रंगमंच की बात ही अलग, त्रिशूर थिएटर फेस्टिवल की हो रही चर्चा
केरल में थिएटर फेस्ट में 'फेमिनिस्ट मेनिफेस्टो' ने नाइजीरियाई लेखिका चिमामांडा नगोजी अदिची के विचारों को जीवंत कर दिया। कुछ खामियों के बाद भी यह भावपूर्ण और शानदार था।;
केरल के त्रिशूर जिले के वेलूर में आयोजित एक सप्ताह लंबे ग्रामीण रंगमंच महोत्सव का अंतिम दिन था, जिसे लोकप्रिय जनमंच ग्रामकम द्वारा आयोजित किया गया था। यह महोत्सव 7 अप्रैल को समाप्त हुआ। एक हाई स्कूल के मैदान पर बनाए गए खुले मंच पर गांव के लोगों की भारी भीड़ उमड़ी हुई थी, और गर्म रात की हवा में उनकी उत्सुकता साफ महसूस की जा सकती थी।
'फेमिनिस्ट मैनिफेस्टो', निर्देशक अभिमन्यु विनायकुमार द्वारा निर्देशित एक नाटक, नाइजीरियाई उपन्यासकार और नारीवादी चिंतक चिमामांडा न्गोज़ी अदिची के विचारों से प्रेरित था। इसकी शुरुआत एक शादी के जुलूस से होती है—जहाँ एक किशोरी फूलन देवी, एक बालिका वधू के रूप में रंग-बिरंगे लहंगे में सजी होती है। उसका दुबला-पतला शरीर उससे कहीं बड़े और सख्त दिखने वाले दूल्हे के सामने बिल्कुल छोटा लगता है। जैसे-जैसे संगीत तेज़ होता है, उसकी घबराहट बढ़ती है। पति उस पर घरेलू कामों और पितृसत्तात्मक जिम्मेदारियों का बोझ डालता है।लेकिन नाटक के अंत में फूलन का एक साधारण विद्रोह इन बोझों को झटककर फेंक देना ही उस पति को डराने के लिए काफी साबित होता है।
इस नाटक को अबू धाबी (UAE) में रहने वाले प्रवासियों द्वारा प्रस्तुत किया गया था और इसकी पहली प्रस्तुति दिसंबर 2024 में हुई थी। अदिची की दो प्रमुख गैर-काल्पनिक कृतियों—‘We Should All Be Feminists’ और ‘Dear Ijeawele’—से प्रेरित यह नाटक लोक कला, शास्त्रीय रंगमंच और आधुनिक थिएटर का संगम था। पाँच भागों में विभाजित यह प्रस्तुति स्त्रीत्व की स्मृतियों का एक संग्रहालय बन गई—प्रवासियों की भूमिका में आत्मबल की एक पुकार।
बराबरी के जाल में फंसी फूलन की शुरुआत
फूलन की प्रस्तावना ने एक कच्चा और गहन भावनात्मक माहौल तैयार किया। कहानी फिर एक 5-6 साल की बच्ची पर केंद्रित होती है, जो अपनी मां से पूछती है:"लड़कों और लड़कियों को स्कूल में अलग क्यों किया जाता है? हम एक-दूसरे को छू क्यों नहीं सकते? घर पर तो हम सब साथ में सोते हैं ना मैं, आप, पापा और भैया?"
मां जवाब में शिकारी पुरुषों की बात करती है—जो उड़ती चिड़ियों को सिर्फ उनके पंख तोड़ने के लिए पकड़ लेते हैं। इसके बाद वह बच्ची को एक "स्मृति संग्रहालय" में ले जाती है, जहां स्त्रीत्व का मूक इतिहास संस्कृति की सीमाओं से बाहर निकलकर खुलने लगता है।
डॉल्स हाउस और गुलामी का व्यापार
पहली प्रदर्शनी में नॉर्वेजियन नाटककार हेनरिक इब्सन की प्रसिद्ध पात्र नोरा हेल्मर को दिखाया गया—एक डॉल नीलामी के संदर्भ में, जिसे "डॉल्स हाउस" नाम दिया गया था। यहां हर गुड़िया को उसके उपयोग—खाना बनाना, सफाई करना, आज्ञाकारी होना और यहां तक कि बच्चों को जन्म देना—के आधार पर परखा जाता है।
सबसे “उपयोगी” गुड़ियाओं को सोने के तस्कर, डाकू, और पितृसत्तात्मक समाज के अन्य लाभार्थियों ने ऊंचे दामों में खरीदा। वहीं, नोरा, जो न सजी-संवरी थी और न ही खूबसूरत, पूरी नीलामी के दौरान अछूती रह गई—जब तक कि टॉरवाल्ड सामने नहीं आया।टॉरवाल्ड ने ना तो रूप की चाहत की, ना सेवा की—बल्कि “बौद्धिक समानता” का प्रस्ताव रखा। पर उसकी आज़ादी भी अधीनता की अपेक्षा से भरी हुई थी। नोरा का इंकार एक क्रांति में बदल गया—और वह मंच पर बने दरवाजे से निकलकर बारिश में चली जाती है। वह बारिश—एक प्रतीक बन जाती है—मुक्ति, आत्मबोध और पुनर्जन्म का।
