33 साल बाद ‘राजा’ को मिला ताज, लेकिन क्या ये सियासी सौगात है?
33 साल बाद शाहरुख को 'जवान' के लिए पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। लेकिन विक्रांत संग साझा सम्मान और राजनीतिक संकेतों ने नई बहस छेड़ दी है।;
1 अगस्त को जब 71वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई, तो हिंदी फिल्म जगत में चौंकाने वाली हलचल मच गई। ‘बॉलीवुड के बादशाह’ माने जाने वाले लेकिन लंबे समय से सरकारी मान्यता से वंचित शाहरुख खान को उनके करियर के 33 वर्षों में पहली बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। एटली द्वारा निर्देशित सामाजिक-राजनीतिक एक्शन फिल्म 'जवान' (2023) के लिए। यह वही फिल्म है जो खुले तौर पर राज्य की नाकामी, भ्रष्ट संस्थाओं और जवाबदेही की कमी पर सवाल उठाती है और अब उसी राज्य द्वारा यह फिल्म सम्मानित की जा रही है।
शाहरुख ने अपनी विनम्रता और करिश्माई अंदाज़ में इंस्टाग्राम पर एक वीडियो में धन्यवाद कहा मुझ पर बरसे प्यार से अभिभूत हूं। आज सभी को आधा आलिंगन। लेकिन पुरस्कार साझा होने का तथ्य वह इसे विक्रांत मैसी के साथ साझा कर रहे हैं कई सवालों को जन्म देता है। विक्रांत एक प्रतिभाशाली अभिनेता हैं, लेकिन स्टारडम के मामले में शाहरुख के आस-पास भी नहीं हैं। ऐसे में यह पूछा जा रहा है क्या यह शाहरुख को असल में सम्मान देना है या विक्रांत को बड़ा मंच दिलाने का ज़रिया?
देर से आई स्वीकृति या राजनीतिक उपयोगिता?
कई लोगों का मानना है कि यह सम्मान कहीं ना कहीं स्वदेश (2004) में उनके असाधारण प्रदर्शन को लेकर 21 साल देर से मिली स्वीकृति है। वहीं कुछ यह भी मानते हैं कि शायद उन्हें एक वश में लाए जा सकने वाले" अभिनेता के साथ खड़ा कर, उन्हें एक सियासी रणनीति का हिस्सा बनाया जा रहा है।
दरअसल, यह पुरस्कार और इसका समय, भारतीय फिल्म पुरस्कार संस्थानों जैसे डायरेक्टरेट ऑफ फिल्म फेस्टिवल्स, फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया, और सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली को देखकर योजना बद्ध और राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित लगते हैं। वरिष्ठ विश्लेषकों का मानना है कि यह केंद्र सरकार का शाहरुख को गाजर दिखाने का तरीका है, क्योंकि छड़ी उन्हें झुका नहीं पाई।
आर्यन केस और शाहरुख की गरिमा
अक्टूबर 2021 में जब शाहरुख के बेटे आर्यन खान को एक मनगढ़ंत ड्रग्स केस में जेल भेजा गया, तब ट्रोल्स और सत्ता समर्थक उन्हें बदनाम करने में जुटे थे।लेकिन शाहरुख ने कोई टीवी इंटरव्यू नहीं दिया, सत्ता के आगे सिर नहीं झुकाया, और न ही राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया। वे खामोश, गरिमामय और अडिग रहे। और फिर, अपने अंदाज़ में वापसी की। पठान और जवान जैसी दो ब्लॉकबस्टर फ़िल्मों के साथ। इन दोनों फिल्मों ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर राज किया, बल्कि 2023 के पूरे साल पर कब्जा कर लिया।
‘जवान’ शाहरुख का सिनेमाई प्रतिकार है। एक ऐसे आम आदमी की कहानी, जिसे सिस्टम ने कुचला, लेकिन जिसने बदले में उस सिस्टम को ही बेनकाब किया। फिल्म जितनी एक्शन से भरपूर है, उतनी ही निजी और भावनात्मक भी। यह गुस्से से भरी, नैतिकता से प्रेरित, और उम्मीदों से ओत-प्रोत है। यह बदलाव चाहती है, और आम नागरिक में विश्वास करती है।
तो अब सम्मान क्यों?
