कर्नाटक में CM पद को लेकर सिद्दारमैया–शिवकुमार की तकरार तेज; हाईकमान कैसे सुलझाएगा?

कैपिटल बीट के इस एपिसोड में कर्नाटक में लीडरशिप की खींचतान, कथित पावर डील, जाति के समीकरण, कानूनी चुनौतियों और इस संकट से निपटने में कांग्रेस हाईकमान की स्ट्रैटेजी के बारे में बताया गया है।

By :  Neelu Vyas
Update: 2025-11-28 17:18 GMT

Capital Beat: कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद को लेकर सियासी खींचतान एक बार फिर तेज हो गई है। मुख्यमंत्री सिद्दारमैया और उप मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार दोनों ही दिल्ली में होने वाली कांग्रेस हाई-कमांड की अहम बैठक से पहले राजनीतिक दबदबा बढ़ाने में जुटे हैं। सरकार अपने कार्यकाल के आधे रास्ते पर पहुंच चुकी है, ऐसे में नेतृत्व परिवर्तन और पार्टी की स्थिरता को लेकर सवाल फिर उभर रहे हैं।


तकरार की वजह और हाई-कमांड की भूमिका

दोनों नेता लगातार यह कह रहे हैं कि अंतिम फैसला हाई-कमांड ही लेगा, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनके समर्थक सक्रिय लॉबिंग और राजनीतिक संकेतों के ज़रिये अपनी-अपनी दावेदारियां मजबूत करने में लगे हैं।

'कैपिटल बीट' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार विजय ग्रोवर, अनंथा चिनिवार और प्रो. डीएस पूर्णानंदा ने इस पूरे मसले का विश्लेषण किया और बताया कि यह संघर्ष पुराने समझौतों, जातीय समीकरणों और सही समय पर नेतृत्व बदलाव की रणनीति से जुड़ा हुआ है।


कानूनी चुनौतियाँ और शिवकुमार की सीमाएँ

डीके शिवकुमार के खिलाफ ED और CBI की जांच जारी है और वे कई मामलों में अभी भी जमानत पर हैं। पत्रकार विजय ग्रोवर के मुताबिक, यही कारण था कि 2023 चुनावों के बाद भी उन्हें तुरंत मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया।

ग्रोवर ने कहा, “कांग्रेस ऐसा कदम नहीं उठाना चाहेगी जिससे मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवकुमार की संभावित गिरफ्तारी पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाए।”

यही वजह है कि नेतृत्व परिवर्तन का फैसला बेहद सावधानी से लिया जा रहा है।


सिद्दारमैया की मजबूती और सामाजिक समीकरण

सिद्दारमैया ने दो साल से अधिक के कार्यकाल में कई कल्याणकारी योजनाएं लागू की हैं, खासकर पिछड़े और वंचित वर्गों के लिए। पार्टी के भीतर यह भी माना जा रहा है कि सिद्दारमैया ओबीसी समुदाय से आते हैं, जो कांग्रेस की ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति के अनुरूप है। इस कारण पार्टी नेतृत्व उन्हें हटाने में जल्दबाज़ी नहीं दिखाना चाहता।


बातचीत, सौदेबाज़ी और संभावित समझौते

दोनों खेमों के समर्थक एक-दूसरे के खिलाफ “चार्जशीट” तैयार कर रहे हैं और राजनीतिक सौदेबाज़ी के संकेत जारी हैं।

ग्रोवर का कहना है कि शिवकुमार किसी भी देरी के बदले में कुछ ठोस आश्वासन चाहेंगे—जैसे कि KPCC अध्यक्ष का पद बनाए रखना और भविष्य के चुनावों में बड़ी भूमिका।

अनंथा चिनिवार के मुताबिक, किसी भी बदलाव के लिए सिद्दारमैया की सहमति अनिवार्य है। उन्होंने कहा, “किसी भी तरह का नेतृत्व परिवर्तन एक लंबी प्रक्रिया है, जिसे सिद्दारमैया की मंज़ूरी के बिना अचानक लागू नहीं किया जा सकता।”


अन्य दावेदार और जातिगत राजनीति

प्रोफेसर पूर्णानंदा ने बताया कि जी. परमेश्वर जैसे कुछ नेता दावेदारी तो पेश कर रहे हैं, लेकिन उनके पास व्यापक समर्थन नहीं है।

वोक्कालिगा समुदाय और अडिचुंचनगिरी मठ जैसे प्रभावशाली सामाजिक संगठनों ने शिवकुमार का खुलकर समर्थन किया है, जिससे समीकरण और जटिल हो गए हैं।

चर्चा में यह संभावना भी उठाई गई कि अगर स्थिति बहुत तनावपूर्ण हो जाए, तो कोई सर्वमान्य नेता—जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे—समझौते का विकल्प बन सकते हैं। हालांकि यह सिर्फ एक सैद्धांतिक संभावना है।


दिल्ली बैठक और आगे का रास्ता

सिद्दारमैया और शिवकुमार दोनों जल्द ही दिल्ली पहुंचकर हाई-कमांड से मिलेंगे। पैनल का मानना है कि तत्काल किसी बड़े फैसले की उम्मीद नहीं है।

ग्रोवर ने यह भी संकेत दिया कि सिद्दारमैया 15 जनवरी के बाद—जब वे कर्नाटक के सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले मुख्यमंत्री बनने वाले हैं—पद छोड़ने पर विचार कर सकते हैं।

चिनिवार के मुताबिक, बजट सत्र के बाद तक भी किसी बदलाव को टाला जा सकता है ताकि सरकार में अस्थिरता न आए।

कांग्रेस हाई-कमांड के सामने सबसे बड़ी चुनौती है—दो बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को साधते हुए सरकार की स्थिरता, वोट-बेस और पार्टी की साख को सुरक्षित रखना।

यह संघर्ष कैसे सुलझता है, इसका सीधा असर 2028 तक कर्नाटक और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की राजनीति पर पड़ेगा।


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