RSS के 100 साल: हिंदुत्व की राजनीति पर कैसे पड़ा इटली के फासीवाद का असर?
प्रो. कैसोलारी के शोध से यह साफ होता है कि इटली के फासीवाद और भारतीय हिंदू राष्ट्रवाद के बीच ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। इन वैश्विक विचारधाराओं को भारतीय धरातल पर इस तरह से ढाला गया कि उन्होंने संगठनात्मक ढांचे, युवा प्रशिक्षण और राजनीतिक रणनीति पर दीर्घकालिक प्रभाव डाला, जिसकी छाप आज भी देखी जा सकती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) जब अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है, तब The Federal ने इटली की जानी-मानी विद्वान और इतिहासकार प्रोफेसर मार्ज़िया कैसोलारी (Marzia Casolari) से खास बातचीत की है। इस बातचीत में उन्होंने भारतीय हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति और 1930 के दशक के यूरोपीय फासीवाद के बीच गहरे संबंधों को उजागर किया है।
प्रोफेसर कैसोलारी के अनुसार, बीएस मुंजे, जो उस समय हिंदू महासभा के प्रमुख नेता थे, उन्होंने 1931 में लंदन में आयोजित राउंड टेबल सम्मेलन में भाग लेने के बाद इटली का दौरा किया था। इस दौरान उन्होंने तत्कालीन फासीवादी तानाशाह बेनीटो मुसोलिनी से मुलाकात की और इटली के सैन्य प्रशिक्षण केंद्रों और युवाओं के लिए बने उग्र राष्ट्रवादी संगठनों जैसे बालिल्ला और अवंत गार्ड RSI का निरीक्षण किया।
इन संगठनों में युवा वर्ग को अर्धसैन्य शैली में अनुशासन और फासीवादी विचारधारा का प्रशिक्षण दिया जाता था। मुंजे इस मॉडल से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लिखा कि वे RSS को इसी तरह के ढांचे में ढालना चाहते हैं, ताकि हिंदू समाज को सैन्य दृष्टि से सक्षम बनाया जा सके और समाज का "हिंदूकरण" किया जा सके।
हेडगेवार पर मुंजे के अनुभवों का असर
प्रोफेसर कैसोलारी बताती हैं कि बीएस मुंजे, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के राजनीतिक गुरु माने जाते हैं। इटली से लौटने के बाद मुंजे ने महाराष्ट्र में भोंसला मिलिट्री स्कूल की स्थापना में मदद की। इस स्कूल का उद्देश्य हिंदू युवाओं को न केवल सैन्य प्रशिक्षण देना था, बल्कि उन्हें वैचारिक रूप से भी संगठित करना था — ठीक वैसा ही जैसा मुंजे ने इटली में देखा था। RSS के शुरुआती वर्षों में यह "सैन्यीकरण और हिंदूकरण" की दोहरी रणनीति, संगठन की मूल सोच और गतिविधियों का अहम हिस्सा बन गई।
यह ऐतिहासिक शोध बताता है कि कैसे वैश्विक फासीवादी विचारधाराएं भारतीय संदर्भ में ढलकर संगठनों की संरचना, कार्यप्रणाली और वैचारिक प्रशिक्षण में शामिल की गईं। RSS के 100 वर्षों की यात्रा में ये शुरुआती प्रेरणाएं आज भी इसके दर्शन और अनुशासन में झलकती हैं।
भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं के इटली के फासीवादियों से संबंध
प्रो. कैसोलारी बताती हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर ने 20वीं सदी की शुरुआत में इटली का दौरा किया था। हालांकि, टैगोर शांति के पक्षधर थे, लेकिन इटली के विद्वानों कार्लो फोर्मीकी और जुसेप्पे तुच्ची ने उनकी यात्रा का उपयोग फासीवादी प्रचार के लिए किया और उन्हें ऐसे प्रस्तुत किया जैसे वे फासीवाद का समर्थन कर रहे हों। यह रणनीति इटली की उस नीति का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य भारतीय बुद्धिजीवियों पर प्रभाव डालना और ब्रिटिश साम्राज्य की पकड़ को कमजोर करना था।
जुसेप्पे तुच्ची की भारत में भूमिका
जुसेप्पे तुच्ची, इटली के एक प्रमुख विद्वान थे, जिनकी यात्राओं को इटली सरकार द्वारा वित्तपोषित किया गया था। उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय* में नियुक्त किया गया था। भारत में उन्होंने फासीवाद को बढ़ावा दिया और युवा भारतीय बुद्धिजीवियों के बीच नेटवर्क बनाना शुरू किया, ताकि स्थानीय स्तर पर फासीवादी विचारधारा के समर्थक तैयार किए जा सकें। यह इटली की ब्रिटेन-विरोधी रणनीति का हिस्सा था, जो भारत और पश्चिम एशिया में लागू की जा रही थी।
इटली के वाणिज्य दूतावास ने भारत में फासीवादी प्रचार को बढ़ावा दिया?
