अमेरिका के टैरिफ वार की काट, भारत ने दिखाई कूटनीतिक दृढ़ता
रूस से तेल खरीद पर ट्रंप की टैरिफ धमकी को भारत ने अनुचित बताया। भारत ने कहा, वह राष्ट्रीय हितों और आर्थिक सुरक्षा के लिए कोई भी कदम उठाने को तैयार है।;
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा रूस से सस्ती दरों पर तेल खरीदकर बड़ा मुनाफा कमाने" के आरोप में भारत पर टैरिफ बढ़ाने की धमकी देने के बाद भारत ने तीखा और स्पष्ट जवाब दिया है। भारत सरकार ने इस धमकी को अनुचित और गैर-ज़रूरी करार देते हुए कहा है कि वह राष्ट्रीय हित और आर्थिक सुरक्षा की रक्षा के लिए हर आवश्यक कदम उठाएगी।
यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के पास कोई आसान विकल्प नहीं बचा है। व्यापार विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री और पूर्व राजनयिक पहले ही सरकार को सलाह दे चुके थे कि ट्रंप की दबंगई के सामने झुकने के बजाय भारत को अपनी घरेलू उद्योग संरचना को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना चाहिए। इसके लिए टैरिफ और गैर-टैरिफ अड़चनों को हटाना और उत्पाद गुणवत्ता में सुधार करना होगा।
भारत के पास सीमित विकल्प
दिखावे की राजनीति नहीं कर भारत
ट्रंप के बड़े व्यापार समझौतों की खासियत यह रही है कि उन्होंने बड़े व्यापारिक साझेदारों से अमेरिका में भारी निवेश कराने का वादा हासिल किया है। उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ (EU) ने 600 अरब डॉलर के निवेश और 750 अरब डॉलर की ऊर्जा खरीद का वादा किया; जापान ने 550 अरब डॉलर और कोरिया ने 350 अरब डॉलर का निवेश सुनिश्चित किया।
हालांकि ये वादे ज़मीनी हकीकत में बदलें या नहीं, ट्रंप को केवल ‘दिखावा’ भी काफी होता है। EU के दो वरिष्ठ अधिकारियों ने बाद में स्वीकार किया कि यह निवेश पूरी तरह निजी कंपनियों पर निर्भर है और सार्वजनिक निवेश इसमें शून्य है।
भारत के लिए ऐसी कोई दिखावटी बाज़ीगरी संभव नहीं। वित्त मंत्रालय के तहत आर्थिक मामलों के विभाग (DEA) के आंकड़ों के अनुसार, 2023-25 के बीच भारत का कुल ओवरसीज डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट (ODI) औसतन $17.9 अरब डॉलर रहा, जिसमें से केवल 15% यानी लगभग $2.7 अरब डॉलर – अमेरिका में गया। इसे उस स्तर तक बढ़ा पाना नामुमकिन है जो ट्रंप की नज़र में आए।
भारत के पास पूंजी और तकनीक नहीं
पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का कहना है कि भारत को ही FDI और टेक्नोलॉजी की जरूरत है, न कि अमेरिका को। उनके अनुसार, "भारत की कोई भी कंपनी अमेरिका में सेमीकंडक्टर या इलेक्ट्रिक व्हीकल जैसी नई औद्योगिक वस्तुओं में निवेश नहीं कर सकती, क्योंकि भारत खुद दूसरों से तकनीक लेता है।"
व्यापार विशेषज्ञ बिस्वजीत धर भी दो टूक कहते हैं, "भारत के पास पूंजी नहीं है। हमें पैसे की ज़रूरत है, तो हम अमेरिका में निवेश कैसे करेंगे?" कुछ खबरें बताती हैं कि अदाणी समूह ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में 10 अरब डॉलर के निवेश (न्यूक्लियर पावर, पोर्ट्स, यूटिलिटी) की योजना बना रहा था, लेकिन एक रिश्वत मामले में अमेरिकी एजेंसियों की जांच के बाद योजना ठंडे बस्ते में डाल दी गई। टाटा टेक्नोलॉजीज़ भी अमेरिका में निवेश की इच्छुक थी, लेकिन ट्रंप की टैरिफ धमकियों के बाद रुक गई।
रूसी तेल छोड़ना महंगा सौदा