यह स्पष्ट है कि वर्तमान सरकार का बॉलीवुड से रिश्ता तनावपूर्ण रहा है। पहले जहां फ़िल्मी हस्तियों की सत्ता से नज़दीकियां आम थीं, वहीं अब असहमति जताने वालों को ट्रोल और अलग-थलग कर दिया गया है। आमिर खान, अनुराग कश्यप, सैफ अली खान सभी ने इसका सामना किया। लेकिन शाहरुख? उन्होंने झुकने से इनकार किया।ऐसे में जब ‘राजा’ नहीं झुकता, तो सत्ता उसे अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है।
वही सरकार जिसने शाहरुख के बेटे को बिना सबूत तीन हफ्ते जेल में डाला, आज उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दे रही है। क्योंकि शाहरुख केवल अभिनेता नहीं, एक ब्रांड, एक भावना हैं वो धर्म, उम्र और वर्ग की सीमाओं से परे सबके चहेते हैं।
राष्ट्रीय पुरस्कार: बदलाव या नियंत्रण का उपकरण?
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार कभी विविध और क्षेत्रीय सिनेमा को सम्मानित करने के लिए जाने जाते थे। अब इनका राजनीतिकरण हो चुका है।इस बार ‘जवान’ को सर्वोच्च सम्मान मिला — यह न तो कोई आर्ट-हाउस फिल्म है, और न ही सुरक्षित विकल्प। यह स्पष्ट रूप से राजनीतिक, मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्म है। इसका सम्मान बताता है सरकार उदार और सहिष्णु दिखना चाहती है। लेकिन साथ ही यह भी संदेश देना चाहती है कि सम्मान उन्हीं को मिलेगा जो किसी न किसी रूप में सत्ता की अनदेखी नहीं करेंगे।
राजनीतिक प्राथमिकता बनाम सिनेमाई गुणवत्ता
2014 के बाद से हर साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। 2015 में 24 फिल्मकारों ने पुरस्कार लौटाए2018 में 60 से अधिक विजेताओं ने समारोह का बहिष्कार किया, जब राष्ट्रपति ने केवल 11 को सम्मानित किया। पिछले कुछ वर्षों में ‘तान्हाजी’ (2020), ‘उरी’ (2019), और ‘सरदार उधम’ (2021) को पुरस्कृत किया गया। तकनीकी दृष्टि से ये फिल्में प्रभावशाली थीं, लेकिन इन्हें राज्य के अनुकूल राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया।वहीं प्रतीक वत्स की ‘ईब अल्ले ओ!’ (2021) जैसी प्रगतिशील और सामाजिक रूप से जागरूक फिल्में नजरअंदाज कर दी गईं।
इस साल का विवाद: ‘द केरल स्टोरी’ और ‘कथल’
इस बार ‘कथल: अ जैकफ्रूट मिस्ट्री’ को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म चुना गया, जबकि ‘थ्री ऑफ अस’ या ‘जोरम’ जैसी फिल्में आलोचकों की पसंद थीं। सबसे विवादास्पद रहा ‘द केरल स्टोरी’ को दो पुरस्कार देना। एक फिल्म जो इस्लामोफोबिक प्रचार, तथ्यात्मक गलतियों और केरल की सामाजिक छवि के तोड़-मरोड़ के लिए आलोचना का शिकार रही।
केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने इसे नफ़रत का सरकारी समर्थन बताया और पुरस्कारों को राजनीतिक प्रचार की वैधता देने का माध्यम कहा।ज्यूरी चेयरपर्सन आशुतोष गोवारिकर ने इसे कठिन विषय पर प्रामाणिक फिल्म बताया। लेकिन आलोचकों ने इसे खोखला बचाव करार दिया।