Ek Deewane Ki Deewaniyat Review: कहानी में नहीं था जादू, हर्षवर्धन राणे की एक्टिंग बनी एकमात्र आकर्षण

कहानी और स्क्रीनप्ले 80 के दशक की स्क्रिप्ट, 2025 की पैकिंग

Update: 2025-10-21 11:12 GMT

फिल्म में एक दीवाने की दीवानियत की कहानी है विक्रमादित्य भोसले (हर्षवर्धन राणे) की, जो एक महत्वाकांक्षी नेता है और जल्द ही राज्य का मुख्यमंत्री बनने वाला है. लेकिन राजनीति के बीच उसकी जिंदगी तब बदल जाती है जब वो सुपरस्टार एक्ट्रेस अदा रंधावा (सोनम बाजवा) को देखता है. पहली ही नजर में विक्रमादित्य को अदा से प्यार हो जाता है. एक ऐसा प्यार जो जल्द ही दीवानगी में बदल जाता है. अदा को विक्रमादित्य से कोई दिलचस्पी नहीं होती. वो उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश करती है, लेकिन विक्रमादित्य का प्यार जुनून बन चुका है. मामला तब भयानक मोड़ लेता है जब अदा एक स्टेज पर आकर एलान करती है. जो विक्रमादित्य को मारेगा, मैं उसके साथ एक रात गुजारूंगी. इसके बाद शुरू होती है नफरत, जुनून और बदले की कहानी, लेकिन तर्क और लॉजिक की इतनी कमी है कि दर्शक हर 10 मिनट में माथा पकड़ लेते हैं.

कहानी और स्क्रीनप्ले: 80 के दशक की स्क्रिप्ट, 2025 की पैकिंग

फिल्म के डायरेक्टर मिलाप जावेरी, जो अपने मसालेदार डायलॉग्स और ओवर-द-टॉप ड्रामा के लिए जाने जाते हैं, यहां अपने अंदाज में तो लौटे हैं, लेकिन कहानी की रीढ़ कमजोर है. कहानी की शुरुआती सियासी झलक रोचक लगती है, पर जैसे ही रोमांस और जुनून की लकीरें खिंचती हैं, सबकुछ बिखर जाता है. कहानी में इतने अतार्किक दृश्य हैं कि दर्शक सोचता है. क्या ये 80 के दशक की फिल्म देख रहा हूं? आज के समय में जहां एक ट्वीट या वीडियो सबको आवाज देता है, वहां एक सुपरस्टार एक्ट्रेस पुलिस और सरकार के सामने बेबस दिखती है ये बात पचती नहीं. विक्रमादित्य का राजनीतिक सफर बीच में ही गायब हो जाता है और कहानी एक पुराने बॉलीवुड ड्रामा में बदल जाती है. जिसमें न प्यार असर करता है, न पागलपन का दर्द महसूस होता है.

परफॉर्मेंस: हर्षवर्धन का जुनून, सोनम की खूबसूरती

अगर इस फिल्म में कुछ देखने लायक है तो वो है हर्षवर्धन राणे की परफॉर्मेंस. उन्होंने अपने रोल को पूरी शिद्दत और पागलपन से निभाया है. उनकी आंखों में दिखने वाला प्यार और दर्द असली लगता है, लेकिन कहानी की कमजोरी उनकी मेहनत को डुबो देती है. सोनम बाजवा बेहद खूबसूरत लगी हैं। उनका ग्लैमर स्क्रीन पर चमकता है, लेकिन उनके किरदार में गहराई नहीं है. उन्हें बस चिल्लाने, डरने और रोने के सीन मिले हैं. सचिन खेड़ेकर (विक्रमादित्य के पिता) का किरदार अधूरा है. शाद रंधावा ने दोस्त का रोल निभाया है, लेकिन उन्हें कुछ खास करने का मौका नहीं मिला. कुल मिलाकर, फिल्म पूरी तरह हर्षवर्धन के कंधों पर टिकी है.

संगीत और डायलॉग्स: फिल्म की जान

फिल्म का संगीत ही वो चीज है जो दर्शक को सीट पर टिकाए रखता है. ‘दिल गलती कर बैठा है’ और टाइटल ट्रैक ‘एक दीवाने की दीवानियत’ वाकई अच्छे लगे हैं. इन गानों में जुनून और दर्द का अच्छा मिश्रण है. डायलॉग्स पुराने जमाने की याद दिलाते हैं. तेरे लिए मेरा प्यार तेरा भी मोहताज नहीं… मेरा ये इश्क सिर्फ चिंगारी नहीं, आग बनकर भड़केगा… थिएटर में ये संवाद सुनकर कुछ तालियां जरूर बजती हैं.

डायरेक्शन और टेक्निकल पहलू

मिलाप जावेरी का डायरेक्शन ड्रामेटिक है. कैमरा मूवमेंट्स और लाइटिंग इफेक्ट्स बताते हैं कि फिल्म को स्टाइलिश लुक देने की कोशिश की गई है. लेकिन जब स्क्रिप्ट कमजोर हो, तो फ्रेम कितना भी खूबसूरत हो, असर नहीं करता. एडिटिंग और पेसिंग भी समस्या हैं. पहला हाफ धीमा है और दूसरे हाफ में कहानी तेजी से भागती है, जिससे भावनाएं कनेक्ट नहीं हो पातीं.

क्या देखनी चाहिए ये फिल्म?

अगर आप हर्षवर्धन राणे के फैन हैं, तो उनके इंटेंस लुक्स और एक्टिंग के लिए फिल्म देख सकते हैं. लेकिन अगर आप एक तर्कसंगत और नई सोच वाली कहानी की तलाश में हैं, तो ये फिल्म आपको निराश करेगी. ये फिल्म एक पैशनेट लव स्टोरी बनना चाहती थी, लेकिन न कहानी में गहराई है, न किरदारों में संवेदना. एक दीवाने की दीवानियत में दीवानगी तो है, लेकिन कहानी और इमोशन दोनों में कनेक्शन की कमी है. हर्षवर्धन राणे ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, लेकिन फिल्म उन्हें एक मजबूत स्क्रिप्ट देने में असफल रही.

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