क्या उर्दू सिर्फ मुसलमानों की है? किताब ने तोड़े रूढ़ि के दायरे
इतिहासकार जलील ने उर्दू को एक धार्मिक भाषा मानने के मिथक को ध्वस्त किया है और गैर-मुस्लिम लेखकों की उर्दू कहानियों के अपने संकलन के माध्यम से इसे एक साझा भारतीय विरासत के रूप में पुनः स्थापित किया है।;
समकालीन भारत में उर्दू को अक्सर एक धर्म या समुदाय से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन लेखिका और इतिहासकार रक्षंदा जलील अपनी नई किताब “Whose Urdu Is It Anyway?” के जरिए इस सीमित सोच को चुनौती देती हैं। इस किताब में उन्होंने ग़ैर-मुस्लिम लेखकों द्वारा लिखी गई उर्दू कहानियों का संकलन किया है। The Federal के नीलांजन मुखोपाध्याय से "Off the Beaten Track" में हुई इस विशेष बातचीत में रक्षंदा जलील ने भाषा की राजनीति, सोशल मीडिया से उपजे पूर्वग्रह, और उर्दू साहित्य की गहराई पर विस्तार से चर्चा की।
क्या उर्दू सिर्फ भारतीय मुसलमानों की भाषा है?
रक्षंदा जलील का सीधा उत्तर है बिल्कुल नहीं। वो कहती हैं, “ये बात जितनी बार कही जाए कम है। कई लोगों ने ये कोशिश की है, लेकिन मुझे लगा कि इसके लिए तथ्यात्मक प्रमाण जरूरी हैं। इसी वजह से मैंने उन 16 लेखकों की कहानियों को चुना जो मुसलमान नहीं हैं। वो आगे कहती हैं, “मेरी पीढ़ी सार्वजनिक रूप से किसी को मुस्लिम या गैर-मुस्लिम कहने से असहज महसूस करती है। मैं उन्हें बस ‘उर्दू लेखक’ कहना पसंद करती। लेकिन आज यह बात जोर देकर कहनी पड़ती है, इसलिए मैंने किताब के सबटाइटल में ‘ग़ैर-मुस्लिम’ शब्द का प्रयोग किया – यह आसान नहीं था, लेकिन जरूरी था।
सोशल मीडिया और उर्दू के प्रति पूर्वाग्रह
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां तथ्यों से ज्यादा स्टीरियोटाइप्स (रूढ़ धारणाएं) प्रभावशाली हो गए हैं। व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म से फैलने वाली गलत धारणाएं व्यापक रूप ले चुकी हैं।उर्दू को लंबे समय से इस्लाम से, और हिंदी को हिंदू धर्म से जोड़कर देखा गया है। जो बातें कभी हाशिये पर थीं, वो आज मुख्यधारा बन गई हैं – चाहे वो भाषा हो, राष्ट्रवाद या जेंडर से जुड़े मुद्दे।“अब फूल, रंग और कपड़े तक को धर्म से जोड़ा जा रहा है,” रक्षंदा कहती हैं। “उर्दू भी इसी गलत सूचना की आंधी का शिकार बनी है।”
एक कहानी पर ऑनलाइन बवाल
रक्षंदा बताती हैं कि जब Scroll.in ने कन्हैयालाल कपूर की 1950 के दशक में लिखी गई व्यंग्यात्मक कहानी "मैंने अपना भारतीयकरण कर लिया है" प्रकाशित की, तो 200 से ज्यादा प्रतिक्रियाएं आईं जिनमें से ज़्यादातर बिना कहानी पढ़े ही आक्रोशित थीं।“लोगों ने सिर्फ एक शीर्षक देखकर मान लिया कि उनकी देशभक्ति पर हमला हुआ है। जबकि कहानी असल में कृत्रिम राष्ट्रवाद की आलोचना करती है, न कि देश की।
वो बताती हैं कि उन्हें अक्सर सिर्फ उर्दू को प्रमोट करने पर ट्विटर पर “पाकिस्तान चले जाओ” जैसे कमेंट मिलते हैं। “पर उर्दू तो हिंदुस्तानी भाषा है, रक्षंदा कहती हैं। “उसे मनाना किसी को चुभता क्यों है?
मुसलमानों के भीतर भी उर्दू को लेकर पूर्वाग्रह?
रक्षंदा का मानना है कि मुसलमानों में हिंदी को लेकर कोई खास विरोध नहीं है। वो बताती हैं कि “पूर्वी उत्तर प्रदेश में मैंने किसी को हदीस (इस्लामी शिक्षाएं) हिंदी में छपी किताब से पढ़ते देखा। इसका मतलब है कि भाषाई बदलाव हो रहा है। हालांकि कुछ मुसलमान उर्दू को अपनी एकमात्र सांस्कृतिक विरासत मानकर रक्षात्मक रवैया दिखाते हैं।
“जब मैंने फेसबुक पर पोस्ट डाली, तो कई मुस्लिम कॉमेंट्स आए कि मैं ‘उनकी भाषा’ छीन रही हूं। उनका मानना है कि यह भावना भी पहचान की राजनीति से जुड़ी हुई है। वो जोर देती हैं “उर्दू कभी भी किसी एक की नहीं रही। इसका दायरा उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक फैला रहा है। दक्खिनी कवियों ने भी उर्दू को समृद्ध किया है।”
सिर्फ “इश्क की भाषा” कहना कितना सही?
