सोने की नहीं, पहचान की माला है कोल्हापुरी साज
प्रादा की चप्पल से शुरू हुआ विवाद कोल्हापुर की चप्पल और 'साज' जैसे पारंपरिक शिल्प की ओर ध्यान ले गया, जो गौरव, परंपरा और पहचान की मिसाल हैं।;
कुछ हफ्ते पहले मिलान फैशन वीक में मशहूर इतालवी लक्ज़री ब्रांड प्रादा ने जब अपनी स्प्रिंग/समर 2026 पुरुषों की कलेक्शन में एक नई चमड़े की सैंडल लॉन्च की, तो वह भारत की पारंपरिक ‘कोल्हापुरी चप्पल’ से striking रूप से मिलती-जुलती थी। इसकी कीमत थी लगभग ₹1.2 लाख, लेकिन कहीं भी इस सैंडल की मूल प्रेरणा का जिक्र नहीं था, न ही उन भारतीय दस्तकारों को कोई श्रेय दिया गया जिन्होंने सदियों से इस कला को जीवित रखा है।
सोशल मीडिया पर cultural appropriation को लेकर तीखी आलोचना हुई, जिसके बाद प्रादा को सफाई देनी पड़ी। ब्रांड ने resemblance स्वीकार करते हुए यह वादा किया कि वह भविष्य में कोल्हापुर के प्रमाणित कारीगरों के साथ काम करेगा।लेकिन खुद कोल्हापुर में प्रतिक्रिया गरिमामय थी। 70 साल पुराने कोल्हापुरी चप्पल स्टोर के मालिक नंदकिशोर महाजन ने कहा हमें अच्छा लगा जब हमने उन्हें देखा। लेकिन जब लेबल पर सिर्फ ‘leather sandals’ लिखा पाया, तो हमने महसूस किया कि हमें भुला दिया गया।
कोल्हापुर की पहचान, पैरों से गहनों तक
महाराष्ट्र के दक्षिण-पश्चिम कोने में बसा कोल्हापुर न केवल अपने चमड़े की चप्पलों के लिए जाना जाता है, बल्कि ‘कोल्हापुरी साज’ के लिए भी मशहूर है – एक पारंपरिक हाथ से बना हुआ सोने का हार, जो 21 पेंडेंट्स (माला की पत्तियां) से बना होता है। हर पत्ती का आकार किसी प्रतीक से जुड़ा होता है – जैसे चंद्रमा (शांति), कछुआ (स्थिरता), मोर (सौंदर्य), शंख (जागृति)। साज केवल आभूषण नहीं है, यह एक आध्यात्मिक ब्लूप्रिंट है, जिसे सोने में गढ़ा गया है।
यह हार कभी मराठा रानियों द्वारा पहना जाता था और आज भी यह गौरव और वंश परंपरा का प्रतीक है। कोल्हापुर के प्रमुख होटल सायाजी के जनरल मैनेजर मुकेश कुमार रक्षित कहते हैं – यहां आभूषण फैशन नहीं, वंश है।
परंपरा, धरोहर और बदलाव का संतुलन
कोल्हापुर के सबसे पुराने साज स्टोर, जो 1904 से चल रहा है, के मालिक गिरीधर गोपीनाथ चिपाडे बताते हैं – “साज बनाना कौशल और धैर्य मांगता है। बहुत कम लोग बचे हैं जो इसे पारंपरिक तरीके से बनाते हैं।” वे 150 साल पुराने सांचे दिखाते हैं जो आज भी काम में आते हैं।
परंपरागत साज में जहां 21 पेंडेंट्स होते थे, आज कुछ महिलाएं 10 से 12 पेंडेंट्स के हल्के डिजाइन पसंद करती हैं, जिन्हें आधुनिक परिधानों से पहना जा सके। फिर भी, जैसा चिपाडे कहते हैं – “आत्मा वही रहती है। उनके प्रतिष्ठान में दशावतार, लक्ष्मी, मत्स्य, इंद्रायणी, पांच-पनडी, शंख, बेलपत्ता, मोर के पंख जैसे पारंपरिक रूपांकनों के सांचे संरक्षित हैं। साज के भी कई प्रकार हैं – कृष्ण साज, शावतरी, पेशवाई, इंद्रायणी। हम इसे मोम साज कहते हैं – हल्का होता है, लेकिन शुद्धता वही रहती है। इसकी कीमत ₹2.5 लाख से ₹15 लाख तक होती है, वजन के अनुसार 25 ग्राम से 150 ग्राम तक।
चौथी पीढ़ी के सुनार मंगेश कारेकर बताते हैं एक साज हमने रानी एलिज़ाबेथ को उपहार में भेजा था, कर्मारकर पेढी के माध्यम से। उसने लंबी यात्रा की, लेकिन वह कोल्हापुर की ही कहानी कहता है। अब साज को oxidised, gold-plated रूप में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक निर्यात किया जा रहा है।
कैसे बनती है साज?
