नीतीश कुमार का दो दशक का सफर, सड़कें चमकीं, पर उद्योग और रोज़गार गायब
बिहार अब भी कम आय के जाल में फंसा है। औसत विकास दर 5.5% होने के बावजूद औद्योगिक पिछड़ापन, पलायन और नीतिगत सुस्ती ने उसकी प्रगति रोक दी है।
बिहार आज भी भारत के सबसे गरीब राज्यों में गिना जाता है, जबकि वित्तीय वर्ष 2013 से 2024 के बीच इसकी औसत आर्थिक वृद्धि दर 5.5% रही जो राष्ट्रीय औसत (6.1%) से बहुत पीछे भी नहीं है। इसके बावजूद राज्य ‘लो-इनकम ट्रैप’ यानी कम आय वाले जाल में फंसा हुआ है। इसका कारण केवल ऐतिहासिक नहीं बल्कि नेतृत्व की विफलताएं भी हैं।
इतिहास का निर्णायक मोड़
नवंबर 2000 में बिहार से झारखंड अलग हुआ, जो उसके आर्थिक इतिहास का सबसे अहम मोड़ साबित हुआ। इस विभाजन के साथ बिहार ने अपने अधिकांश खनिज संसाधन, औद्योगिक शहर और आर्थिक केंद्र खो दिए।
राष्ट्रीय लोक वित्त और नीति संस्थान (NIPFP) की 2012 की रिपोर्ट “Bihar: What Went Wrong? And What Changed?” के अनुसार, यह विभाजन “असमान” था क्योंकि सभी भौतिक संपत्तियाँ “as is, where is” के सिद्धांत पर झारखंड को मिलीं, जबकि वित्तीय देनदारियाँ जनसंख्या अनुपात से बाँटी गईं। नतीजतन, झारखंड को बिहार की 75% संपत्तियाँ और केवल 25% देनदारियाँ मिलीं। रिपोर्ट कहती है कि विभाजन के समय यह चिंता थी कि “कटे हुए” बिहार का आर्थिक रूप से टिके रहना ही मुश्किल होगा।
विभाजन के बाद बिहार की अर्थव्यवस्था पर असर
विभाजन से पहले उद्योग का हिस्सा बिहार के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) का 24% था, जो घटकर मात्र 4% रह गया।राज्य की कर और गैर-कर आय में उद्योग का योगदान 10% से घटकर 1% रह गया, जिससे विकास और गरीबी उन्मूलन की क्षमता कमजोर पड़ी। राज्य का 73% भूभाग अब बाढ़ प्रभावित हो गया है जबकि पहले यह अनुपात 55% था।70% बिजली उत्पादन क्षमता झारखंड को मिल गई, लेकिन 70% बिजली की मांग बिहार से आती रही।
बिहार की ग्रामीण हकीकत
2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार की मात्र 11.3% आबादी शहरी है जबकि राष्ट्रीय औसत 31.2% है। 88.7% लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। 49.6% श्रमिक कम आय वाली कृषि या इससे जुड़ी गतिविधियों में लगे हैं। राज्य की आबादी 10.4 करोड़ (भारत की 8%) है और जनसंख्या घनत्व 1,106 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर जो राष्ट्रीय औसत 382 से लगभग तीन गुना है। कृषि श्रमिकों में 63.8% भूमिहीन हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 54.8% है। छोटे और सीमांत किसानों की संख्या सबसे अधिक है जिनके पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है।
राजनीतिक नेतृत्व की विफलता
1990 से अब तक बिहार की राजनीति दो नेताओं के इर्द-गिर्द घूमी है। लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी (1990–2005) और नीतीश कुमार (2005–2025)। लालू-राबड़ी शासनकाल की विफलताएँ व्यापक रूप से दर्ज हैं। कानून व्यवस्था और विकास दोनों ही मोर्चों पर। लेकिन नीतीश कुमार का शासन, जो दो दशकों से जारी है, अब ठहराव का शिकार दिखता है।
मुख्य कमज़ोरियां
2025 के बजट में राज्य की वास्तविक या संशोधित वृद्धि दर का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। विकास दर का कोई स्थायी पैटर्न नहीं दिखता — सिर्फ़ उतार-चढ़ाव। आर्थिक सर्वेक्षण 2024–25 में “rising”, “growing” जैसे शब्दों का अधिक प्रयोग है, लेकिन ठोस विश्लेषण का अभाव है। बिहार अपनी कर और गैर-कर आय से वेतन, पेंशन और कर्ज़ ब्याज जैसे अनिवार्य खर्चों को भी पूरा नहीं कर पाता। उद्योग के लिए बजट आवंटन FY25 में मात्र 0.66% और FY26 में 0.62% रहा; कृषि के लिए भी 1.1% से अधिक नहीं। राज्य की कुल आय का 74% हिस्सा केंद्र से मिलने वाले ट्रांसफर पर निर्भर है।
मजदूर पलायन की त्रासदी
जिस तरह बिहार की सरकार केंद्र पर निर्भर है, उसी तरह राज्य के परिवार प्रवासी मजदूरों की कमाई पर टिके हैं।2020 में जनसंख्या विज्ञान संस्थान (IIPS) के अध्ययन के अनुसार, बिहार के 57% घरों में कम से कम एक सदस्य ने काम के लिए दूसरे राज्य में पलायन किया। ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण प्रवासियों की बड़ी संख्या खाड़ी देशों में भी बढ़ी है जहाँ वे कम वेतन वाली नौकरियां करते हैं।
सामाजिक बदलाव और नई चुनौतियां
पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र प्रोफेसर (सेवानिवृत्त) एन.के. चौधरी के अनुसार अब केवल पुरुष ही नहीं, बल्कि ऊंची जाति की महिलाएं भी बिहार से बाहर काम करने जा रही हैं, क्योंकि राज्य में रोजगार के अवसर नहीं हैं। बिहार के युवा आज इतनी मजबूरी में हैं कि वे रोज़गार के लिए उत्तर प्रदेश जैसे समान रूप से गरीब राज्य की ओर पलायन कर रहे हैं।
EAC-PM की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल मिलकर भारत के कुल प्रवासी मजदूरों के 48% हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं।
नीतीश कुमार की नीतिगत सुस्ती
प्रो. चौधरी का मानना है कि नीतीश कुमार ने शासन की कमान नौकरशाहों को सौंप दी है, जिनमें विकास की कोई दृष्टि नहीं है। उन्होंने कहा नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था, सड़क और बिजली सुधार में योगदान दिया, लेकिन ये सुधार औद्योगिकीकरण में नहीं बदल पाए। भूमि सुधार, कौशल विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर भी अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया। अब इन विफलताओं को चुनावी उपहारों से ढकने की कोशिश हो रही है।
बिहार की अर्थव्यवस्था अभी भी विभाजन, कमजोर औद्योगिक ढांचे, कर-आधार की कमी और नेतृत्व की उदासीनता से जूझ रही है।राज्य का भविष्य तभी बदल सकता है जब राजनीतिक इच्छाशक्ति, दीर्घकालिक नीति और औद्योगिक दृष्टि एक साथ काम करें वरना “विकास दर” की चमक, गरीबी के जाल की सच्चाई नहीं छिपा पाएगी।