सैकेंड-हैंड कारणों से बढ़ रहा है फेफड़ों का कैंसर, जागरूकता से बचाव
भारत सहित कई देशों में युग, लिंग एवं सामाजिक पृष्ठभूमि बदल चुकी है। लगभग हर तबके के नॉन-स्मोकर अब लंग कैंसर के दायरे में आ रहे हैं...
फेफड़ों के कैंसर का मुख्य कारण अब तक धूम्रपान यानी स्मोकिंग को ही माना जाता था। अर्थात एक आम धारणा रही है कि जो लोग स्मोकिंग अधिक करते हैं, उनमें लंग कैंसर अधिक होता है। लेकिन अब स्मोकर्स (smoker) ही नहीं बल्कि कभी सिगरेट ना पीने वाले लोग भी फेफड़ों के कैंसर का तेजी से शिकार हो रहे हैं। और इसके कारण सीधे ना होकर सैकेंड-हैंड हैं!कैसे? इस बारे में विस्तार से जानें...
पूरे विश्व के आंकड़ों पर ध्यान दें तो कैंसर से पीड़ित दुनिया का लगभग हर पांचवा व्यक्ति(अर्थात 20-25%) फेफड़ा-कैंसर की समस्या से प्रभावित हो रहा है। चिंता की बात यह है कि इनमें ऐसे लोगों की संख्या अधिक है, जिन्होंने कभी तंबाकू का सेवन नहीं किया।
भारत सहित कई देशों में युग, लिंग एवं सामाजिक पृष्ठभूमि बदल चुकी है। युवा, मध्यम आयु की महिलाएं, शहरों में रहने वाली आबादी, लगभग हर तबके के नॉन-स्मोकर अब लंग कैंसर के दायरे में आ रहे हैं।
इन बदलती हुई स्थितियों में डॉक्टर्स अब सिर्फ “क्या आप धूम्रपान करते थे?” पूछकर संतुष्ट नहीं होते। क्योंकि सवाल अब यह है कि आप दैनिक जीवन में किन-किन जहरीले या हानिकारक तत्वों के संपर्क में हैं।
बढ़ले लंग कैंसर के कारण
धूम्रपान छोड़ देने से या न करने से भी फेफड़ा-कैंसर की संभावना कम या अधिक नहीं होती। इसके पीछे कई अन्य पहलू हो सकते हैं जिन पर अब ध्यान देना आवश्यक है...
वायुप्रदूषण (Outdoor Air Pollution): शहरों में बढ़ती भीड़-भाड़, वाहन धुआं, उद्योगों से निकलने वाला धुआं और गैसेज़, निर्माण कार्यों से निकलने वाला धूल-चूना-सीमेंट- धुआं। इनसे जहरीले सूक्ष्म कण (जैसे PM2.5) हवा में बढ़ने लगते हैं। जब हम दैनिक जीवन में इन्हें सांस के माध्यम से अंदर खींचते हैं तो फेफड़ों में धीरे-धीरे सूजन होने लगती है। कोशिकाओं में डीएनए स्तर पर क्षति होती है, जो आगे चलकर कैंसर को जन्म दे सकती है।
घर के अंदर का प्रदूषण (Indoor Exposure): बहुत से लोग खाना पकाने, गर्म पानी लेने या अन्य घरेलू कामों के दौरान गैस, कंडू आदि जीवाश्म ईंधन (biomass/coal/wood) का उपयोग करते हैं, जिससे निकलने वाला धुआं घर के वायुमंडल में जमा हो जाता है। यदि वेंटिलेशन कम हो तो उन जहरीले पदार्थों का दीर्घकालीन संपर्क फेफड़ों पर पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त घर में रैडॉन गैस (प्राकृतिक रेडियोधर्मी गैस) भी प्रवेश कर सकती है, जो फेफड़ा-कैंसर के ज्ञात कारणों में मानी जाती है।
पैसिव स्मोकिंग (Passive / Second-hand Smoke): भले ही आप सिगरेट न पीएं। लेकिन अगर आपके आसपास कोई नियमित रूप से ऐसा करता है तो स्मोकिंग से निकलने वाला धुआं आपके फेफड़ों को कैंसर की ओर धकेलता है।
व्यावसायिक व औद्योगिक जोखिम (Occupational / Environmental Hazards): कुछ ऐसे स्थानों पर काम करना, जहां लगातार धुआं-धूल या हानिकारक गैसेज़ हर समय रहती हैं, ये कारण भी फेफड़ों की मांसपेशियों को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। इस स्थिति में आप सीधे स्मोकिंग नहीं करते लेकिंग फेफड़ों में कैंसर पैदा करने वाले कण और कारण सांस के माध्यम से शरीर के अंदर जा रहे होते हैं।
