'अपनी फिल्मों को देना चाहता हूं वैश्विक रंग-रूप', अनंत महादेवन से खास बातचीत
‘फुले’ के निर्देशक अनंत महादेवन ने फिल्म को लेकर उठे विवाद, गंभीर सिनेमा जगत में गुटबाजी का सामना करने, हर फिल्म के साथ अपनी सीमाओं को लांघने और बॉलीवुड में अपनी जगह न बनाने के कारणों पर बात की;
अनंत महादेवन उन फिल्मकारों में से हैं जो आपका ध्यान खींचते हैं, ना कि उसे थोपते हैं। दशकों तक, विभिन्न भाषाओं और मंचों पर उन्होंने एक ऐसा सिनेमा गढ़ा है जो 'मुख्यधारा' भारतीय सिनेमा में अक्सर देखे जाने वाले दिखावटी भावनात्मकता और नाटकीयता से साफ इनकार करता है। अभिनेता, पटकथा लेखक और निर्देशक के रूप में 74 वर्षीय महादेवन ने सिनेमा को सोचने का माध्यम बनाए रखने की ज़िद में अपना पूरा करियर लगा दिया है। उनके सिनेमा से एक बात सीखी जा सकती है: गंभीरता का अर्थ आत्म-महत्त्व से ग्रसित होना नहीं है, बल्कि यह एक विनम्रता के साथ आ सकती है जो महादेवन की पहचान बन चुकी है।
अपनी ठोस रचनात्मक प्रतिष्ठा के बावजूद, महादेवन को अक्सर तथाकथित 'सीरियस सिनेमा' के गिरोहों ने दरकिनार कर दिया है। द फेडरल से बातचीत में वे कहते हैं, "ऑफबीट या आउट-ऑफ-द-बॉक्स सिनेमा के स्वघोषित समर्थकों ने अपने-अपने गुट बना लिए हैं। वे एक-दूसरे को बढ़ावा देते हैं, लेकिन मेरे प्रयासों को नज़रअंदाज़ करना या अस्वीकार करना उन्होंने अपना तरीका बना लिया है। मैं एक फिल्मकार हूं। मुझे अपनी फिल्में बेहद प्रिय हैं, लेकिन मैं इस दुनिया का हिस्सा नहीं हूं।"
महादेवन का मानना है कि हिंदी सिनेमा (जिसे दुनिया 'बॉलीवुड' कहती है) की रूढ़ियों से परे जाकर वे ऐसे फिल्में बनाना चाहते हैं जो वैश्विक मंच पर मजबूती से खड़ी हो सकें। 'आर्टहाउस' जैसे शब्दों से भी वे दूरी बनाते हैं। वे कहते हैं, "मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्में वैश्विक सिनेमा की भाषा बोलें।"
'फुले' पर विवाद: बेमतलब का तूफान
महादेवन की नई फिल्म फुले, जो 25 अप्रैल को सिनेमाघरों में आई, उनके इसी दृष्टिकोण का विस्तार है। यह फिल्म भारतीय इतिहास के दो क्रांतिकारी व्यक्तित्वों — ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले — की कहानी कहती है, वह भी बिना किसी अतिनाटकीयता के। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे शिक्षा के ज़रिए उन्होंने समाज में असल बदलाव लाया।
हालांकि सेंसर बोर्ड (CBFC) के आदेश पर फिल्म से 'महार', 'मांग', 'पेशवाई' जैसे संदर्भ हटाए गए और '3000 साल पुरानी गुलामी' को बदलकर 'कई साल पुरानी गुलामी' किया गया। इसपर महादेवन का कहना है, "यह विवाद पूरी तरह से अनावश्यक था। यह फिल्म इतिहास को प्रस्तुत करती है, उसे दोबारा गढ़ती नहीं है, न ही इसका कोई अलग एजेंडा है।"
जब फिल्म के ट्रेलर पर बवाल मचा और कुछ समुदायों, खासकर ब्राह्मणों ने विरोध जताया, तो महादेवन को सामने आकर अपनी ब्राह्मण पहचान उजागर करनी पड़ी। वे कहते हैं, "मैं एक परंपरावादी तमिल ब्राह्मण हूं। अगर गलतियां हुई हैं तो उन्हें स्वीकार करना चाहिए। इतिहास से मुंह नहीं मोड़ सकते।"
ज्योतिराव और सावित्रीबाई का संघर्ष
