नमक से लेकर जहाज तक का कारोबार, एक 'रतन' जो अब खो गया
उद्योगपति रतन टाटा अब हमारे बीच नहीं है। लेकिन उनसे जुड़ी इतनी यादें है जिन्हें समेट पाना आसान नहीं है। यहां पर हम उनसे जुड़े कुछ खास प्रसंग का जिक्र करेंगे।
Ratan Tata News: भारत ने एक रतन खो दिया, लीजेंड कभी मरते नहीं, देश इस तरह से उद्योगपति रतन टाटा के निधन के बाद शोक में है। रतन टाटा सिर्फ महज नाम नहीं बल्कि एक संस्थान थे। उन्होंने कर्मयोग के जरिए यह बताया कि आप मेहनत, ईमानदारी और दूसरों के लिए अच्छी सोच के साथ बहुत आगे तक का सफर तय कर सकते हैं। उनकी यह सोच सिर्फ दिमाग या किताब के पन्नों तक कैद नहीं रही बल्कि उसे जमीन पर उतारा भी। 1991 में जब टाटा ग्रुप की कमान संभाली उस समय इस समूह का राजस्व 4 बिलियन डॉलर था और 2012 में अवकाश लिया उस वक्त इस समूह का कुल राजस्व 100 बिलियन डॉलर के पार था। यानी महज 21 साल के नेतृत्व में असाधारण कामयाबी का प्रदर्शन किया।
नमक से जहाज का कारोबार
टाटा समूह की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह सुई, नमक से लेकर जहाज के कारोबार तक है। उसने देश की बुनियाद बनाने और उसे मजबूत रखने के ना सिर्फ स्टील इंडस्ट्री को दिशा और दशा दी। बल्कि आम लोग भी चार पहिए गाड़ी का आनंद ले सकें। उस दिशा में भी सोचा और साल 2008 में देश की पहली लखटकिया कार नैनो लोगों के बीच हाजिर थी। यह बात सच है कि इस कार को बाजार की तरफ से उस तरह से रिस्पांस नहीं मिला। लेकिन यह भी सच है कि भारत और दुनिया में लखटकिया कार भी बनाई जा सकती है उसके बारे में ना सिर्फ सोचा बल्कि उसे जमीन पर उतार दिया। रतन टाटा ने विदेश में भी झंडा गाड़ा। जगुआर लैंडरोवर को टाटा की झोली में डाल दिया तो घरेलू बाजार में ऐसी कारों को सड़कों पर उतारा जिसके बाद टोयोटा, होंडा, फोर्ड जैसी कार मेकर को भी सोचना पड़ा कि यह शख्स किस मिट्टी का बना हुआ है।
- 1991 में चार बिलियन डॉलर का राजस्व- ग्रुप की संभाली थी कमा
- 2012 में 100 बिलियन डॉलर का राजस्व- इस वर्ष अवकाश लिया
- मौजूदा समय में 165 बिलियन डॉलर का साम्राज्य
खास है कामयाबी
2012 में टाटा समूह ने 100 बिलियन डॉलर की बाधा को पार कर लिया था और इस तरह की ऊंचाइयों तक पहुंचने वाला पहला भारतीय समूह बन गया था। वे 1962 में टाटा इंडस्ट्रीज में सहायक के रूप में समूह में शामिल हुए थे, लेकिन उन्होंने मार्च 1991 में ही चेयरमैन की कुर्सी संभाली, जब समूह पर पुराने लोगों का दबदबा था। अपने डिवीजनों को अर्ध-स्वायत्त साम्राज्यों के रूप में संचालित कर रहे थे, जो उनके पूर्ववर्ती जेआरडी टाटा की विकेंद्रीकरण की संस्कृति में निहित थे। उन्होंने एक-एक करके क्षत्रपों को हटा दिया और समूह के मुख्यालय बॉम्बे हाउस में सत्ता को केंद्रीकृत कर दिया।
टाटा ने उस वक्त ग्रुप की कमान संभाली थी जब दुनिया ने उदारीकरण की राह पकड़ी। १९९१ के उस दौर में खतरे और अवसर दोनों को रतन टाटा ने समझा और भुनाया। लाइसेंस राज की समाप्ति के बाद प्रतिस्पर्धी बाजारों का उदय भी शामिल था। टाटा ने सीमेंट, कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन और फार्मास्यूटिकल्स जैसे खराब प्रदर्शन वाले क्षेत्रों को बेचने, सॉफ्टवेयर और स्टील जैसे मौजूदा व्यवसायों को दोगुना करने और दूरसंचार, यात्री कार, बीमा, वित्त, खुदरा और विमानन जैसे नए क्षेत्रों में प्रवेश करने जैसे साहसिक निर्णय लिए।
साथ ही उनके सहयोगी दृष्टिकोण ने कमिंस, एआईए और स्टारबक्स जैसी अंतरराष्ट्रीय दिग्गजों के साथ साझेदारी की, जिससे समूह को ऑटोमोटिव इंजन बनाने, बीमा बेचने और कारगिल से कोच्चि तक कॉफी की पेशकश करने में सक्षम बनाया गया। जगुआर-लैंड रोवर और कोरस जैसे अधिग्रहणों ने न केवल समूह के पोर्टफोलियो को मजबूत किया, बल्कि इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता भी दिलाई। उनके कार्यकाल के अंत तक इसका 60% से अधिक राजस्व 100 से अधिक देशों से आ रहा था।