अपने गृह जिले से लालू यादव ने क्यों नहीं कभी लड़ा चुनाव, क्या यह है वजह?
बिहार चुनाव 2025 में महागठबंधन, NDA और जनसुराज पार्टी की सियासी जंग तेज है। लालू यादव परिवार की रणनीति और सामाजिक न्याय का मुद्दे चर्चा में हैं।
बिहार के चुनावी रणभूमि में सियासी योद्धा एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक रहे हैं। एक तरफ महागठबंधन तो दूसरी तरफ एनडीए वहीं इन दोनों के बीच प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी भी मैदान में है। एनडीए का दावा है कि राज्य में लोग नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की जोड़ी को पसंद कर रहे हैं, वहीं महागठबंधन के नेताओं को एनडीए के दावों में दम नजर नहीं आ रहा है। महागठबंधन,खासतौर से आरजेडी के नेता कहते हैं कि सामाजिक न्याय की खिल्ली मौजूदा सरकार में पिछले दो दशक से उड़ाई गई है। लेकिन बिहार की जनता अब जाग चुकी है। इस सियासी संग्राम में जनता उनके साथ उठ खड़ी हुई है। ऐसे में कई सवाल भी हैं।
मंडल के मसीहा, सामाजिक न्याय के अगुवा कहे जाने वाले लालू प्रसाद सीधे तौर पर चुनावी लड़ाई में नहीं हैं। लेकिन पर्दे के पीछे उनकी भूमिका बेहद अहम है। जब कभी वो पत्रकारों से मिलते हैं या बयान देते हैं तो उनकी जुबां पर सामाजिक न्याय, दलित, पिछड़े, वंचित और शोषित आ जाते हैं। लेकिन यहीं पर सवाल उठ खड़ा होता है कि जो शख्स पूरे बिहार में सामाजिक न्याय की अलख जगाता है वो खुद अपने गृहजनपद गोपालगंज से चुनाव नहीं लड़ा। उसने खुद के लिए सियासी जमीन करीब 100 किमी दूर छपरा में खोजी। आखिर लालू या उनके परिवार ने गोपालगंज को कर्मभूमि के तौर पर क्यों नहीं चुना। यहां बता दें कि गोपालगंज जिले से एक दफा साधु यादव (लालू यादव के साले)की जीत हुई थी। लालू यादव की तरह, उनकी पत्नी रबड़ी देवी, बेटे तेजस्वी यादव, तेज प्रताप यादव या मीसा भारती ने अलग अलग इलाकों का चुनाव किया।
बता दें कि द फेडरल देश की टीम जब गोपालगंज जिले का दौरा कर रही थी उस समय हमने यह सवाल स्थानीय लोगों से पूछा। करीब करीब जवाब यही था कि लालू जी जिस सामाजिक आधार की बात करते थे उसमें खुद उनका समाज कम है। जिस गांव फुलवरिया से उनका नाता है वो हथुआ सुरक्षित विधानसभा है। ऐसे में तकनीकी तौर पर वो खुद अपनी विधानसभा से चुनाव नहीं लड़ सकते थे। ऐसे में उनके सामने जमीन तलाशने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। अब इन सवालों के जवाब में हमने पूछा कि वो कुचायकोट, गोपालगंज सदर, से तो चुनाव लड़ ही सकते थे। इस सवाल के जवाब में लोगों ने कहा कि उन इलाकों में उनका खुद के समाज की संख्या नगण्य है, ऐसे में आप खुद ब खुद समझ सकते हैं।
इस सवाल को समझने की कोशिश हमने कुछ स्थानीय पत्रकारों से की। टुन्ना दुबे कहते हैं कि यह बात सच है कि लालू जी ने शोषित, वंचित समाज को आवाज दी। लेकिन चुनावी लड़ाई में कई तरह के समीकरण काम करते हैं। अगर आप गोपालगंज संसदीय क्षेत्र को देखें तो यहां पर सवर्ण समाज की संख्या अधिक है। जिस मंडल कमीशन की अलख लालू यादव ने जगाई उसकी प्रतिक्रिया को आपने 90 के दौर में देखा और सुना होगा। जिस तरह से बिहार का अगड़ा समाज लालू यादव से खफा हुआ ठीक वैसे ही गोपालगंज में प्रतिक्रिया नजर आई। हथुआ और भोरे दो विधानसभाओं को छोड़ शेष चार विधानसभाओं में सामाजिक समीकरण उनके अनुकूल नहीं है।
टुन्ना दुबे की बातों को आगे बढ़ाते हुए संजय कुमार अभय कहते हैं कि लालू यादव कहा भी करते थे कि उन्हें शेष बिहार को देखना है। गोपालगंज का विकास तो हो ही जाएगा चाहे वो यहां से चुनाव लड़ें या लड़ें। अगर संजय कुमार अभय इस बात को रख रहे थे तो उसकी झलक फुलवरिया में दिखायी भी दे रही थी। लालू यादव की सरकार बनने से पहले तक फुलवरिया आम गांवों की तरह ही था। लेकिन सरकार बनने के लिए फुलवरिया को तहसील घोषित किया गया। फुलवरिया में आज की तारीख में बुनियादी सुविधाएं उच्च स्तर की हैं। यहां पर सवाल उठा कि सामाजिक न्याय को आधार बनाकर लालू यादव ने सिर्फ अपने ही गांव का विकास क्यों किया। इस सवाल पर टुन्ना दुबे कहते हैं कि भाई सीएम का गांव जो ठहरा। अब इतनी सुविधा तो बनती है।
फुलवरिया गांव में विकास की गंगा तो बहीं लेकिन मूल सवाल तो यही था कि लालू यादव चुनाव कभी क्यों नहीं लड़े। इस सवाल के जवाब में यहां के लोग कहते हैं कि यह तो साहब को ही फैसला करना था। खास बात यह है कि गांव में रहने वाला कोई भी समाज उन्हें लगता है कि कम से कम लालू जी की वजह से उनके गांव की चर्चा देश और दुनिया में हो रही है। जहां तक चुनाव लड़ने या ना लड़ने की बात है उसके लिए कोई अकेला कारण नहीं होता।