नीतीश-तेजस्वी-प्रशांत किशोर, कौन बनेगा बिहार की राजनीति का नया चेहरा?

बिहार चुनाव के अंतिम चरण के बाद रिकॉर्ड मतदान ने तस्वीर बदल दी है। एक्जिट पोल पर सवाल, सीमांचल में जोरदार टक्कर और नए समीकरणों की चर्चा तेज है।

Update: 2025-11-12 04:17 GMT

बिहार विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण का मतदान संपन्न हो चुका है। अब सबकी नज़रें नतीजों पर हैं। इसी बीच द फेडरल के विशेष कार्यक्रम “कैपिटल बीट” में वरिष्ठ पत्रकार आनंद के सहाय, निलांजन मुखोपाध्याय, प्रो. संजय कुमार और रिपोर्टर पुनीत निकोलस यादव ने मिलकर मतदाता रुझानों, एक्जिट पोल के नतीजों और एनडीए, महागठबंधन तथा प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी के बीच बनते-बिगड़ते समीकरणों पर चर्चा की।

एक्जिट पोल की साख पर सवाल

वरिष्ठ पत्रकार आनंद के सहाय ने एक्जिट पोल को लेकर गहरा संशय जताया। उन्होंने कहा कि ये सर्वे “अक्सर गलत साबित होते हैं” और इनमें वैज्ञानिक विश्वसनीयता की कमी होती है।उन्होंने याद दिलाया कि “इन्हीं कंपनियों ने 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भी गलत भविष्यवाणी की थी। अगर कभी सही निकल जाएं, तो वह महज़ एक संयोग होता है।

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सहाय ने चेतावनी दी कि शुरुआती नतीजों को ज्यादा गंभीरता से न लिया जाए, क्योंकि “लगभग सभी सर्वे एक दिशा में जा रहे हैं, लेकिन उनके तरीकों पर सवाल हैं।” उन्होंने कहा कि प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है और कई बार ये एजेंडा-चालित भी हो सकती हैं।

निलांजन मुखोपाध्याय ने भी इस पर सहमति जताई। उन्होंने कहा, “कई सर्वे एजेंसियां तो ऐसी हैं जिनका नाम तक लोगों ने पहले नहीं सुना। इनमें से कई के पास कोई विश्वसनीय रिकॉर्ड नहीं है।” उन्होंने यह भी कहा कि जब मतदान शाम 6 बजे खत्म होता है, तो उसी समय तक ‘सटीक सर्वे’ कैसे आ सकता है?

बंपर मतदान और उसके मायने

प्रो. संजय कुमार ने तथ्यों के आधार पर एक अलग दृष्टिकोण रखा। उन्होंने कहा कि अधिक मतदान, खासकर सीमांचल के मुस्लिम-बहुल इलाकों में, कड़ी टक्कर का संकेत देता है।उन्होंने बताया, “शाम 5 बजे तक मतदान प्रतिशत 67.5 था। सीमांचल में यह 70 फीसदी तक पहुंच गया।”उनके अनुसार, इन आंकड़ों से लगता है कि नतीजे त्रिशंकु विधानसभा की दिशा में जा सकते हैं, हालांकि दूसरे चरण में महागठबंधन का प्रदर्शन बेहतर रहा।

मैदान से रिपोर्ट कर रहे पुनीत निकोलस यादव ने भी मतदान में अप्रत्याशित बढ़ोतरी की पुष्टि की। उन्होंने बताया, “किशनगंज और अररिया जैसे जिलों में दोपहर 3 बजे तक ही 60 प्रतिशत वोटिंग हो चुकी थी।”उनका कहना था कि सीमांचल का रुझान इस बार महागठबंधन की ओर झुका दिखा, जबकि एनडीए गढ़ों में अपेक्षाकृत कम वोटिंग दर्ज की गई। हालांकि उन्होंने जोड़ा कि “मतदान प्रतिशत भले ही ऊँचा रहा हो, मुकाबला कड़ा और नज़दीकी था, जैसा 2020 में हुआ था।”

रिकॉर्ड मतदान, उलझे संकेत

चर्चा में यह सवाल भी उठा कि क्या इस रिकॉर्ड मतदान का असर नतीजों पर पड़ेगा?सहाय ने ऐतिहासिक रुझानों का हवाला दिया कि “जब भी 60 प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ है, विपक्ष को फायदा मिला है।” उन्होंने कहा, “कभी कहा जाता था कि 60 प्रतिशत से ऊपर का मतदान मतलब लालू प्रसाद की जीत। लेकिन इस बार उन्होंने सावधानी बरतने को कहा, क्योंकि मतदाता सूची में बदलाव और ईवीएम को लेकर उठे सवालों ने तस्वीर को धुंधला बना दिया है।

प्रो. संजय कुमार ने मतदाता सूची में हुए बदलावों को लेकर चिंता जताई। उन्होंने बताया कि “करीब 76 लाख नाम हटाए गए और 20 लाख जोड़े गए, यानी लगभग 50 लाख मतदाता प्रभावी रूप से बाहर हो गए।”इसके बावजूद, कुल मतदान में बढ़ोतरी हुई, जिसे उन्होंने “समझ से परे” बताया।

उन्होंने यह भी कहा कि छठ पर्व के लिए प्रवासी मतदाताओं की वापसी और प्रशांत किशोर की लंबी जनसंपर्क यात्रा ने भी मतदान बढ़ाने में भूमिका निभाई होगी।