महादेवन बताते हैं कि फुले दंपति को न केवल उच्च जातियों से, बल्कि निम्न वर्ग के लोगों से भी विरोध झेलना पड़ा, क्योंकि वे सदियों पुराने सामाजिक ब्रेनवॉश का शिकार थे। "लोगों को यह समझाने में उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी कि शिक्षा सबका अधिकार है, बाल विवाह गलत है। बदलाव आसान नहीं था।"
उनके स्वर में कोई आत्म-दया नहीं है, बल्कि एक गहरी निराशा है कि आज भी हमारा समाज इतिहास से सीखने के बजाय गुस्से और पूर्वग्रह में उलझा रहता है। महादेवन कहते हैं, "अगर ये फिल्म 1960 या 70 के दशक में बनती, तो शायद इतना विरोध नहीं होता।"
जिम्मेदार सिनेमा का लक्ष्य
महादेवन मानते हैं कि सिनेमा में स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन इसकी एक मर्यादा भी होनी चाहिए। वे कहते हैं, "मैं गाली-गलौज, ज़बरदस्त हिंसा या अपमान को रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में सही नहीं मानता।"उनकी फिल्म फुले एक पारंपरिक बायोपिक नहीं है। वह बताते हैं, "आमतौर पर बायोपिक नायक की महिमा गान बन जाती है। पर मैंने ज्योतिराव और सावित्रीबाई के संकल्प और संघर्ष को सामने लाने पर जोर दिया है।"
प्रतीक गांधी और पत्रलेखा को चुनना भी एक सोचा-समझा फैसला था, ताकि 'स्टार पावर' नहीं, बल्कि किरदार दर्शकों तक पहुंचे।
बायोपिक बनाम राजनीति
जब उनसे पूछा गया कि क्या आजकल बायोपिक्स को किसी खास विचारधारा के अनुसार ढालना जरूरी हो गया है, तो महादेवन स्पष्ट कहते हैं, "अगर आप इतिहास से न्याय नहीं करते, तो यह रचनात्मक ही नहीं, नैतिक धोखा भी होता है।"
भारतीय सिनेमा की गिरती गुणवत्ता पर चिंता
महादेवन भारतीय सिनेमा के पतन को लेकर भी बेबाक हैं। वे कहते हैं कि सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे दिग्गजों के बाद शायद ही कोई ऐसा फिल्मकार आया है जो भारत को वैश्विक सिनेमा में प्रतिष्ठित कर सके। वे कहते हैं, "यूरोप, अमेरिका, जापान, रूस के सिनेमा को देखकर समझ आता है कि हम अब भी कितने पीछे हैं। कई बार मुझे खुद से सवाल करना पड़ता है क्या मैं वाकई सिनेमा बना रहा हूं?"
सिनेमा: तकनीक से ज़्यादा दिल का मामला
महादेवन मानते हैं कि आज के दौर में तकनीक को जानना ज़रूरी है चाहे वह VFX हो या AI लेकिन अगर कहानी में दम नहीं है, तो तकनीक भी कुछ नहीं कर सकती। वे कहते हैं, "आपकी तकनीक आज के समय के अनुरूप होनी चाहिए, लेकिन कहानी सबसे ऊपर होनी चाहिए। स्टाइल को कंटेंट पर हावी नहीं होने देना चाहिए।"
वे यह भी कहते हैं कि आज के दर्शकों का धैर्य कम हो गया है चाहे वह सिनेमा में हो या रिश्तों में। ऐसे में फिल्मकार को एक ही मौके में दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए।महादेवन मानते हैं कि भारत जैसे विविध देश में बदलाव धीरे-धीरे ही आएगा। "अगर हम सिर्फ 0.1% दर्शक भी जोड़ सके, तो वही लोग भविष्य में बड़े बदलाव का बीज बनेंगे।"
लड़ाई अभी जारी है
अपने सफर को वे एक युद्ध की तरह देखते हैं एक ऐसा संघर्ष जो सच्चे, विचारशील, वैश्विक सिनेमा के लिए है। और वे बिना रुके, बिना थके इसे लड़ते रहना चाहते हैं।