ओथेल्लो, सत्यवती और अग्नि से पुनर्जन्म
दूसरे खंड में था शेक्सपियर का ‘ओथेल्लो’। डेस्डेमोना ओथेल्लो के क्रोध और इआगो की मक्कारी के बीच फंसी नजर आती है। ओथेल्लो की दहाड़ मंच को हिला देती है, जबकि इआगो की फुसफुसाहट धुएं की तरह लहराती है। यह दृश्य भावनात्मक रूप से असरदार था, लेकिन थोड़ी लंबी खिंच गई।
तीसरे खंड में पाराशर और सत्यवती की मुलाकात दिखाई गई। महाभारत के रचयिता व्यास के जन्म की पृष्ठभूमि में। एक गोल नाव, धीमे बहते नीले प्रकाश में तैरती हुई मंच पर सौम्य ऊर्जा फैलाती है। उनका प्रेम, कोमल किन्तु अनचाहा, एक परछाई के रूप में दर्शाया गया—जिसमें प्रकाश और संगीत करुणा से भर देता है।
मुखिलोट अम्मा: आग से पुनर्जन्म
चौथे दृश्य में उत्तर केरल की लोककथा से प्रेरित मुखिलोट अम्मा की कथा प्रस्तुत की गई। यह बुद्धिमान और स्वतंत्र महिला, जो थेय्यम परंपरा में देवी के रूप में पूजित है, पितृसत्ता द्वारा अपवित्र ठहराकर अलग कर दी जाती है। वह अधीनता की जगह आत्मदाह को चुनती है—और फिर आग से देवी बनकर उठती है।
मंच पर महिलाएं झूले तोड़ती हैं, झाड़ू उठाकर पितृसत्तात्मक हिंसा के विरुद्ध चिल्लाती हैं। पुरुष शिकारी जानवरों की तरह घूमते हैं। फिर धुएं और गुस्से के बीच, मुखिलोट अम्मा फीनिक्स की तरह उठती है—दृढ़, दिव्य।
रंग और नस्ल की राजनीति की उपेक्षा
विनायकुमार का निर्देशन साहसिक था। खुले मंच का भरपूर उपयोग किया गया—जुलूस दर्शकों के बीच से निकले, परछाइयां लंबी खिंचती गईं, और विशेषकर डॉल्स हाउस में प्रतीकों की परतें अद्भुत थीं। जोश कोशी की प्रकाश योजना ने खुद अपनी कहानी कही—दमन के दृश्यों में कठोर और मुक्ति के दृश्यों में नरम।
सूरज संतोष का संगीत, पोशाकें और मंच सज्जा भी बेजोड़ थीं—शब्दों के बिना बहुत कुछ कहने वाले। नाटक की सबसे बड़ी ताकत उसकी थिएटर-कला थी—लोक और शास्त्रीय का मिलन।हालांकि, संपादन की कमी महसूस हुई—कुछ संवाद कमजोर थे और मर्दाना ऑनलाइन संस्कृति (मैनोस्फीयर) की आलोचना सतही लगने लगी, क्योंकि उसमें गहराई की कमी थी।
प्रवासी कलाकारों की जीवंत प्रस्तुति
यूएई के प्रवासी मलयालियों की मुख्य भूमिका में प्रस्तुति ने ऊर्जा से भरपूर माहौल रचा। अशरफ किरलूर, मुरली के., और सैफुद्दीन ने शानदार अभिनय किया।अशरफ ने नीलामीकर्ता, इआगो, और पाराशर की भूमिकाओं को सहजता से निभाया।सैफुद्दीन का मंच पर आत्मविश्वास और संयम देखने लायक था। मुरली का ओथेल्लो: शारीरिक भाषा और लय में बहुत प्रभावशाली रहा।डेस्डेमोना की भूमिका करने वाली अभिनेत्री की कोरियोग्राफी, संयम और भाव-प्रदर्शन अत्यंत प्रभावशाली था।हालांकि सहायक कलाकारों ने अंतिम दृश्य में कमजोर प्रदर्शन किया। कोरस की आवाज प्रभावशाली थी, पर कुछ महिला पात्रों में गहराई की कमी थी।
नारीवाद का आह्वान, लेकिन अधूरी उड़ान
‘फेमिनिस्ट मैनिफेस्टो’, अदिची की सोच से प्रेरित तो था, पर उसका सीधा रूपांतरण नहीं था। मुख्य विषय था—स्व-शक्ति का आह्वान—जो स्पष्ट रूप से प्रस्तुत हुआ। "सर्वंसहा" और "चातुलप्रसविनी" जैसे नामों के साथ नीलामी का दृश्य बहुत प्रभावी था।अंत में छोड़े गए गुब्बारे—आशावादी थे, लेकिन नाजुक भी।पर नाटक ने कुछ कठिन सवालों से दूरी बना ली जाति, वर्ग और नस्ल जैसे मुद्दों को छुआ तक नहीं। "स्वतंत्रता की श्वेतता" जैसी पंक्ति खोखली लगी। यह पारंपरिक नारीवाद से आगे के विमर्श की जरूरत को दर्शाता है, जिसे अदिची अक्सर छूती हैं।लेकिन नाटक उस गहराई तक नहीं गया।यह प्रस्तुति भावनात्मक रूप से असरदार, देखने लायक जरूर थी पर पूरी तरह साहसी बनने से चूक गई।