ब्रिटिश शासन के दौरान इटली ने भारत में दूतावास नहीं, बल्कि वाणिज्य दूतावास (कॉन्सुलेट) चलाए। कोलकाता स्थित दूतावास ने अमृत बाजार पत्रिका जैसी भारतीय समाचार पत्रों को वित्तीय सहायता दी, ताकि फासीवादी विचारधारा का प्रचार किया जा सके। बाद में मुंबई भी ऐसा ही केंद्र बना। ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों से अवगत थी, लेकिन उसके पास निर्णायक कार्रवाई के लिए पुख्ता सबूत नहीं थे। हालांकि, कुछ दूतावास अधिकारियों को निष्कासित किया गया।
क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भी इटली के फासीवादियों से संपर्क थे?
सुभाष चंद्र बोस ने कई बार इटली की यात्रा की थी। 1933 में उन्होंने रोम में कांग्रेस ऑफ एशियन स्टूडेंट्स का आयोजन भी किया। वे जियोवानी जेन्टाइल के संरक्षण में चलने वाले इंस्टीट्यूट फॉर द मिडल एंड एक्सट्रीम ओरिएंट से जुड़े थे, जो इटली के फासीवादी प्रचार का प्रमुख केंद्र था। मुसोलिनी को उम्मीद थी कि बोस और उनकी आजाद हिंद फौज (INA) भारत से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने में मदद करेंगे। हालांकि, नाजी जर्मनी से बोस को सीमित समर्थन मिला। क्योंकि वहां नस्लीय भेदभाव की सोच प्रबल थी।
क्या सुभाष चंद्र बोस फासीवादी विचारधारा के समर्थक थे?
प्रो. कैसोलारी स्पष्ट करती हैं कि बोस पूर्ण रूप से फासीवादी नहीं थे। उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए फासीवादी ताकतों से रणनीतिक सहयोग किया, लेकिन उनका लक्ष्य फासीवादी शासन लागू करना नहीं था। वे समाजवाद और राष्ट्रवाद का मिश्रण लेकर चल रहे थे और उनकी मुख्य प्राथमिकता ब्रिटिश शासन को समाप्त करना थी।
क्या आज के हिंदुत्व संगठनों में दिखता है फासीवादी प्रभाव?
प्रो. कैसोलारी का कहना है कि वर्तमान में कई हिंदुत्व संगठन यूरोपीय फासीवादी रणनीतियों की नकल करते दिखाई देते हैं। विशेषकर अल्पसंख्यकों पर हमले, संगठनात्मक अनुशासन और प्रचार तकनीकें ऐसी हैं, जो फासीवादी संगठनों से मिलती-जुलती हैं। मुस्लिम और ईसाई समुदायों को हाशिए पर लाने की कोशिशें भी फासीवादी शैली की याद दिलाती हैं।
क्या भारत का इज़राइल को समर्थन एक विरोधाभास नहीं है?
इस प्रश्न पर प्रो. कैसोलारी कहती हैं कि हमें यह समझना होगा कि यहूदी और आधुनिक ज़ायनिज्म दो अलग चीजें हैं। आधुनिक दक्षिणपंथी ज़ायनिज्म में भी फासीवादी तत्व दिखाई देते हैं — जैसे कि राष्ट्रवादी उग्रता और विपक्ष को दबाने की नीति। भारत का इज़राइल के साथ सहयोग राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है और यह ऐतिहासिक हिंदुत्व विचारधारा से टकराव नहीं पैदा करता।