सईदुल, चिपाडे वर्कशॉप के वरिष्ठ सुनार बताते हैं कि 22 कैरेट सोना सुबह कोयले पर पिघलाया जाता है, फिर कास्टिंग फ्रेम में डालकर छड़ें बनती हैं। ठंडा होने के बाद इन्हें रोलिंग मशीन से पतली तार या स्ट्रिप्स में बदला जाता है। फिर पारंपरिक सांचों से पत्तियों के रूप में काटा जाता है – जैसे शंख, कछुआ, कमल, मोर आदि।
राजू, एक अन्य कारीगर बताते हैं – “पत्तियां ज्वेलरी चेन पर बोरैक्स और कॉपर सल्फेट फ्लक्स के साथ जोड़ दी जाती हैं, 700°C की फ्लेम से। फिर इन्हें रीतमल, साबुन और रेशे की गेंदों के साथ टम्बल किया जाता है, और कभी-कभी आगरा, जयपुर या वाराणसी की मीनाकारी भी लगाई जाती है।”
होटल और संस्कृति: सायाजी का योगदान
सायाजी होटल की मार्केटिंग प्रमुख सबा धनानी कहती हैं – “हम अतिथियों को केवल कमरे और खाना नहीं देते, हम उन्हें स्थानीय संस्कृति से जोड़ते हैं। साज जैसी परंपराओं को हम अपने आयोजनों और स्मृति चिह्नों में शामिल करते हैं। रक्षित कहते हैं हर पत्ती, हर वक्र एक आशीर्वाद है केवल सोना नहीं। होटल के रेस्तरां ब्लू लोटस में एक्ज़ीक्यूटिव शेफ किशन गुंजाल के बनाए व्यंजन उत्तर से दक्षिण तक की परंपराओं को दर्शाते हैं कश्मीर का यखनी शोरबा और कोल्हापुर की कोथिंबीर वड़ी एक साथ परोसी जाती है। रात होते-होते कोकम और नारियल दूध से बनी सोल कढ़ी, मटन रस्सा और कोल्हापुरी मिठाइयों की खुशबू होटल के कमरे तक भर जाती है।
सांझ की सांस्कृतिक रोशनी
जैसे ही पंचगंगा नदी पर सूरज ढलता है, नागलापार्क के पास पुराने आभूषण बाजार में सोने की रोशनी तैरने लगती है। कहीं कंगनों की खनक है, कहीं सुनार अपने औजार सम्हालता है, तो कहीं एक मां अपनी बेटी की शादी के लिए साज खरीद रही है। यहां सबकुछ एक कहानी की कड़ी है – और साज, उस कड़ी को जोड़ कर रखती है।
प्रादा का पल: एक वैश्विक झलक, एक स्थानीय चेतना
प्रादा चप्पल विवाद ने दुनिया का ध्यान भारतीय कारीगरी की ओर खींचा।लोगों को अपनी जड़ों पर गर्व करने की याद दिलाई। लेकिन कोल्हापुर को दिखावे की ज़रूरत नहीं, वह अपनी परंपरा में ही आत्मविश्वासी है।जब लोग कोल्हापुर से लौटते हैं, तो कुछ मिठाइयों के डिब्बे, कुछ तांबडा रस्सा मसाले लेकर जाते हैं। लेकिन असली स्मृति चिन्ह बनता है कोल्हापुरी साज चाहे शुद्ध सोने का हो या मढ़ा हुआ, वह हमेशा कुछ ज़्यादा लेकर आता है यादें, वंश, भावनाएं।
कभी आपकी दादी ने पहना था, कभी मां ने उसे अपने पास से हटने नहीं दिया। और आज, वह आपकी कहानी बन गई है। एक हार – 21 कहानियों का, या सिर्फ 10 का। लेकिन वो जगह, वो परंपरा, हर कहानी को जीवित रखती है।