भारत और मिस्र की मसाला-यात्रा, खिचड़ी से कोशरी तक का सफर

भारत और मिस्र के बीच मसालों का संबंध तीन हजार साल पुराना है। काहिरा का ख़ान अल-खलीली आज भी भारतीय मसालों की खुशबू, परंपरा और ऐतिहासिक व्यापार की गवाही देता है।

Update: 2025-11-19 01:55 GMT

पुराने काहिरा की तंग, घुमावदार गलियों में बसे मिस्र के सबसे बड़े सूक ख़ान अल-खलीली में हवा हर पल मसालों की खुशबू से महकती रहती है—जीरा (कमून), लौंग (क़ुरुनफ़ेल), हल्दी (कुरकुम), सौंफ (यानसून), तिल (सिमसिम), गुड़हल और दालचीनी (क़िरफ़ा)। 14वीं शताब्दी के अंत से खड़े ये बाजार आज भी उसी सुगंध, उसी आवाज़ और उसी रौनक के साथ जीवित हैं। मोलभाव की आवाज़ें, ठेलों की खड़खड़ाहट, दुकानदारों की पुकार—यह सब किसी भारतीय को बिल्कुल घर जैसा एहसास कराती हैं; अंतर बस भाषा का है।

इस सूक की स्थापना 1382 में अमीर जहार्कस अल-खलीली ने की थी, जिन्होंने इसे उस फ़ातिमी महल-क्षेत्र के हिस्से पर बनाया जो पहले राजवंश का केंद्र था। समय बीतने के साथ काहिरा शाही क़िले से बदलकर एक व्यस्त व्यापारिक महानगर बन गया, और सूक के आसपास की गलियाँ कारीगरों, कबाड़ियों और कारवाँसरायों से भरने लगीं। भारत, लेवांत, भूमध्यसागर और पूर्वी अफ्रीका के व्यापारी इन्हीं रास्तों से आते-जाते थे। आज भी जिन दुकानों में मसाले, धातु-शिल्प, आभूषण और कैफ़े मिलते हैं, वे इन्हीं ऐतिहासिक व्यापार मार्गों की निशानियाँ हैं।

इन्हीं रास्तों से भारतीय व्यापारी सिर्फ मसाले ही नहीं लाए—वे अपने साथ मसालों को उपयोग करने के तरीके, मिश्रण, पिसाई और भूनाई की पूरी परंपरा भी लाए।

काहिरा का व्यावसायिक केंद्र और भारत की मसाला-परंपरा

ख़ान अल-खलीली की दुकानों में आज जो मसाले दिखते हैं, वे भारत से जुड़े उन संबंधों की याद दिलाते हैं जो बाजार से भी पुराने हैं। मसालों की एक पुरानी दुकान में अहमद अल-हरीरी एक सदियों पुराना खाता दिखाते हैं, जिसे उनके परिवार ने पीढ़ियों से संभाल रखा है। वे बताते हैं, “मेरे दादा कहा करते थे कि भारतीय व्यापारी न सिर्फ मसाले बेचते थे, बल्कि हमें उनका उपयोग करना भी सिखाते थे—कैसे जीरे को धनिये के साथ मिलाना है, कैसे साबुत मसालों को भूनकर पीसा जाता है। ये सब भारत से आया।”

आज भी सूक के हर जार में भरी खुशबू में वही विरासत मिलती है। रमज़ान के दौरान बनने वाले मुलुखिया और सयादेया जैसे व्यंजनों के मसाला-मिश्रण के पीछे भी वही भारतीय पद्धतियाँ हैं—भूनना, पीसना और अंत में तड़का लगाना—जो भारत से अलेक्जेंड्रिया और फिर काहिरा तक पहुँचीं।

3,000 साल पुरानी मसाला-यात्रा

भारतीय और मिस्री सभ्यता के बीच मसालों का व्यापार पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व से मिलता है, जब दालचीनी और काली मिर्च भारत और इंडोनेशिया से मिस्र पहुँचती थी। ये व्यापार मार्ग केरल के मालाबार तट और गुजरात के बंदरगाहों से अरब सागर पार करते हुए मिस्र तक जाते थे।काली मिर्च और केसर इस व्यापार की नींव थे—फराओ इनका उपयोग स्वाद, चिकित्सा और प्रतिष्ठा—तीनों कारणों से करते थे।