आनुवंशिक व मॉलिक्यूलर कारक (Genetics & Molecular Factors): अलग-अलग शोधों में यह पाया गया है कि कई नॉन-स्मोकर मरीजों में फेफड़ा-कैंसर के पीछे विशेष जीन परिवर्तन (mutations) जैसे EGFR mutation, ALK mutation, ROS1 mutation आदि देखे गए हैं। ये म्यूटेशन फेफड़ा-कोशिकाओं को अस्थिर बना देते हैं, जिससे वे बिना किसी बाहरी कारण के ही अनियंत्रित रूप से विकसित होकर कैंसर बना सकती हैं।
पिछली फुफ्फुसीय बीमारी, जीवनशैली और अन्य कारक: लंबे समय से चली आ रही फेफड़ों की पुरानी बीमारियां भी इस समस्या का कारण बन सकती हैं। फिर भले ही ये समस्याएं धूम्रपान-संबंधित न हों। लेकिन अगर ये सांस लेने की क्षमता कम करती हैं तो इनसे भी लंग कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। साथ ही, निष्क्रिय जीवनशैली, अस्वास्थ्यकर आहार, प्रदूषित वातावरण में बार-बार रहने से फेफड़ों की रक्षा क्षमता घट सकती है।
भ्रांति और गलत धारणा
समाज में यह धारणा गहरी पैठ चुकी थी कि फेफड़ों का कैंसर केवल सिगरेट, बीड़ी, हुक्का और तंबाकू लेने के अन्य कारणों से ही होता है। इसलिए जब कोई धूम्रापान नहीं करता और फिर भी लंग कैंसर हो जाता है, तब लोग और कभी-कभी चिकित्सक भी मान लेते हैं कि ये सही इलाज ना मिलने, ठंड लगने या टीबी के कारण होने वाले लक्षण हैं।
इस गलत धारणा (भ्रम) के कारण नॉन-स्मोकर मरीजों का निदान अक्सर देर से होता है। उन्हें सही जांच-पड़ताल, समय पर स्कैन या बायोप्सी नहीं मिल पाती। इस सबके चलते, जब तक बीमारी का पता चलता है तब तक कई बार कैंसर पहले ही बहुत अधिक बढ़ चुका होता है।
जागरूकता और बचाव
अब जब यह स्पष्ट हो गया है कि फेफड़ों का कैंसर सिर्फ धूम्रपान से ही नहीं होता तो हमें अपनी सोच, जीवनशैली व वातावरण, तीनों में बदलाव लाना होगा। जैसे, जहां वायु की गुणवत्ता सही ना हो, उस स्थान पर अधिक समय रहने से बचें और मास्क का उपयोग करें।
घर में खाना पकाते समय अच्छी वेंटिलेशन रखें, जीवाश्म ईंधन व खुली ज्वलन सामग्री (wood, coal, kandu आदि) का उपयोग सीमित करें। रैडॉन गैस जैसी प्राकृतिक गैसों के लिए समय-समय पर वायु-गुणवत्ता जांच कराएं।
स्मोकर्स से जितना संभव हो अधिर से अधिर दूर रहें। यदि कोइ परिवार या घर में धूम्रापन करता है तो प्रयत्न करें कि धुआं घर के अंदर न रहे।
यदि आप प्रदूषित क्षेत्र में रहते हैं या काम करते हैं या किसी रसायन/प्रदूषण के संपर्क में आते हैं तो समय-समय पर फेफड़ा-स्वास्थ्य की जांच (जैसे low-dose CT scan, डॉक्टर से सुझाव पर) करवाएं।
स्वस्थ जीवनशैली अपनाएं और इसके लिए नियमित शारीरिक गतिविधि करें, संतुलित व प्राकृतिक आहार लें, धूम्रापान या जहरीली आदतों से बचें ताकि फेफड़ों की रक्षा क्षमता बनी रहे।
कुल मिलाकर लंग कैंसर, अब सिर्फ धूम्रापन करने वालों की बीमारी नहीं रही। बदलते पर्यावरण, जीवनशैली, वायुमंडलीय प्रदूषण, आनुवंशिक प्रवृत्तियों इत्यादि के प्रभाव को मिलाकर इन सबका मिला-जुला असर इस बीमारी को समाज में फैला रहा है। अगर हम सजग हों, जागरूक हों और रोकथाम को प्राथमिकता दें तो यह बीमारी अपने आप सीमित हो जाएगी।
डिसक्लेमर- यह आर्टिकल जागरूकता के उद्देश्य से लिखा गया है। किसी भी सलाह को अपनाने से पहले डॉक्टर से परामर्श करें।