Kpler के प्रमुख शोधकर्ता सुमित रितोलिया के अनुसार, रूसी कच्चे तेल की लैंडिंग लागत अमेरिका की तुलना में $5-6 प्रति बैरल कम है। अगर भारत रूसी तेल छोड़ दे, तो उसे सालाना $4-5 अरब डॉलर अतिरिक्त खर्च करने होंगे। वास्तविक लागत इससे भी अधिक हो सकती है क्योंकि गैर-रूसी तेल की मांग बढ़ने से उसकी कीमत भी चढ़ जाएगी, जिससे घरेलू महंगाई का खतरा बढ़ेगा।
जहां रिलायंस और नायरा जैसी निजी कंपनियां इस तेल को खरीदकर यूरोप को निर्यात करती हैं, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों का बाजार घरेलू ही रहता है।
अमेरिकी हथियारों की खरीद घाटे का सौदा
धर के मुताबिक, 2000 से 2022 के बीच भारत ने अमेरिका की तुलना में रूस से 8 गुना ज्यादा हथियार खरीदे हैं। रूसी हथियार न सिर्फ सस्ते हैं, बल्कि टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के साथ आते हैं। वहीं अमेरिकी हथियार कई शर्तों के साथ आते हैं – जैसे दोहरे उपयोग पर प्रतिबंध, अनुमति की शर्त और तकनीक साझा न करना।
F-35 जैसे कुछ फाइटर जेट खरीदने से ट्रंप खुश हो जाएंगे, यह मानना भी गलत है। ट्रंप अब पाकिस्तान की तरफ झुकाव दिखा रहे हैं और उनकी नीतियां पल-पल बदलती हैं।
कृषि और डेयरी बाजार खोलना नहीं संभव
भारत के लिए कृषि और डेयरी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को खोलना राजनीतिक आत्मघात होगा। किसान पहले से ही भारी विरोध कर रहे हैं। ट्रंप चाहते हैं कि भारत अमेरिका की GMO (जेनेटिकली मोडिफाइड) सोया और मक्का खरीदे, जिसे लेकर भारत में भारी असहमति है।
अमेरिकी डेयरी प्रोडक्ट्स पर भी विवाद है – क्योंकि वहां पशु चारे में जानवरों के अंग होने का संदेह है, जिसे भारत के बहुसंख्यक समुदाय के लिए “मांसाहारी” माना जाता है। इससे धार्मिक भावनाएं आहत होंगी।
टैरिफ छूट का कोई तर्क नहीं
गर्ग कहते हैं कि अगर ट्रंप का उद्देश्य व्यापार घाटा खत्म करना है, तो "भारत को अमेरिका के साथ व्यापार करने का कोई औचित्य नहीं। उनका कहना है कि अमेरिका जिन वस्तुओं (कपड़े, दवाएं, आदि) का उत्पादन नहीं करता, उन्हें खरीदने के लिए मजबूर है। ऐसे में पूरी दुनिया को टैरिफ छूट देने से मना कर देना चाहिए था। वैसे भी ट्रंप ने बहुत सारी वस्तुओं को टैरिफ मुक्त श्रेणी में रखा है – जैसे फार्मा, एनर्जी, इलेक्ट्रॉनिक्स और सेमीकंडक्टर्स।
ट्रंप की अपारदर्शिता और द्वैध नीति
गर्ग ट्रंप की अनिश्चितता की ओर भी ध्यान दिलाते हैं। पहले उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित किया, फिर यूक्रेन से रेयर अर्थ मिनरल्स हासिल कर अपनी नीति बदल ली। अब वह पुतिन को युद्ध रोकने की धमकी दे रहे हैं।
पूर्व सांख्यिकी समिति प्रमुख प्रणब सेन का भी कहना है कि "आज ट्रंप को रूसी तेल से दिक्कत है, कल कुछ और हो सकता है। सुदीप्तो मंडल का सुझाव है कि भारत को और रियायतें देने की बजाय खुद अमेरिका पर टैरिफ बढ़ा देना चाहिए।
आत्मबल और मूक कूटनीति ही समाधान
भारत के पास न पूंजी है, न तकनीक, न अमेरिका के निवेश की क्षमता। ऐसे में आत्मनिर्भरता, घरेलू उद्योग को प्रतिस्पर्धी बनाना और ट्रंप जैसे दबावों का मूक कूटनीति से जवाब देना ही दीर्घकालिक रणनीति हो सकती है।कुल मिलाकर, भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि उसकी विदेश नीति धमकियों पर नहीं, हितों पर आधारित होगी चाहे वह तेल हो, हथियार हों या व्यापार।