तमिल व्यापारी और रोमन मिस्र

इतिहासकार रामशरण शर्मा लिखते हैं कि दक्षिण भारत—विशेषकर तमिल प्रदेश—यूनानी-मिस्री और अरब साम्राज्यों के साथ सक्रिय व्यापार करता था।काली मिर्च, मोती, रत्न, मलमल और रेशम—ये सब रोमन साम्राज्य में अत्यधिक कीमत पर बिकते थे। मौसम के बदलाव और मानसून को समझने के कारण तमिल और मलाबार के व्यापारी लाल सागर और मिस्र तक आसानी से यात्रा कर पाते थे। इस व्यापार ने दोनों सभ्यताओं को आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बदल दिया।

मिस्र के व्यंजन और भारतीय छाप

शेराटन काहिरा के एग्जिक्यूटिव शेफ मोहम्मद इमारा के अनुसार:“मिस्र का कोशरी दरअसल भारत के खिचड़ी से आया है। नाम भी मिलता-जुलता है और सामग्री भी। यह समानता संयोग नहीं है—अरब व्यापारी लगभग एक सहस्राब्दी तक भारतीय महासागर से लेकर भूमध्यसागर तक मसालों के व्यापार पर हावी रहे, और भारतीय मसाले मिस्री रसोई का अभिन्न अंग बन गए।

रेड सी के आयधाब और क़ुसेर जैसे बंदरगाह भारतीय मसालों के प्रवेशद्वार बने। मानसून का खतरा, समुद्री डाकू, रेगिस्तानी मार्गों की कठिनाई—इन सबके बावजूद व्यापारी सफ़र करते थे क्योंकि लाभ अत्यधिक था। केसर का मूल्य तो सोने जितना था।

मामलुक युग और ‘करीमी’ व्यापारी

‘द स्पाइस ट्रेड इन मामलुक इजिप्ट’ में वॉल्टर जे. फिशेल लिखते हैं कि 12वीं से 15वीं सदी तक मिस्र, यमन, दक्षिण अरब और भारत के बीच मसालों का व्यापार ‘करीमी’ मुस्लिम व्यापारियों के माध्यम से होता था। भारतीय व्यापारी अपने मसाले यमन भेजते थे, और वहीं से करीमी व्यापारी उन्हें मिस्र तक पहुंचाते थे।अदन बंदरगाह इस व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था।

उस्मानी काल और मसाला-संस्कृति का उत्कर्ष

1517 में ऑटोमन साम्राज्य के आने के बाद भारत-मिस्र मसाला व्यापार चरम पर पहुँचा। काहिरा की कॉफ़ी और रसोई में भारतीय इलायची, दालचीनी और काली मिर्च आम हो गईं।

काहिरा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महमूद हसन बताते हैं: “मिस्री व्यंजन अपने पूर्ण रूप में उसी समय विकसित हुए जब मसालों की आपूर्ति स्थिर और विविध हो गई।” मिस्र का प्रसिद्ध मसाला-मिश्रण बहारत—जिसमें काली मिर्च, लौंग, दालचीनी और इलायची होती है—पूरी तरह भारतीय मसालों पर आधारित है। तड़का लगाने की मिस्री तकनीक भी भारतीय ‘तड़का’ की ही प्रतिछाया है।बलादी ब्रेड में कलौंजी (निजेला सीड्स) का उपयोग इसी व्यापार का प्रमाण है—यह मसाला भी भारत से मिस्र पहुँचा था।

आज भी जीवित है भारत-मिस्र मसाला परंपरा

ख़ान अल-खलीली के दुकानदार मोहम्मद अल-सैयद हंसते हुए कहते हैं: “जब भारतीय ग्राहक पूछते हैं कि मिस्री मसालों का असली तरीका क्या है, तो मैं मुस्कराता हूँ—क्योंकि हमारी मसाला-ज्ञान की जड़ें ही भारत से हैं।” आज भी मिस्री व्यापारी मालाबार और टेलीचरी काली मिर्च के बीच का अंतर पहचानते हैं। ये बताता है कि वैश्वीकरण कोई आधुनिक घटना नहीं—बल्कि उस कहानी का नया अध्याय है, जिसकी शुरुआत तब हुई जब भारतीय जहाज़ पहली बार मानसून की हवाओं के सहारे मिस्र के तटों तक पहुँचे थे।

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