख" माना जाता था। यह लक्ष्य विशेष कारीगरी से तैयार होता था – रेत, याक की खाल, मिट्टी और चारे से। इसे भेदना सिर्फ खेल नहीं, बल्कि मान-सम्मान की बात होती थी।
आधुनिक तीरंदाजी बनाम पारंपरिक खेल
हालांकि अब लद्दाख में आधुनिक तीरंदाजी तेज़ी से फैल रही है, लेकिन कुछ लोगों को इससे चिंता भी है। कारगिल के लेखक और इतिहासकार मोहम्मद सादिक हारदासी के अनुसार, 80 और 90 के दशक तक तीरंदाजी गांवों की आत्मा हुआ करती थी। अब लोग लाखों के आधुनिक धनुष लेकर पारंपरिक प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं, जिससे स्थानीय कारीगरों का काम खत्म हो गया है। हाजी हसन, कारगिल के त्रेस्पोने गांव के एक धनुष निर्माता, बताते हैं कि अब पारंपरिक लकड़ी के धनुष की मांग लगभग समाप्त हो गई है। वह शायद ही साल में कभी कोई धनुष बनाते हों।
संरचना, समर्थन और चुनौतियां
हालांकि लद्दाख में अब SAI का स्टेट सेंटर ऑफ एक्सीलेंस बन चुका है और भारतीय सेना, LAHDC व स्थानीय संगठनों की मदद से कोचिंग कैंप्स चल रहे हैं, फिर भी बुनियादी ढांचे की भारी कमी है। आर्चरी एसोसिएशन ऑफ लद्दाख के महासचिव लोबजांग शेरब बताते हैं कि पिछले 5 वर्षों में उन्होंने 70–80 बच्चों को राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भेजा है, लेकिन सरकार से उन्हें पर्याप्त सहयोग नहीं मिला। वह कहते हैं कि आज भी लद्दाख में NIS सर्टिफाइड एक भी कोच नहीं है। बिना प्रोफेशनल ट्रेनिंग के हम युवाओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे पहुंचाएंगे?
भविष्य की तरफ एक नजर
LAHDC के काउंसलर त्सेरिंग सांडुप बताते हैं कि अब लद्दाख में लिंग आधारित भेदभाव को हटाकर लड़के और लड़कियों दोनों को समान अवसर दिए जा रहे हैं। "हम सिर्फ भागीदारी नहीं, उत्कृष्टता चाहते हैं," वे कहते हैं। मोतुप नामग्याल का सपना है – लद्दाख के युवा ओलंपिक जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश के लिए पदक जीतें और इस सपने की नींव रखी जा चुकी है – उस धनुष से, जो अब सिर्फ परंपरा नहीं, पहचान बनता जा रहा है।