“उर्दू को सिर्फ प्रेम और शायरी की मीठी भाषा कहना वैसा ही है जैसे किसी खूबसूरत महिला को गंभीरता से न लेना,” रक्षंदा कहती हैं।यह उर्दू के साथ अन्याय है। हां, इसमें अद्भुत प्रेम कविता है, लेकिन इसमें राजनीतिक ताक़त भी है। उर्दू ने क्रांति, जाति, वर्ग और पितृसत्ता जैसे मुद्दों को गहराई से उठाया है। “इंकलाब ज़िंदाबाद” का नारा हसरत मोहानी जैसे उर्दू कवि ने दिया था।
भारत में मुस्लिम भाषाई पहचान की विविधता
रक्षंदा बताती हैं, “हर मुसलमान को उर्दू जानना चाहिए – ऐसी अपेक्षा गलत और अपमानजनक है। पश्चिम बंगाल, केरल, कश्मीर हर जगह के मुसलमान अपनी क्षेत्रीय भाषा में रचे-बसे हैं। वो कहती हैं कि “कॉर्पोरेट कार्यालयों में विदाई के समय, जब कोई मुसलमान होता है तो उससे अक्सर कहा जाता है, ‘कोई शेर सुनाओ।’ यह निर्दोष लग सकता है, लेकिन भीतर से भेदभावपूर्ण है।”
उर्दू गद्य को कम लोकप्रियता क्यों?
कविता को याद रखना, दोहराना और साझा करना आसान है इसलिए शायरी लोकप्रिय रही। लेकिन उर्दू लिपि पढ़ने में कमी आने से गद्य सीमित हो गया।हालांकि हिंदी में देवनागरी रूपांतरण से इसे नया जीवन मिला है। लेकिन आज भी असंख्य कहानियाँ छुपी हुई हैं। रक्षंदा मानती हैं कि अनुवाद और संकलन ऐसे खजाने को सामने लाने में अहम हैं।
सिनेमा और उर्दू
“जब अन्य मंचों ने उर्दू को छोड़ दिया था, तब हिंदी सिनेमा ने इसे ज़िंदा रखा। कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, गुलज़ार और जावेद अख्तर जैसे गीतकारों ने उर्दू को आम लोगों तक पहुँचाया।फ़िल्मी गानों के ज़रिए उर्दू चाय की दुकानों से लेकर घरों तक पहुँची। जब नेहरू ने ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ का आह्वान किया, तो उसी विचार को गीत में ढालने का काम इन गीतकारों ने किया। अब भी Dastangoi जैसे कार्यक्रमों और The Wire जैसे मीडिया फेस्टिवल्स ने उर्दू को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का काम किया है।
किताब में शामिल कहानियों का चयन
रक्षंदा बताती हैं कि उन्होंने प्रेमचंद और मंटो जैसे बड़े नामों को छोड़ दिया, क्योंकि वे पहले ही बहुत anthologized हो चुके हैं। वो कहती हैं महेंद्रनाथ की कहानी A Cup of Tea – एक अविवाहित जोड़ा 12 साल साथ रहता है, शादी के बाद रिश्ते में नया रूप आता है। राजिंदर सिंह बेदी की कहानी – एक झाँकने वाला व्यक्ति, कैसे एक विशेष बच्चे की माँ की सेवा में लग जाता है। दीपक बुडकी (एक कश्मीरी पंडित) की कहानी – घाटी में छोड़े गए उजड़े घरों की यादें।गुलज़ार की कहानी – रामलीला और मुहर्रम के समय communal तनाव पर। रीनू बेहल की कहानी – पंजाब में कन्या भ्रूण हत्या जैसे ज्वलंत मुद्दे हैं।
बंटवारे के दर्द की प्रतिस्पर्धा से परहेज़
रक्षंदा स्पष्ट कहती हैं – “मैं competitive victimhood में यकीन नहीं रखती। कई कहानियाँ विभाजन के दौरान एक पक्ष के दुःख को दूसरे से ऊपर रखती हैं।वो संतुलित और मानवीय दृष्टिकोण चाहती हैं।सुरेंद्र प्रकाश की कहानी गोदान के बाद की किसान की दशा को दिखाती है। देवेंद्र बिसार की कहानी –एक शवगृह में बैठी आधुनिक बेचैनी को दिखाती है।
आख़िर में, क्या है इस किताब की उम्मीद?
“मैं चाहती हूं कि यह किताब उस धारणा को तोड़े कि उर्दू सिर्फ मुसलमानों की है या सिर्फ शायरी की भाषा है।”जब तक हम उर्दू को एक धर्म या समुदाय से जोड़ते रहेंगे, हम उसकी वास्तविक समृद्धि नहीं समझ पाएंगे। ये कहानियाँ दिखाती हैं कि उर्दू जनता की भाषा है जाति, धर्म और भौगोलिक सीमाओं से परे।अगर कोई इन कहानियों को खुले दिल से पढ़े, तो शायद वो भाषा, संस्कृति और पहचान को देखने का नज़रिया बदल सके।और यही इस किताब की असल उम्मीद है।