केरल LSG चुनाव: सत्ता का संतुलन बदला, कांग्रेस ने कैसे किया बड़ा उलटफेर?

राज्य सरकार के दस साल पूरे होने और 15 से 20 वर्षों से वामपंथ के नियंत्रण में चल रहे स्थानीय निकायों के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल इस बदलाव की बड़ी वजह माना जा रहा है।

Update: 2025-12-17 01:04 GMT
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केरल में हुए स्थानीय स्वशासन संस्थाओं (एलएसजी) के चुनाव परिणामों ने राज्य की राजनीति में एक मजबूत संकेत दिया है। इन नतीजों से यह स्पष्ट हो गया है कि लंबे समय से राज्य और स्थानीय स्तर पर प्रभुत्व बनाए रखने वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) को बड़ा राजनीतिक झटका लगा है। राज्य में लगातार दस वर्षों से सत्ता में और लगभग 15 से 20 वर्षों तक स्थानीय निकायों पर नियंत्रण रखने के बाद यह फैसला केवल एक सामान्य चुनावी हार नहीं है। यह एलडीएफ की राजनीतिक अजेयता की धारणा को तोड़ने वाला एक दुर्लभ उलटफेर माना जा रहा है। मतगणना के साथ ही तस्वीर साफ होती गई और लगभग हर स्तर के स्थानीय शासन में कांग्रेस-नेतृत्व वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) बढ़त बनाता नजर आया।

यूडीएफ की बड़ी बढ़त

यूडीएफ ने लगभग 500 ग्राम पंचायतों में जीत दर्ज की। इसके साथ ही उसने अधिकांश ब्लॉक पंचायतों, 14 में से सात जिला पंचायतों, ज्यादातर नगरपालिकाओं और छह में से चार नगर निगमों पर कब्जा किया। यह परिणाम 2020 के स्थानीय निकाय चुनावों से बिल्कुल उलट है, जब एलडीएफ ने करीब 580 ग्राम पंचायतों, सैकड़ों ब्लॉक पंचायतों, 11 जिला पंचायतों, अधिकांश नगरपालिकाओं और पांच नगर निगमों में जीत हासिल की थी। उसी जनादेश के दम पर एलडीएफ को विधानसभा में लगातार दूसरा कार्यकाल मिला था। पांच साल बाद राजनीतिक स्थिरता का वह भरोसा अब कमजोर पड़ता दिख रहा है।

राजधानी में झटका

वाम मोर्चे को सबसे बड़ा झटका तिरुवनंतपुरम नगर निगम की हार से लगा। यह केवल एक शहरी निकाय नहीं, बल्कि चार दशकों से वामपंथ का गढ़ और उसकी प्रशासनिक पकड़ का प्रतीक रहा है। राजधानी पर भाजपा-नेतृत्व वाले एनडीए का कब्जा महज आंकड़ों की हार नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक झटका है। हालांकि केरल में एनडीए की कुल मौजूदगी अब भी सीमित है और वह केवल कुछ नगरपालिकाओं और पंचायतों तक ही सिमटी है, फिर भी यह सफलता राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानी जा रही है। यह शहरी केरल में भाजपा के लिए संभावनाओं के नए द्वार खुलने का संकेत देती है।

सत्ता विरोधी लहर

राज्य सरकार के दस साल पूरे होने और 15 से 20 वर्षों से वामपंथ के नियंत्रण में चल रहे स्थानीय निकायों के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल इस बदलाव की बड़ी वजह माना जा रहा है। जो स्थिति पहले स्थिरता लगती थी, वह अब खासकर तिरुवनंतपुरम जैसे शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में ठहराव जैसी महसूस होने लगी है। सबरीमला विवाद और सोना तस्करी घोटाले जैसे मुद्दों को भाजपा और यूडीएफ दोनों ने जोर-शोर से उठाया, जिसका असर दक्षिणी केरल और त्रावणकोर क्षेत्र में साफ दिखाई दिया।

अल्पसंख्यक एकजुटता

उत्तरी और मध्य केरल के कुछ हिस्सों में अल्पसंख्यकों का एकजुट होकर यूडीएफ के पक्ष में झुकाव भी निर्णायक कारक रहा। सीपीआई(एम) और कुछ मुस्लिम संगठनों के बीच बढ़ते तनाव ने अहम भूमिका निभाई। जमात-ए-इस्लामी के नेतृत्व वाले अभियान संदेशों, जिनमें कुछ मुद्दों पर सीपीएम और भाजपा को एक ही श्रेणी में रखा गया, ने एलडीएफ की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया। इस एकजुटता ने कई अहम क्षेत्रों में चुनावी गणित बदल दिया।

ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूती

इन झटकों के बावजूद एलडीएफ पूरी तरह धराशायी नहीं हुआ है। ग्रामीण इलाकों में उसके पारंपरिक गढ़ अब भी मजबूत बने हुए हैं, खासकर कन्नूर, अलप्पुझा और पलक्कड़ जैसे जिलों में। हालांकि तिरुवनंतपुरम और कोल्लम जैसे नगर निगम हाथ से निकल गए, लेकिन इन्हीं जिलों के ग्रामीण इलाकों में सीपीआई(एम) को समर्थन मिलता रहा। इससे यह साफ है कि ग्रामीण केरल में वामपंथ की संगठनात्मक ताकत अब भी कायम है। कमजोरी शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में नजर आई है, जो एक संरचनात्मक चुनौती है और जिसे किसी एक अभियान या नारे से दूर नहीं किया जा सकता।

राजनीतिक मायने

हार के बावजूद एलडीएफ का प्रदर्शन कुछ पिछली स्थानीय चुनावों की तुलना में बेहतर रहा है और उसका वोट आधार पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। लेकिन चुनाव केवल आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि राजनीतिक रुझान और गति का भी संकेत होते हैं। इन नतीजों ने एलडीएफ की अजेयता की धारणा को तोड़ दिया है। वहीं यूडीएफ के लिए यह जीत नया आत्मविश्वास लेकर आई है और एकजुटता तथा अल्पसंख्यक समर्थन की रणनीति को मजबूत करती है। एलडीएफ के लिए संदेश स्पष्ट है—सिर्फ कल्याणकारी राजनीति अब पर्याप्त नहीं हो सकती। नेतृत्व, शासन और राजनीतिक रुख में नए सिरे से बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है, क्योंकि केरल की राजनीति की दिशा अब बदलती नजर आ रही है।

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