अर्थशास्त्री जीन ड्रेज़ की चेतावनी; VB-G RAM G बिल रोज़गार गारंटी को खत्म करता है
MGNREGA में एक बड़ा बदलाव होने वाला है क्योंकि एक नया बिल पावर को केंद्र सरकार को सौंप रहा है। अर्थशास्त्री जीन ड्रेज़ बताते हैं कि राज्यों और मज़दूरों को अब होने वाले बदलावों के बारे में क्यों चिंता करनी चाहिए।
MGNREGA To VB-G RAM G : महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) को खत्म कर उसकी जगह नए VB-G RAM G बिल को लाने की तैयारी ने देशभर में राजनीतिक और नीतिगत बहस तेज कर दी है। इस प्रस्तावित कानून को लेकर अर्थशास्त्री जीन द्रेज ने गंभीर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि यह बिल न सिर्फ रोजगार की कानूनी गारंटी को कमजोर करता है, बल्कि राज्यों पर आर्थिक बोझ डालते हुए देश की संघीय व्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाता है।
‘द फेडरल’ से बातचीत में जीन द्रेज ने साफ शब्दों में कहा कि इस बिल का सबसे बड़ा खतरा उसका ढांचा है, न कि सिर्फ नाम बदलना। उनके मुताबिक, सरकार इस बदलाव को सुधार या पुनर्गठन बता रही है, जबकि असल में यह MGNREGA को खत्म करने जैसा है।
नाम बदलना असली मुद्दा नहीं
MGNREGA से महात्मा गांधी का नाम हटाने को लेकर उठे विवाद पर जीन द्रेज कहते हैं कि यह एक “रेड हेरिंग” यानी ध्यान भटकाने वाला मुद्दा है। उनके अनुसार नाम बदलना अनावश्यक है और यह कानून की गैर-दलीय प्रकृति को कमजोर करता है, लेकिन असली खतरा कानून की आत्मा से छेड़छाड़ है।
द्रेज के मुताबिक, VB-G RAM G बिल महज नाम बदलने या सुधार का मामला नहीं है। यह सीधे तौर पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को निरस्त करता है। बिल की धारा 37 के तहत मौजूदा कानून को पूरी तरह खत्म कर दिया जाता है।
गारंटी की जगह केंद्र-नियंत्रित योजना
नए बिल के तहत रोजगार गारंटी कानून की जगह एक केंद्रीय प्रायोजित योजना लाई जा रही है। जीन द्रेज बताते हैं कि इस योजना को लागू करना पूरी तरह केंद्र सरकार के विवेक पर होगा। केंद्र तय करेगा कि योजना कहां लागू होगी, कब लागू होगी और कितनी लागू होगी।
उनका कहना है कि यह रोजगार की गारंटी के मूल विचार के खिलाफ है। अगर सरकार यह कहे कि काम की गारंटी है, लेकिन यह भी तय नहीं है कि योजना चलेगी या नहीं, तो इसे गारंटी नहीं कहा जा सकता।
राज्यों पर बढ़ेगा आर्थिक बोझ
द्रेज के अनुसार, इस बिल के तहत केंद्र सरकार को राज्यों को मिलने वाली वित्तीय मदद पर पूरा नियंत्रण मिल जाएगा। केंद्र तय करेगा कि किस राज्य को कितना पैसा मिलेगा। इसके बाद अगर कोई राज्य अतिरिक्त रोजगार देना चाहता है, तो उसे पूरा खर्च खुद उठाना होगा।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अगर केंद्र यह तय कर ले कि केरल को रोजगार गारंटी की जरूरत नहीं है, तो वह वहां फंडिंग रोक सकता है। ऐसे में केरल को पूरी योजना अपने पैसे से चलानी पड़ेगी। अमीर राज्य शायद यह कर सकें, लेकिन गरीब राज्यों के लिए यह लगभग असंभव होगा।
कानूनी गारंटी खत्म होने का खतरा
जीन द्रेज मानते हैं कि यह बिल MGNREGA की सबसे बड़ी ताकत - कानूनी गारंटी को खत्म कर देता है। उन्होंने याद दिलाया कि 20 साल पहले जब यह कानून बन रहा था, तब भी केंद्र सरकार चाहती थी कि वह तय करे कि योजना कहां लागू होगी। उस प्रस्ताव का विरोध हुआ और उसे हटाया गया। यही वजह थी कि कानून में “दांत” थे।
अब वही दांत फिर से निकाल दिए गए हैं। उनके मुताबिक यह सुधार नहीं, बल्कि कानून को कमजोर करने की कोशिश है।
किस तरह के सुधार जरूरी थे
द्रेज कहते हैं कि वे कानून में बदलाव के खिलाफ नहीं हैं। उनका साफ कहना है कि इस बिल को रद्द किया जाना चाहिए और फिर वास्तविक सुधारों पर बातचीत होनी चाहिए।
उनके अनुसार, इस बिल में कोई रचनात्मक प्रावधान नहीं है। इसमें सिर्फ पाबंदियां हैं—केंद्र की मनमानी, फंडिंग में कटौती, व्यस्त कृषि सीजन में काम रोकना और मजदूरों को हर तीन साल में जॉब कार्ड रिन्यू कराने जैसी शर्तें।
125 दिन काम का दावा भी भ्रामक
सरकार के इस दावे पर कि काम के दिन 100 से बढ़ाकर 125 कर दिए गए हैं, जीन द्रेज इसे भी भटकाने वाला तर्क बताते हैं। उनका कहना है कि आज की स्थिति में भी सिर्फ करीब 2 फीसदी ग्रामीण परिवार ही 100 दिन का काम पूरा कर पाते हैं।
ऐसे में 125 दिन का दावा सिर्फ कागज़ी है। ऊपर से जब वित्तीय मदद ही घटा दी जाए, तो यह वादा और भी खोखला हो जाता है।
₹55 हजार करोड़ का बोझ
द्रेज बताते हैं कि खुद सरकार के वित्तीय ज्ञापन में माना गया है कि इस बिल से राज्यों पर करीब ₹55 हजार करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। खासकर गरीब राज्यों के लिए 40 फीसदी खर्च उठाना भी बेहद मुश्किल होगा।
कभी प्रभावी रहा था MGNREGA
यूपीए सरकार के दौरान सलाहकार परिषद के सदस्य रहे जीन द्रेज का कहना है कि एक समय ऐसा था जब MGNREGA वास्तव में असरदार था। 2011-12 के आंकड़े दिखाते हैं कि योजना के तहत पैदा हुआ रोजगार वास्तविक था।
करीब आधे मजदूर महिलाएं थीं और बड़ी संख्या में एससी-एसटी समुदाय के लोग लाभान्वित हुए। रोजगार बढ़ने से बाजार की मजदूरी दरों में भी इजाफा हुआ।
2013 के बाद गिरावट
द्रेज के अनुसार, 2013-14 के बाद योजना कमजोर होती चली गई। अत्यधिक तकनीकी जटिलताएं, फंड की कमी और भ्रष्टाचार पर कार्रवाई न होने से स्थिति बिगड़ती गई।
सिर्फ विपक्षी राज्यों की चिंता नहीं
जीन द्रेज ने साफ कहा कि यह बिल सिर्फ विपक्ष शासित राज्यों की समस्या नहीं है। केंद्र के सहयोगी दलों द्वारा शासित राज्यों को भी इसका विरोध करना चाहिए।
उनके मुताबिक, यह बिल सारी जिम्मेदारी राज्यों पर डाल देता है, जबकि केंद्र सारी ताकत अपने पास रखता है और जवाबदेही से बच निकलता है।
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