मुनाफे से आगे का सच, रूसी तेल में छुपा रणनीतिक संकट

गैर-रूसी तेल पर सौदा करने से अधिकतम 4 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष और सबसे खराब 8 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की लागत आ सकती है। लेकिन भारत ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं।;

Update: 2025-08-08 01:51 GMT

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय वस्तुओं पर 50 प्रतिशत टैरिफ और रूस के साथ व्यापार को लेकर माध्यमिक प्रतिबंधों की धमकी देना कई स्तरों पर विवादास्पद और असंगत है। इस विवाद की जड़ में भारत का रूस से हथियार और तेल आयात है।

तेल आयात: पुराना दोस्त, नया सौदा

जहाँ भारत की रूस से रक्षा साझेदारी ऐतिहासिक रही है, वहीं कच्चे तेल का आयात अपेक्षाकृत नया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जब पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तब रूस ने भारी छूट पर अपना कच्चा तेल बेचना शुरू किया। भारत ने इस अवसर का लाभ उठाया।

डेटा विश्लेषण कंपनी Kpler के अनुसार, युद्ध से पहले भारत का रूसी तेल आयात कुल तेल आयात का मात्र 0.2% था, जो जून 2025 में बढ़कर 45% हो गया और जुलाई 2025 में घटकर 33% रह गया।

2024 में भारत ने रूस से प्रतिदिन 18 लाख बैरल तेल आयात किया। Kpler की प्रमुख विश्लेषक सुमी रितोलिया के अनुसार, रूसी तेल की लैंडिंग लागत गैर-रूसी तेल की तुलना में 5-6 डॉलर प्रति बैरल सस्ती थी।

किफायत बनाम संप्रभुता

हालाँकि अब दोनों तरह के तेलों की कीमतों में अंतर कम हो गया है, लेकिन रूसी तेल पूरी तरह त्यागने से भारत को सालाना केवल 3-4 अरब डॉलर का अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ सकता है। लेकिन यहाँ सवाल सिर्फ लागत का नहीं है, बल्कि भारत के संप्रभु अधिकार और राष्ट्रीय स्वाभिमान का है।

भारत ने अमेरिका को दो टूक कहा है कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर उसे अपने आर्थिक हितों और सुरक्षा के आधार पर निर्णय लेने का अधिकार है।

ट्रंप की दोहरी नीति पर सवाल

यहाँ ट्रंप की कथित नैतिकता पर सवाल उठते हैं। एक तरफ वह भारत पर रूसी व्यापार को लेकर नाराज़ हैं, दूसरी तरफ अमेरिका खुद रूस से व्यापार करता है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय (USTR) के अनुसार, 2024 में अमेरिका और रूस के बीच कुल व्यापार 5.2 अरब डॉलर का था।जबकि भारत का रूस के साथ FY25 में व्यापार 68.7 अरब डॉलर रहा, जो महामारी से पहले के 10.1 अरब डॉलर से कहीं अधिक है। लेकिन मुद्दा व्यापार का नहीं, बल्कि नीति की दोहरी मान्यता का है।

सरकार और रिफाइनर की कमाई, उपभोक्ता को नहीं फायदा

रूसी तेल ने भारतीय रिफाइनरियों को तगड़ा लाभ दिया। सस्ते तेल को रिफाइन कर वे यूरोप को निर्यात कर रहे हैं। इससे सरकार ने विंडफॉल टैक्स के रूप में अच्छी-खासी कमाई की:

वित्त वर्ष 23 में सरकार ने करीब 25,000 करोड़ रुपये

वित्त वर्ष 24 में घटकर 13,000 करोड़ रुपये

वित्त वर्ष (नवंबर तक) में सिर्फ 6,000 करोड़ रुपये जुटाए

कमाई घटी क्योंकि सरकार ने टैक्स की दरें घटाईं और G7 देशों ने रूसी तेल पर 60 डॉलर प्रति बैरल की मूल्य सीमा लागू की।एक समय रूसी Urals और ब्रेंट क्रूड के बीच का अंतर $42 प्रति बैरल (अप्रैल 2022) था, जो घटकर $3.3 (अगस्त 2025) हो गया है।लेकिन इन लाभों का फायदा भारतीय उपभोक्ताओं को नहीं मिला। फरवरी 2022 से पेट्रोल-डीज़ल की खुदरा कीमतें स्थिर बनी हुई हैं, जबकि वैश्विक कीमतों में गिरावट आई।

पेट्रोल की ऊँची कीमतें, जनता का बोझ

FY14 में भारत की तेल आयात कीमत $105.5 प्रति बैरल थी, जो FY25 तक औसतन $67.5 प्रति बैरल रही। फिर भी पेट्रोल की कीमत ₹60 से बढ़कर ₹100 प्रति लीटर तक पहुँच गई। डीज़ल और LPG पर भी यही हाल रहा।

भारत की स्थिति और आगे की राह

भारत एक $3.7 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था है (FY25), जो अगले साल $4 ट्रिलियन पार कर सकती है। सरकार चाहे तो 7-8 अरब डॉलर का सालाना अतिरिक्त बोझ झेल सकती है। लेकिन असली दांव भारत की नीतिगत स्वतंत्रता और वैश्विक आत्मनिर्भरता पर है। यह बात भी गौरतलब है कि भारत ने रूसी तेल खरीद अमेरिकी सहमति से शुरू की थी। यह खुलासा मई 2024 में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने वॉशिंगटन में किया था। उनका कहना था कि यह वैश्विक कीमतों को नियंत्रित करने के लिए किया गया था।

डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर लगाया गया 50% टैरिफ और रूस से व्यापार को लेकर की गई धमकियाँ, न केवल भारत की संप्रभुता के खिलाफ हैं, बल्कि अमेरिका की अपनी दोहरी नीति को भी उजागर करती हैं। भारत के लिए यह सिर्फ व्यापारिक लड़ाई नहीं, बल्कि एक रणनीतिक स्वाभिमान की परीक्षा है।

Tags:    

Similar News