भारत से लॉन्च होने वाला अब तक का सबसे भारी सैटेलाइट, ISRO आज करेगा लॉन्च
यह अंतरिक्ष यान एलवीएम3-एम5 रॉकेट पर सवार होकर जाएगा, जिसे उसकी भारी वहन क्षमता के कारण ‘बाहुबली’ नाम दिया गया है।
भारत रविवार शाम अपने इतिहास के सबसे भारी उपग्रह को अंतरिक्ष में भेजने जा रहा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) अपने सबसे बड़े रॉकेट एलवीएम-3 (LVM-3) का इस्तेमाल कर सीएमएस-03 (CMS-03) संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में भेजेगा।
यह पहला मौका होगा जब इसरो भारत की धरती से 4,000 किलोग्राम से अधिक वजन वाला उपग्रह भू-समकालिक स्थानांतरण कक्षा (Geosynchronous Transfer Orbit - GTO) में स्थापित करेगा।
सीएमएस-03, जो एक मल्टीबैंड कम्युनिकेशन सैटेलाइट है, का वजन 4,410 किलोग्राम है। इसे पृथ्वी की सतह से लगभग 29,970 किमी × 170 किमी की ट्रांसफर कक्षा में स्थापित किया जाएगा। अब तक इसरो को अपने भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए अन्य देशों की निजी अंतरिक्ष एजेंसियों की मदद लेनी पड़ती थी।
यह लॉन्च इसरो के लिए एलवीएम-3 रॉकेट की क्षमता में एक बड़ा मील का पत्थर है। इसी रॉकेट के संशोधित संस्करण का इस्तेमाल गगनयान मिशन में भी किया जाएगा, जिसके तहत भारत मानव को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी कर रहा है।
एलवीएम-3 की क्षमता
पहले इसे जियोसिंक्रोनस लॉन्च व्हीकल मार्क 3 (GSLV Mk 3) कहा जाता था। यह रॉकेट ठोस, तरल और क्रायोजेनिक ईंधन आधारित इंजन का उपयोग करता है, जिससे यह 8,000 किलोग्राम तक का पेलोड निम्न पृथ्वी कक्षा (Low Earth Orbit, 2,000 किमी तक ऊंचाई) में और 4,000 किलोग्राम तक का पेलोड भू-समकालिक कक्षा (लगभग 36,000 किमी ऊंचाई) में स्थापित कर सकता है।
इसरो की मूल योजना थी कि पीएसएलवी (PSLV) रॉकेट का उपयोग ध्रुवीय और निचली पृथ्वी कक्षाओं के लिए किया जाए, जबकि जीएसएलवी (GSLV-II) और जीएसएलवी मार्क-3 का उपयोग अधिक दूर की भू-समकालिक कक्षाओं के लिए।
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद बदलाव
2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच इस रॉकेट को वनवेब (OneWeb) कंपनी के 72 उपग्रहों को निचली पृथ्वी कक्षा (450 किमी) में भेजने के लिए अनुकूलित किया गया।
इस मिशन ने साबित किया कि यह रॉकेट केवल भू-समकालिक कक्षा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसे अन्य उद्देश्यों के लिए भी उपयोग किया जा सकता है।
इससे पहले भारत के 4,000 किलोग्राम से भारी संचार उपग्रह जीसैट-11 (5,854 किग्रा) और जीसैट-24 (4,181 किग्रा) को फ्रांस की एरियानस्पेस (ArianeSpace) ने लॉन्च किया था।
पिछले साल इसरो ने एलन मस्क की स्पेसएक्स (SpaceX) की मदद से 4,700 किग्रा जीसैट-20 को भी कक्षा में स्थापित कराया था।
वर्तमान मिशन में, रॉकेट की क्षमता (4,000 किग्रा से थोड़ी अधिक) से भारी उपग्रह को समायोजित करने के लिए कक्षा को थोड़ा नीचे किया गया है, जिसका उच्चतम बिंदु लगभग 29,970 किमी होगा।
इसरो अब इस लॉन्च व्हीकल की कुल वहन क्षमता बढ़ाने पर काम कर रहा है।
किए जा रहे तकनीकी बदलाव
इसरो रॉकेट की वहन क्षमता बढ़ाने पर काम कर रहा है, खासकर मानव अंतरिक्ष उड़ान मिशन (गगनयान) को ध्यान में रखते हुए। तीसरे या क्रायोजेनिक ऊपरी चरण (C25 Stage) की थ्रस्ट शक्ति बढ़ाने की योजना है, जो उपग्रह को अंतिम गति देने में 50% योगदान देता है।
मौजूदा सी25 चरण 28,000 किग्रा ईंधन लेकर 20 टन थ्रस्ट पैदा करता है। नया C32 चरण 32,000 किग्रा ईंधन ले सकेगा और 22 टन थ्रस्ट देगा।
इसके अलावा, इसरो दूसरे चरण में लिक्विड की जगह सेमी-क्रायोजेनिक इंजन लगाने की दिशा में भी काम कर रहा है। इसमें तरल ऑक्सीजन और परिष्कृत केरोसीन का उपयोग होगा, जो क्षमता बढ़ाने के साथ लागत भी घटाएगा।
नए इंजन के साथ रॉकेट लगभग 10,000 किग्रा पेलोड को निम्न पृथ्वी कक्षा में ले जाने में सक्षम होगा (वर्तमान में 8,000 किग्रा तक)।
इस बढ़ी हुई क्षमता से यह रॉकेट भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (Bharatiya Antarish Station) के पहले और हल्के मॉड्यूल को ले जाने में सक्षम होगा।
भविष्य में और भारी मॉड्यूल के लिए नया लॉन्चर – लूनर मॉड्यूल लॉन्च व्हीकल (LMLV) तैयार किया जा रहा है, जो 80,000 किग्रा तक पेलोड उठा सकेगा। इसका उपयोग मानव को चंद्रमा पर भेजने वाले मिशनों के लिए किया जाएगा।
अब तक के प्रक्षेपण
एलवीएम-3 इसरो का सबसे भारी और सबसे सफल रॉकेट है। इसके अब तक के सभी सात मिशन सफल रहे हैं। इसी रॉकेट से चंद्रयान-2 और चंद्रयान-3 को भी अंतरिक्ष में भेजा गया था।
इसकी तुलना में जीएसएलवी के 18 मिशनों में से 4 विफल हुए हैं, जबकि पीएसएलवी के 63 मिशनों में से 3 असफल रहे हैं। सबसे हाल की विफलता मई 2025 में हुई जब EOS-9 उपग्रह तीसरे चरण की तकनीकी खामी के कारण कक्षा में नहीं पहुंच सका।
2014 में जीएसएलवी-एमके3 की पहली उड़ान में इसने एक क्रू मॉड्यूल (Crew Module) को अंतरिक्ष में भेजा था — जो भारत की पहली पुनः प्रवेश (re-entry) परीक्षण उड़ान थी।
यह परीक्षण बेहद अहम था क्योंकि भविष्य के मानव मिशनों में अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करने के लिए ऐसे परीक्षण आवश्यक हैं।