बस्तर की जंग भाग 5- कोरापुट हमले की कहानी, एक पूर्व माओवादी की ज़ुबानी
5-किस्तों की इस सीरीज़ के अंतिम भाग में, दो आत्मसमर्पित माओवादी उस साहसिक हमले को याद करते हैं, जिसने भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ एक लंबे सशस्त्र विद्रोह की नींव रखी.;
अक्टूबर 2003 के आसपास, मंगल मुडिया को अपने कमांडरों से एक आदेश मिला – अपने 30 साथियों की टीम बनाओ और ओडिशा के कोरापुट के लिए रवाना हो जाओ. उन्हें नहीं पता था असली योजना क्या है — बस आदेश मिले थे और उन्हें मानना था.
19 साल की उम्र में ही मुडिया, दक्षिण बस्तर के घने जंगलों में पीपुल्स वॉर ग्रुप (PWG) का एरिया कमांडर बन चुका था. उसका सपना था – बंदूक के दम पर क्रांति लाना.
गंगालूर से कोरापुट की दूरी करीब 265 किलोमीटर है, लेकिन दंडकारण्य के बीहड़ रास्तों से चलना आसान नहीं था. फिर भी उस समय उनके अंदर जोश इतना था कि हर चुनौती छोटी लगती थी.
बिलकुल सोची-समझी योजना
उनका सफर सीधा नहीं था. सबसे पहले वे बासागुड़ा और जगरगुंडा होते हुए कांटा पहुंचे. फिर विशाखापट्टनम और श्रीकाकुलम गए, जहां PWG का पहले से नेटवर्क था. “हम दो महीने वहीं रुके रहे, हर दिन रिहर्सल करते थे — कैसे हमला करना है, कैसे भागना है, कहां हथियार छिपाने हैं,” मुडिया याद करते हैं।
श्रीकाकुलम में उन्होंने सेकंड हैंड गाड़ियां खरीदीं — एक ट्रक, एक कमांडर जीप, दो टेम्पो और कुछ बाइक. सिविल कपड़ों में, लेकिन हथियारों से लैस होकर, मुडिया और उनकी टीम जीप में कोरापुट की ओर बढ़े. अब उन्हें पूरी योजना पता थी — टारगेट था: कोरापुट पुलिस का शस्त्रागार.
PWG से CPI (माओवादी) तक
ये हमला उस वक्त हुआ जब PWG और MCC का विलय होने वाला था. सितंबर 2004 में CPI (माओवादी) बना — और कोरापुट लूट उसके लिए एक बड़ी तैयारी साबित हुई. इसके पीछे मुख्य रणनीतिकार था — बसवराज उर्फ नंबाला केशव राव, जिसे हाल ही (21 मई 2025) में अबूझमाड़ में सुरक्षा बलों ने मार गिराया.
पूर्व माओवादी की कहानी
आज मुडिया नक्सली नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ पुलिस की District Reserve Guard (DRG) में कांस्टेबल है. वो पकड़े गए या मारे गए माओवादियों से बरामद पर्चों का अनुवाद करता है, और पूछताछ में पुलिस की मदद करता है.
2020 में वो हथियार छोड़कर सरेंडर कर चुका है. एक वक्त Dandakaranya Special Zonal Committee का सदस्य था, अब बस्तर में माओवादी नेटवर्क को तोड़ने में भूमिका निभा रहा है.
हमले का दिन
6 फरवरी 2004 को लगभग 1000 माओवादी ओडिशा के कोरापुट में अलग-अलग रास्तों से पहुंचे. ज़्यादातर ने कई महीने पहले से योजना के तहत मूवमेंट शुरू कर दिया था. कोरापुट पहुंचकर उन्होंने दुकानदारों से दुकानें बंद करवाईं और पुलिस संस्थानों पर हमला बोल दिया — ज़बरदस्त फायरिंग, ग्रेनेड से हमला और पूरे जिले की पुलिस व्यवस्था को पंगु कर दिया. उन्होंने ज़िला शस्त्रागार लूटा, पाँच पुलिस थानों पर हमला किया. जेल, SP ऑफिस और OSAP बटालियन पर धावा बोला. एक ATM गार्ड की रायफल भी छीनी कोई ज़्यादा विरोध नहीं मिला. “शस्त्रागार की रखवाली सिर्फ एक संतरी कर रहा था,” मुडिया बताता है.
उस संतरी — नकुल नायक — ने फायर किया, लेकिन अकेले वो इतने माओवादियों के सामने टिक नहीं पाया. कुल मिलाकर 11 लोग मारे गए, जिनमें कुछ आम नागरिक भी थे. SP अरुण बोथरा बाल-बाल बचे — हमले से कुछ मिनट पहले ही वो ऑफिस से निकले थे.
लूट और वापसी सबसे कठिन हिस्सा था. माओवादियों ने लगभग 500 हथियार लूटे — जैसे 303 राइफल, एलएमजी, एसएलआर, मोर्टार, स्टेन गन, रिवॉल्वर, पिस्तौल, 30,000 राउंड गोलियां, मोर्टार और ग्रेनेड भी. “हमने सारे हथियार तय जगहों पर जंगलों में छुपाए और फिर गाड़ियां जला दीं,” मुडिया कहता है. सबसे मुश्किल था — सैकड़ों किलोमीटर पैदल लौटना और हथियारों को छुपाकर वापस ले जाना.
गड़चिरोली में भी पहुंची लूट
पूर्व माओवादी जलमसय ललसाय सडमेक, जो अब महाराष्ट्र पुलिस की नक्सल सेल में काम करते हैं, कहते हैं, “हम दो बार जाकर हथियार उठाकर लाए. पूरी प्रक्रिया में एक साल लगा.”
स्थानीय समर्थन भी मिला
मुडिया के अनुसार, हथियारों की वजह से स्थानीय आदिवासियों का समर्थन भी मिला — कुछ डर से, कुछ इस भरोसे से कि अब न्याय मिलेगा, और जल-जंगल-जमीन बचा रहेगा. इसी तर्ज पर 2008 में नयागढ़ में भी माओवादियों ने हमला किया — 13 पुलिसकर्मी और एक आम नागरिक मारे गए.
गंगालूर से कोरापुट की दूरी करीब 265 किलोमीटर है, लेकिन दंडकारण्य के बीहड़ रास्तों से चलना आसान नहीं था. फिर भी उस समय उनके अंदर जोश इतना था कि हर चुनौती छोटी लगती थी.एक पूर्व माओवादी रामसिंह कोर्रम, जो अब छत्तीसगढ़ पुलिस में कांस्टेबल हैं, नारायणपुर कॉलोनी में अपनी पत्नी लच्छनदेवी कोर्रम के साथ रहते हैं।
सलवा जुडूम और मोहभंग
“मैंने कभी किसी को मारा नहीं, हां, हमलों में जरूर शामिल रहा,” मुडिया कहता है. यही बात पार्टी को नागवार गुज़री और उस पर शक होने लगा.
वो कहता है, “2005 से 2015 के बीच सलवा जुडूम के समय बहुत खून-खराबा देखा. लेकिन जैसे-जैसे मोबाइल फ़ोन गांव-गांव पहुंचे, मुझे अहसास हुआ कि असली दुनिया कुछ और है. हम जिन मुद्दों को उठा रहे थे, वो सही थे — लेकिन रास्ता गलत था.”