महिला मतदाता और नीतीश का समीकरण

बात महिला वोटरों की आई तो सहाय ने कहा कि यह धारणा कि ज्यादा महिला मतदान नीतीश कुमार के पक्ष में जाता है, पूरी तरह सही नहीं है।उन्होंने बताया कि 2016 की शराबबंदी नीति ने शुरुआत में महिलाओं का समर्थन दिलाया था, क्योंकि इससे घरेलू हिंसा और शराब पर खर्च में कमी आई थी।लेकिन अवैध शराब कारोबार ने उस समर्थन को कमजोर कर दिया है।

उन्होंने चुनाव आयोग के आंकड़े देते हुए कहा, “2020 में एनडीए का महिला वोट प्रतिशत विपक्ष से केवल 1% ज्यादा था, इसलिए यह कहना कठिन है कि इस बार महिलाओं में बड़ी लहर आई है।”

सहाय ने सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी के सर्वे का भी हवाला दिया, जिसमें 20 जिलों की 6,500 महिलाओं में से अधिकांश ने बताया कि नकद योजनाओं के बावजूद वे माइक्रोफाइनेंस ऋण के बोझ से जूझ रही हैं।

बीजेपी की रणनीति और सीमाएं

निलांजन मुखोपाध्याय ने भाजपा की चुनावी रणनीति का विश्लेषण करते हुए कहा कि “जंगलराज” का मुद्दा अब युवा मतदाताओं पर असर नहीं डालता।उन्होंने कहा, “आज के 20-30 साल के मतदाता के लिए जंगलराज सिर्फ एक पुराना नारा है, जिसका उनसे कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं है। भाजपा ने विकास के नाम पर वोट मांगे, लेकिन मुखोपाध्याय के अनुसार “विकास की परिभाषा सिर्फ सड़कों और हाईवे तक सीमित रही। उन्होंने कहा, “पटना से बाहर निकलते ही तस्वीर बदल जाती है। सड़कें तो बनीं, लेकिन रोजगार नहीं।”हिंदुत्व की राजनीति पर उन्होंने कहा कि भाजपा का “घुसपैठिया” नैरेटिव बिहार में असरदार नहीं है।

“यह झारखंड में नहीं चला और बिहार में चलने की संभावना भी नहीं है,” उन्होंने कहा।साथ ही उन्होंने जोड़ा कि नीतीश कुमार ने कभी हिंदुत्व की राजनीति का समर्थन नहीं किया और अब भी अल्पसंख्यकों के बीच अपनी पहुँच बनाए हुए हैं।

कांग्रेस, तेजस्वी और चुनावी ऊर्जा

पुनीत यादव ने कहा कि कांग्रेस की शुरुआत उत्साहजनक रही, लेकिन बीच में अभियान की रफ्तार धीमी पड़ गई।उन्होंने बताया, “राहुल गांधी की रैलियों में भीड़ तो दिखी, मगर राज्यस्तरीय संगठन में समन्वय की कमी थी।”तेजस्वी यादव पर उन्होंने कहा, “वह अब परिपक्व नेता बन रहे हैं, पर कुछ रणनीतिक गलतियाँ कर बैठे।”उन्होंने उदाहरण दिया कि “जब नीतीश बारिश में भी प्रचार करते रहे, तेजस्वी ने कुछ रैलियाँ रद्द कर दीं  इससे गलत संदेश गया। भाई तेज प्रताप के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने जैसी आंतरिक खींचतान ने भी उनकी छवि को नुकसान पहुँचाया।

तीसरा मोर्चा और जातीय समीकरण

प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी पर बात करते हुए सहाय ने कहा कि “वह मुद्दे सही उठाते हैं, पर उनकी सामाजिक जड़ें कमजोर हैं। मुखोपाध्याय ने कहा, “किशोर की लोकप्रियता फिलहाल मीडिया-निर्मित है, लेकिन अगर वह लगातार काम करते रहे, तो भविष्य में गंभीर दावेदार बन सकते हैं।”

पुनीत यादव ने चर्चा को जातीय गणित पर समेटते हुए कहा कि “दोनों प्रमुख गठबंधनों ने सोशल इंजीनियरिंग पर पूरा ध्यान दिया।”नके मुताबिक, “आरजेडी और कांग्रेस ने ऊँची जातियों में सेंध लगाने की कोशिश की, जबकि नीतीश कुमार की जेडीयू ने संतुलित जातीय समीकरण बनाए रखा।हालांकि, “गठबंधनों के भीतर की खींचतान  खासकर एलजेपी और जेडीयू के बीच तनाव ने दोनों ओर एकता को कमजोर किया।

बिहार में इस बार रिकॉर्ड मतदान, त्रिकोणीय मुकाबले और मतदाता व्यवहार में सूक्ष्म बदलावों ने परिणाम को रोमांचक बना दिया है। एक तरफ एनडीए नीतीश कुमार की साख पर टिकी है, तो दूसरी ओर तेजस्वी यादव नई उम्मीद के साथ मैदान में हैं।प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी पहली बार चुनावी रणभूमि में है, और यह देखना दिलचस्प होगा कि वह बिहार की परंपरागत राजनीति में कितनी जगह बना पाती है।

बिहार की राजनीति का यह दौर सिर्फ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि यह समझने का भी है कि मतदाता अब किन मुद्दों पर सोचता है  जाति, धर्म या रोज़गार और विकास।14 नवंबर को जब अंतिम नतीजे आएंगे, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इस बदलाव की दिशा किस ओर है।

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