ट्रंप की दबंग कूटनीति, रूस-यूक्रेन शांति समझौता अंतिम चरण में
रूस-यूक्रेन शांति समझौता अंतिम चरण में है। ट्रंप के दबाव में वार्ता तेज हुई है, पर 20% जमीन, सेना सीमा और नाटो रोक जैसे विवाद बड़े अवरोध बने हुए हैं।
रूस-यूक्रेन शांति समझौते का ड्राफ्ट लगभग अंतिम चरण में बताया जा रहा है। माना जा रहा है कि यह प्रगति मुख्य रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दोनों पक्षों पर बनाए गए दबाव की वजह से संभव हुई है। इस बातचीत में अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ और द फेडरल के कंसल्टिंग एडिटर के.एस. दक्षिणा मूर्ति बताते हैं कि यह समझौता कितना यथार्थवादी है, किस तरह की बाधाएँ अभी बाकी हैं और ट्रंप इस सौदे को लेकर इतने आक्रामक क्यों दिख रहे हैं।
शांति की संभावना कितनी वास्तविक?
लगभग चार साल लंबे युद्ध के बाद रूस और यूक्रेन—दोनों ही गंभीर थकान की स्थिति में हैं। किसी भी पक्ष को अब बड़े सैन्य लाभ नहीं मिल रहे हैं और जंग एक स्थायी गतिरोध जैसी अवस्था में पहुँच गई है।यूक्रेन विशेष रूप से भारी नुकसान झेल रहा है। दोनों देशों को एहसास हो चुका है कि यदि कोई निर्णायक मध्यस्थता न हुई तो यह युद्ध अनिश्चित काल तक चलता रहेगा।
इस संघर्ष ने वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक प्रणालियों को भी प्रभावित किया है। अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है और माहौल ऐसा है कि दुनिया अब कह रही है—“बस बहुत हो गया। अमेरिका इस समय समझौते की दिशा में सबसे सक्रिय भूमिका निभा रहा है और ट्रंप इस अवसर का उपयोग दोनों पक्षों को बातचीत के लिए मजबूर करने में कर रहे हैं। इन परिस्थितियों को देखते हुए शांति समझौते की संभावना वास्तविक लगती है, लेकिन यह कितना न्यायपूर्ण होगा—यह बड़ा सवाल है।
समझौते की राह में बड़ी बाधाएं
पूर्वी यूक्रेन का मुद्दा — क्रीमिया से डोनबास तक
यूक्रेन की लगभग 20% भूमि फिलहाल रूसी कब्जे में है। अमेरिका, राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की पर दबाव बना रहा है कि वे इस क्षेत्र को रूस को औपचारिक रूप से सौंप दें। यह बेहद संवेदनशील मुद्दा है और यूक्रेन के भीतर बड़ा राष्ट्रवादी विरोध भड़का सकता है।दूसरी ओर, रूस इन इलाकों को छोड़े बिना किसी समझौते पर तैयार नहीं। मॉस्को इन्हें नाटो से सुरक्षा कवच के रूप में देखता है।
यूक्रेनी सेना का आकार घटाने का दबाव
रूस की मांग है कि यूक्रेन अपनी सशस्त्र सेनाओं की संख्या 6 लाख से अधिक न रखे।यह मांग सीधे-सीधे यूक्रेन की संप्रभुता पर चोट करती है, इसलिए कीव तैयार नहीं।रूस इसे अपने दीर्घकालिक सुरक्षा हितों की गारंटी मानता है।
नाटो सदस्यता का मुद्दा
रूस चाहता है कि यूक्रेन कभी भी नाटो में शामिल न हो “हमेशा के लिए”।यूक्रेन और नाटो देश इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं, पर ट्रंप ज़ेलेंस्की को इसे मानने के लिए धकेल रहे हैं।यदि यह प्रावधान समझौते में शामिल हो गया, तो यूक्रेन स्थायी रूप से नाटो की सदस्यता से बाहर हो सकता है।
नाटो देशों की प्रतिक्रिया
यूके, जर्मनी और फ्रांस जैसे नाटो सदस्य ट्रंप की रणनीति से नाखुश हैं।यूरोपीय देश किसी भी ऐसे समझौते का समर्थन नहीं करना चाहते जो रूस को इनाम देने जैसा लगे क्योंकि हमला रूस ने शुरू किया था। वे यूक्रेन की 20% भूमि छोड़ने और नाटो सदस्यता छीनने जैसी शर्तों को खतरनाक मिसाल मानते हैं।यूरोपीय देश वैकल्पिक रास्ते सुझा रहे हैं जैसे स्थायी प्रतिबंध की जगह कुछ वर्षों का प्रतिबंध।वे यूक्रेन की सेना पर कैप लगाने का भी विरोध कर रहे हैं।
हालाँकि ट्रंप ने यूरोपीय संघ को इन वार्ताओं से लगभग बाहर रखा है, फिर भी यूरोप राजनीतिक दबाव बनाकर शर्तों को नरम करने की कोशिश कर रहा है।यह स्थिति युद्ध की शुरुआती अवस्था जैसी है, जब यूरोपीय नेताओं खासकर ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने यूक्रेन को रूस से बातचीत न करने की सलाह दी थी।
ट्रंप इस समझौते को लेकर इतने उत्सुक क्यों?
डोनाल्ड ट्रंप खुद को वैश्विक शांति निर्माता के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं।वे दावा कर चुके हैं कि उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय टकरावों को खत्म कराया—जैसे पहलगाम हमले के बाद भारत-पाकिस्तान तनाव कम करना तथा गाज़ा में इज़राइल की सैन्य कार्रवाई रोकना।
वे उम्मीद करते थे कि इससे उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिलेगा, जो उन्हें नहीं मिला।अपने चुनाव अभियान में ट्रंप ने बार-बार कहा कि वे रूस-यूक्रेन युद्ध को “एक दिन” में खत्म कर देंगे।अमेरिका इस युद्ध पर अरबों डॉलर खर्च कर चुका है। ट्रंप इसे आर्थिक बोझ और “बेकार युद्ध” मानते हैं।
घरेलू स्तर पर अमेरिका में महँगाई, आर्थिक असंतोष और राजनीतिक दबाव बढ़ रहा है।ट्रंप की लोकप्रियता में गिरावट आ रही है ऐसे में युद्ध खत्म कर एक बड़ी कूटनीतिक जीत दिखाना उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गया है।