भारत में परिसीमन: लोकतांत्रिक बदलाव की दिशा में बड़ा कदम, लेकिन बहस की जरूरत
यह सिर्फ लोगों की गिनती करने और लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों को फिर से परिभाषित करने के बारे में नहीं है; यह सत्ता, पहचान और संघवाद के बारे में भी है. द फ़ेडरल की नई सीरीज़ में आपका स्वागत है.;
पचास वर्षों के बाद भारत एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया की ओर बढ़ रहा है, जिसका असर आने वाली कई दशकों तक देश के राजनीतिक परिदृश्य पर पड़ सकता है—वह है लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन. यह कदम न केवल लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है, बल्कि यह भारतीय संघीयता, शक्ति संरचना और सामाजिक पहचान पर भी गहरा प्रभाव डाल सकता है.
भारत में पिछले 50 वर्षों में जो बदलाव आए हैं, वे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और जनसांख्यिकीय दृष्टिकोण से असमान रहे हैं. इन बदलावों के कारण परिसीमन एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा बन चुका है. यह मुद्दा बहस का कारण है. लेकिन फिर भी इसे एक जरूरी कदम माना जा रहा है.
परिसीमन: क्या है और क्यों जरूरी है?
परिसीमन संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से परिभाषित करने की प्रक्रिया है, ताकि जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों का ध्यान रखा जा सके. यह प्रक्रिया भारत के संविधान के तहत अनिवार्य है, जिससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके. परिसीमन का कार्य एक स्वतंत्र आयोग, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है, द्वारा किया जाता है. यह आयोग जनगणना के आंकड़ों का उपयोग करता है और इसके आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या और आकार में बदलाव करता है.
भारत में परिसीमन का इतिहास और वर्तमान स्थिति
भारत में अब तक परिसीमन चार बार हुआ है—1952, 1963, 1973, और 2002 में. हालांकि, 1976 के बाद से राज्यों के बीच सीटों का वितरण स्थिर रहा है. यह स्थिरता जनसंख्या नियंत्रण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू की गई थी और इसे 2001 में बढ़ाकर 2026 तक के लिए स्थगित कर दिया गया था, जब तक नई जनगणना के आंकड़े उपलब्ध नहीं हो जाते. अब, जब नई जनगणना का समय करीब आ रहा है और स्थगन समाप्त होने को है, परिसीमन को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो चुकी है.
परिसीमन का सिद्धांत और जटिलता
परिसीमन का मुख्य सिद्धांत सरल है—निर्वाचन क्षेत्रों को समान जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, ताकि लोकतांत्रिक सिद्धांत "एक व्यक्ति, एक वोट" को बनाए रखा जा सके. लेकिन भारत जैसे विविध और असमान रूप से विकसित देश में यह प्रक्रिया बहुत जटिल हो जाती है. यहां पर क्षेत्रीय असमानताएं, राजनीतिक आकांक्षाएं और संघीय तनाव इसके प्रति दृष्टिकोण को बहुत प्रभावित करते हैं.
दक्षिणी राज्यों की चिंता
दक्षिणी राज्यों जैसे तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना इस परिसीमन को लेकर अधिक चिंतित हैं. इन राज्यों का मुख्य डर जनसंख्या वृद्धि में असमानता से जुड़ा हुआ है. पिछले कुछ दशकों में दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों को प्रभावी रूप से लागू किया है, जिससे इन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर धीमी रही है. इसके विपरीत उत्तर भारतीय राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि में अधिक तेजी आई है. यदि परिसीमन केवल जनसंख्या के आधार पर किया जाता है तो दक्षिणी राज्यों को लोकसभा सीटों का नुकसान हो सकता है. जबकि उत्तरी राज्यों को लाभ मिल सकता है.
उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु की वर्तमान में 39 सीटें हैं. जबकि उत्तर प्रदेश की 80 सीटें हैं. परिसीमन के बाद उत्तर प्रदेश की सीटों की संख्या 140 तक पहुंच सकती है. जबकि तमिलनाडु को अपनी 8 सीटें खोने का खतरा हो सकता है. इससे सत्ता का संतुलन बिगड़ सकता है, जिससे दक्षिणी राज्यों का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति में घट सकता है.
दक्षिणी नेताओं की प्रतिक्रिया
दक्षिणी राज्यों के राजनीतिक नेताओं का कहना है कि परिसीमन उनके परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को सजा देने जैसा होगा. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इसे "डेमोकल्स की तलवार" के रूप में वर्णित किया है और उन्होंने दक्षिणी राज्यों के हितों की रक्षा के लिए व्यापक समर्थन की अपील की है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, जो कर्नाटका से हैं, ने इसे "साजिश" करार दिया है, जिसका उद्देश्य दक्षिणी राज्यों की राजनीतिक शक्ति को कमजोर करना है. वहीं, केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने चेतावनी दी है कि इससे संघीय समानता को खतरा हो सकता है.
उत्तर भारतीय दृष्टिकोण
वहीं, उत्तर भारतीय राज्यों का मानना है कि परिसीमन एक जरूरी और पुराना सुधार है. उत्तर प्रदेश और बिहार के नेताओं का कहना है कि उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है. क्योंकि उनके निर्वाचन क्षेत्रों का आकार दक्षिणी राज्यों की तुलना में बहुत बड़ा है. उनका तर्क है कि जनसंख्या-आधारित पुनर्वितरण लोकतांत्रिक समानता के लिए आवश्यक है।.
बीजेपी का रुख
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इस बहस का मुख्य हिस्सा है. बीजेपी का मुख्य समर्थक आधार उत्तर भारतीय राज्यों में है और पार्टी को उम्मीद है कि परिसीमन से इन राज्यों को अधिक सीटें मिल सकती हैं. हालांकि, कुछ आलोचक, जैसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने आरोप लगाया है कि बीजेपी परिसीमन का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने के लिए कर सकती है, खासकर दक्षिणी राज्यों में, जहां पार्टी का चुनावी प्रभाव अपेक्षाकृत कमजोर है.
इस पर बीजेपी ने आश्वासन दिया है कि दक्षिणी राज्यों को "एक भी सीट नहीं खोनी चाहिए" और गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों ने इस पर सहमति जताई है. हालांकि, इस वादे की वास्तविकता पर सवाल उठ रहे हैं. क्योंकि यदि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होगा तो दक्षिणी राज्यों के प्रतिनिधित्व में कमी आ सकती है.
सीटों का नुकसान
यदि लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाई जाती है तो उत्तर भारत को सीटों में बढ़ोतरी हो सकती है, बिना दक्षिणी राज्यों का प्रतिनिधित्व घटाए. लेकिन इससे संसद का आकार बढ़ेगा और खर्च में भी वृद्धि हो सकती है. बीजेपी का कहना है कि परिसीमन निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से किया जाएगा. लेकिन इसके लिए कोई स्पष्ट योजना अभी तक नहीं आई है.
विपक्ष की भूमिका
परिसीमन केवल बीजेपी का मुद्दा नहीं है. यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, जिसमें सभी राजनीतिक दलों को शामिल किया जाएगा. दक्षिणी क्षेत्रीय दलों जैसे DMK, TDP, और YSRCP ने इस मुद्दे पर विरोध व्यक्त किया है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 22 मार्च को चेन्नई में एक सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया है, जिसमें विभिन्न राज्य के नेताओं को एकजुट करने का प्रयास किया जा रहा है.