ठाकरे बंधुओं की नजदीकियां बनाम महायुति की ताकत, क्या बदलेगा समीकरण?

मराठी गौरव जैसे मुद्दे के लिए एकजुट होना जनता को पसंद आ सकता है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक चेतावनी देते हैं कि एक स्थायी राजनीतिक गठबंधन बनाना कहीं अधिक जटिल चुनौती है;

Update: 2025-07-09 01:55 GMT
ठाकरे भाईयों के पुनर्मिलन को कई लोग उनके संबंधित राजनीतिक संगठनों के सामने मौजूद अस्तित्व के संकट का परिणाम मान रहे हैं। | पीटीआई

उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के बहुचर्चित राजनीतिक पुनर्मिलन को लेकर महाराष्ट्र की राजनीति में नए समीकरणों की चर्चा तेज हो गई है। हालांकि यह एकता राज्य में सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन को सीधी चुनौती देने की क्षमता रखती है, लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि केवल मंच साझा करना और मराठी अस्मिता की बातें करना इस गठबंधन को प्रभावशाली विकल्प नहीं बना सकता। इसके लिए ठोस राजनीतिक रणनीति और व्यवहारिक एकता जरूरी होगी।

 दोनों दल अस्तित्व के संकट में

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS)  दोनों ही दल अस्तित्व के संकट से गुजर रहे हैं। यह स्थिति 2024 विधानसभा चुनावों में उनके कमजोर प्रदर्शन से भी स्पष्ट है।

शिंदे गुट की शिवसेना को 57 सीटें और 12.5% वोट मिले

उद्धव ठाकरे गुट को 20 सीटें और 10% वोट

MNS को एक भी सीट नहीं, सिर्फ 1.6% वोट मिले

50 सीधी टक्कर वाली सीटों में से शिंदे की शिवसेना ने 36 सीटें जीतीं, जबकि उद्धव गुट को सिर्फ 14 से संतोष करना पड़ा।

क्या टिक पाएगी ठाकरे एकता?

राजनीतिक विश्लेषक अभय देशपांडे के अनुसार, यह पुनर्मिलन निश्चित रूप से राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण है, लेकिन इसकी टिकाऊ सफलता को लेकर संदेह भी हैं। उन्होंने कहा, “मराठी गर्व जैसे भावनात्मक मुद्दे जनता को जोड़ सकते हैं, लेकिन चुनावी सफलता के लिए व्यावहारिक समझौते और रणनीतिक एकता जरूरी है।

देशपांडे ने राज ठाकरे की 5 जुलाई की रैली में की गई बॉडी लैंग्वेज का हवाला देते हुए कहा कि राज और उद्धव के बीच अब भी दूरी और असहजता बनी हुई है। दोनों को अपने व्यक्तिगत मतभेद और अहंकार छोड़कर, बीएमसी चुनाव जैसे मुद्दों पर सीट बंटवारे पर काम करना होगा।

वह मानते हैं कि अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि दोनों दलों का विलय हो सकता है। "दोनों अपने-अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखना चाहेंगे," उन्होंने कहा।

 मराठी गर्व से आगे बढ़ें

नागपुर स्थित वरिष्ठ पत्रकार आलोक तिवारी मानते हैं कि ठाकरे बंधुओं का एक होना भले भावनात्मक तौर पर असर डाले, लेकिन मराठी अस्मिता की राजनीति अब पहले जैसी असरदार नहीं रही। केंद्र सरकार द्वारा स्कूलों में हिंदी लागू करने का फैसला वापस लेने के बाद, यह मुद्दा भी सुस्त पड़ चुका है।

उन्होंने यह भी कहा कि MNS की आक्रामक शैली और बाला साहेब ठाकरे के दौर की भाषण शैली को दोहराने की कोशिशें जनता में बहुत लोकप्रिय नहीं रहीं। तिवारी का मानना है कि उद्धव ठाकरे की यह पहल बीएमसी चुनाव को ध्यान में रखकर की गई है, क्योंकि यह शिवसेना (UBT) का आखिरी बड़ा गढ़ है।

शिंदे के लिए खतरे की घंटी?

ठाकरे बंधुओं की एकता ने डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। बाल ठाकरे की विरासत पर उनका दावा अब कमजोर पड़ता दिख रहा है, खासकर मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजन (MMR) जैसे इलाकों में, जहां मराठी वोटरों पर ठाकरे नाम की पकड़ अब भी मजबूत है।

शिंदे के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वे "गद्दार" और "बाहरी" जैसे टैग से कैसे उबरें। अगर बीएमसी चुनाव में उनकी पार्टी कमजोर प्रदर्शन करती है, तो उनकी सत्ता में पकड़ और बीजेपी के साथ समीकरण दोनों को नुकसान हो सकता है। खासकर तब, जब ठाकरे गुट का कार्यकर्ता आधार फिर से सशक्त होता नजर आ रहा हो।

दिलचस्प बात यह भी है कि ठाकरे रैली से एक दिन पहले शिंदे ने पुणे में अमित शाह की मौजूदगी में "जय गुजरात" का नारा दिया, जिसे उनकी असहजता का संकेत माना जा रहा है।

ठाकरे बनाम ठाकरे अब ठाकरे + ठाकरे बन चुके हैं, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में यह समीकरण कितना स्थायी होगा, यह अगले छह महीनों में स्पष्ट होगा। इस गठजोड़ को सफल बनाने के लिए केवल भाषण और प्रतीकात्मकता नहीं, व्यवहारिक एकता और नई राजनीतिक कहानी की जरूरत है।

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