लोकतंत्र में आलोचना राष्ट्रविरोध नहीं, राहुल को मिली राहत लेकिन बहस जारी
सुप्रीम कोर्ट की सच्चा भारतीय टिप्पणी ने राहुल गांधी के मामले को राजनीतिक विवाद में बदल दिया। विपक्ष ने इसे न्यायिक मर्यादा से परे बता रहा है।;
सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ एक मानहानि मामले में सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि एक “सच्चा भारतीय” ऐसे बयान नहीं देता जैसा राहुल ने चीन की घुसपैठ को लेकर दिया था। अदालत ने जहां इस मामले में उनके खिलाफ चल रही कार्यवाही पर रोक लगाई, वहीं उसकी मौखिक टिप्पणी ने पूरे देश में तीखी राजनीतिक बहस को जन्म दे दिया है। खासकर न्यायपालिका की सीमाओं और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार पर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं।
राजनीतिक टकराव को अदालत की टिप्पणी ने और भड़काया। सुप्रीम कोर्ट की दो अहम मौखिक टिप्पणियाँ चर्चा का विषय बनीं-एक “सच्चा भारतीय” ऐसा बयान नहीं देता।राहुल गांधी ने यह मुद्दा संसद में उठाने की बजाय सोशल मीडिया पर क्यों उठाया?
भाजपा और एनडीए ने पहली टिप्पणी को तुरंत अपने पक्ष में भुनाया, क्योंकि यह उनकी पुरानी रणनीति से मेल खाती है। कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी पर सेना को नीचा दिखाने और राष्ट्रविरोधी विचार फैलाने का आरोप लगाना। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भाजपा के नैरेटिव को मजबूती देती दिखी, लिहाज़ा उसने राहुल पर एक और राजनीतिक हमला बोल दिया। इससे दोनों पार्टियों के बीच जारी संघर्ष और तेज़ हो गया।
क्या सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक सीमाएं लांघीं?
क्या सुप्रीम कोर्ट ने "सच्चे भारतीय" जैसी टिप्पणी देकर संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन किया?कानूनी दृष्टिकोण से देखें तो अदालत की टिप्पणी औपचारिक आदेश का हिस्सा नहीं थी, बल्कि सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से कही गई थी। न्यायाधीश अक्सर दलीलों की परीक्षा के लिए सवाल पूछते हैं, लेकिन जब टिप्पणियाँ राजनीतिक रूप से संवेदनशील हों, तो उनके व्यापक असर को समझना ज़रूरी हो जाता है।
यहाँ सवाल जस्टिस दीपांकर दत्ता की मंशा का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि ऐसी टिप्पणियाँ कैसे सार्वजनिक विमर्श को प्रभावित करती हैं। अगर सरकार से सवाल पूछने वाले को “कम देशभक्त” कह दिया जाए, तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक संकेत है और यह पूछना कि विपक्ष का नेता संसद के बाहर क्यों बोल रहा है जब संसद में विपक्ष को लगातार बोलने नहीं दिया जा रहा – तो यह टिप्पणी न्यायिक मर्यादा पर सवाल खड़ा करती है।
‘देशभक्ति का प्रमाणपत्र नहीं दे सकते न्यायालय’
प्रियंका गांधी ने तीखा बयान दिया कि “कोर्ट यह तय नहीं कर सकता कि कौन सच्चा भारतीय है।” इसके बाद पूरा INDIA गठबंधन राहुल गांधी के समर्थन में खड़ा हो गया।विपक्ष का तर्क है कि आज राहुल को निशाना बनाया गया, कल किसी अन्य नेता, पत्रकार या आम नागरिक को भी इसी तरह निशाना बनाया जा सकता है।इतिहास गवाह है कि जब भी सरकार से असहमति जताई गई, कई बार कानूनी हथकंडों का सामना करना पड़ा है।
प्रोफेसर महमूदाबाद मामला इसका हालिया उदाहरण है। इस केस में अदालत ने भले ही ट्रायल पर रोक लगाई हो, लेकिन ‘सच्चा भारतीय’ वाली मौखिक टिप्पणी मीडिया में प्रमुखता से छा गई। यही खतरा है – कि निचली अदालतें इन टिप्पणियों से प्रभावित हो सकती हैं, भले ही वे आदेश का हिस्सा न हों।
INDIA गठबंधन सही तौर पर कह रहा है कि अदालतें यह तय न करें कि देशभक्ति किसकी ज्यादा है – खासकर तब जब कोई नेता सरकार की जवाबदेही तय करने की कोशिश कर रहा हो।
न्यायपालिका और राजनीतिक टिप्पणी: कितनी दूर जा सकती है अदालत?
यह पूरे विवाद का सबसे अहम पहलू है।भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है – हालांकि यह कुछ "उचित प्रतिबंधों" के अधीन है।लेकिन ये प्रतिबंध सेंसरशिप या डर का माहौल पैदा करने के लिए नहीं हैं।जब अदालतें यह कहती हैं कि कोई नेता “कम देशभक्त” है या उसे संसद में बोलना चाहिए था, तो यह judicial overreach कहलाता है।विशेषकर राजनीतिक अभिव्यक्ति लोकतंत्र का मूल तत्व है।कई वरिष्ठ वकीलों और रिटायर्ड जजों ने भी माना कि अदालत की यह टिप्पणी “चिंताजनक” है।
न्यायालयों को अपने आदेशों से बोलने देना चाहिए, न कि मौखिक टिप्पणियों से जिन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है या राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। भाजपा जैसी पार्टियां इस तरह की टिप्पणी को अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करती हैं जिससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता और लोकतांत्रिक बहस दोनों को नुकसान पहुंच सकता है।
लोकतंत्र में आलोचना राष्ट्रविरोध नहीं
राहुल गांधी का अदालत में राहत पाना एक कानूनी विजय थी, लेकिन अदालत की टिप्पणी ने उसकी छाया में इसे दबा दिया। यह मामला अब सिर्फ राहुल गांधी का नहीं रहा यह सवाल है कि क्या अदालतें तय करेंगी कि कौन देशभक्त है और कौन नहीं?
लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना या आलोचना करना ‘राष्ट्रविरोध’ नहीं, बल्कि नागरिक का अधिकार है।
न्यायपालिका की गरिमा उसी में है कि वह राजनीतिक विमर्श से दूर रहे और अपने आदेशों के ज़रिए न्याय दे, न कि टिप्पणी के ज़रिए वैचारिक दिशा तय करे।