दक्षिण भारत के तीन हाई कोर्ट के फैसले, बनें LGBTQ+ समुदाय की उम्मीद?

दक्षिण भारत की हाई कोर्ट्स लगातार सकारात्मक और समावेशी फैसले दे रहे हैं, जिनसे LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों को कानूनी और सामाजिक मान्यता मिल रही है। हालांकि केंद्र स्तर पर कई कानूनी पहल अभी बाकी हैं, फिर भी इन न्यायिक फैसलों ने एक नई बहस और उम्मीद की राह खोल दी है।;

By :  Ritash
Update: 2025-08-07 15:03 GMT

भारत में क्वियर (LGBTIQAP+) व्यक्तियों के लिए “परिवार” की परिभाषा पारंपरिक ढांचे से अलग होती है। उनके लिए एक 'चयनित परिवार' यानी चुना गया परिवार — चाहे वह औपचारिक हो या सांकेतिक — भावनात्मक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक समर्थन का मुख्य स्रोत होता है। यह परिवार जैविक रूप से जुड़ा न होकर भी जीवन में स्थिरता देता है। हालांकि, जैसे हर घरेलू ढांचे में चुनौतियां होती हैं, वैसे ही चयनित परिवार भी अस्थायी हो सकते हैं और कानूनी मान्यता या सुरक्षा हमेशा नहीं मिलती।

ऐसे में दक्षिण भारत के तीन हाई कोर्ट् द्वारा दिए गए हालिया सकारात्मक फैसलों ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को कानूनी पहचान और संरक्षण की दिशा में उम्मीद दी है। इन निर्णयों में कुछ सीमाएं हैं, लेकिन इनका महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि ये परिवार, पहचान और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को पहली बार इस स्पष्टता से संबोधित करते हैं।

मई 2025, मद्रास हाई कोर्ट

कोर्ट ने “चयनित परिवार” की अवधारणा को पुनः मान्यता दी और कहा कि समलैंगिक जोड़े विवाह के बिना भी एक छोटा पारिवारिक इकाई बना सकते हैं।

जून 2025, केरल हाई कोर्ट

फैसले में कहा गया कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति अपने बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र में खुद को “माता” या “पिता” के स्थान पर “अभिभावक” के रूप में दर्ज कर सकते हैं। यह निर्णय लैंगिक पहचान के अधिकार को और मजबूत करता है।

जून 2025, आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट

एक ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने माना कि एक हेट्रोसेक्शुअल विवाह में ट्रांस महिला को भारतीय दंड संहिता की धारा 498A (दहेज प्रताड़ना) के तहत वही कानूनी सुरक्षा मिलनी चाहिए, जो एक सिसजेंडर महिला को प्राप्त है।

घरेलू हिंसा और कानूनी सुरक्षा की खामियां

घरेलू हिंसा (डोमेस्टिक वायलेंस) पारंपरिक या चयनित किसी भी परिवार में एक गंभीर समस्या हो सकती है — यह शारीरिक, मानसिक, यौन, भावनात्मक या आर्थिक रूप में हो सकती है। अब तक भारत के प्रमुख कानून — दहेज निषेध अधिनियम 1961, धारा 498A और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 — केवल सिसजेंडर महिलाओं पर ही लागू माने जाते थे। लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने 2023 में एक ट्रांस महिला को DV अधिनियम के तहत मासिक भरण-पोषण की मंज़ूरी दी थी — हालांकि समुदाय में इसकी जानकारी सीमित रही।

आंध्र हाई कोर्ट का निर्णय

जून 2025 में आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट का निर्णय इसलिए भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह दो बातें स्पष्ट करता है:-

1. ट्रांस महिलाएं भी 'महिला' हैं।

2. वे अपनी वैवाहिक या पारिवारिक संबंधों में हो रही हिंसा के खिलाफ कानूनी सुरक्षा की हकदार हैं।

यह निर्णय नालसा बनाम भारत सरकार (2014) के सुप्रीम कोर्ट फैसले की याद दिलाता है, जिसमें ट्रांसजेंडर पहचान को एक वैध जेंडर के रूप में मान्यता दी गई थी और आत्म-परिभाषा का अधिकार सुनिश्चित किया गया था।

वैधता की ओर बढ़ता कदम

🔹 2019 में मद्रास हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ट्रांस व्यक्ति किसी के साथ भी विवाह दर्ज कर सकते हैं।

🔹 मई 2025 का मद्रास हाई कोर्ट का फैसला समलैंगिक रिश्तों को पारिवारिक इकाई के रूप में मान्यता देता है — जो विवाह समानता की दिशा में बड़ी पहल मानी जा रही है।

🔹 जून 2025 में केरल हाई कोर्ट का “माता-पिता की पहचान” वाला फैसला इस दिशा में और आगे का कदम है।

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