नीति बनाम पहचान: 2025 का बिहार चुनाव तय करेगा लोकतंत्र की दिशा

2025 का बिहार चुनाव जाति, महिला कल्याण और प्रवासन जैसे तीन मोर्चों पर लोकतंत्र की नई परिभाषा लिख रहा है। यह तय करेगा, जनता अब किस नीति पर भरोसा करती है।

Update: 2025-11-10 12:32 GMT

2025 का बिहार विधानसभा चुनाव कोई साधारण राज्य चुनाव नहीं है। यह भारत के लोकतांत्रिक जीवन में तीन बड़े बदलावों पर एक तरह का जनमत-संग्रह है पहला, जाति का पुनरागमन केवल चुनावी पहचान के रूप में नहीं, बल्कि नीति-निर्धारण के औजार के रूप में; दूसरा, महिला-केन्द्रित कल्याणकारी नीतियों का परिपक्व रूप और उन पर जनमत का परीक्षण और तीसरा, बड़े पैमाने पर प्रवासन (migration) से जूझते एक पिछड़े राज्य की शासन क्षमता की परीक्षा।

यह चुनाव केवल गठबंधन राजनीति का भविष्य तय नहीं करेगा, बल्कि यह भी बताएगा कि मतदाता अब किस नीति दृष्टिकोण को “विश्वसनीय” और आवश्यक मानते हैं।

 जातिगत जनगणना: आंकड़ों से संचालित सामाजिक न्याय की राजनीति

बिहार वह राज्य है जहाँ जाति आधारित गणना अब प्रशासनिक वास्तविकता बन चुकी है। राज्य सरकार द्वारा 2023 में जारी जाति सर्वेक्षण में समाज की सामाजिक संरचना को बेहद बारीकी से पेश किया गया —

अति पिछड़ा वर्ग (EBC) 36.01%,

पिछड़ा वर्ग (OBC) 27.12%,

अनुसूचित जाति (SC) 19.65%,

और अनुसूचित जनजाति (ST) 1.68%।

ये आंकड़े “सामाजिक न्याय” को केवल एक नैतिक दावा नहीं, बल्कि नीति निर्धारण की बुनियाद में बदल देते हैं। अब आरक्षण के दायरे, नौकरियों में हिस्सेदारी और सरकारी योजनाओं के वितरण में अनुपातिकता की बहस इन्हीं आंकड़ों पर टिक गई है।

बिहार में अब हर राजनीतिक दल अपनी घोषणापत्र नीति को इन्हीं जनसांख्यिकीय आंकड़ों से जोड़ने को मजबूर है। इस तरह राज्य ने “डेटा-आधारित जाति राजनीति” की एक मिसाल पेश की है, जिसे आने वाले वर्षों में अन्य राज्य या तो अपनाएँगे या उसका विरोध करेंगे।

जो भी सरकार 2025 के बाद सत्ता में आएगी, उसे अब केवल नैतिक नहीं बल्कि मात्रात्मक जनादेश मिलेगा कि वह खर्च, प्रतिनिधित्व और नीति आवंटन को सामाजिक हिस्सेदारी के अनुरूप बनाए।

महिला मतदाता और ‘जेंडर वेलफेयर’ की परीक्षा

बिहार वह राज्य है जहाँ महिला-केंद्रित शासन का सबसे गहरा प्रयोग हुआ है। “लाभार्थी राजनीति” राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आने से बहुत पहले, बिहार ने लड़कियों की शिक्षा और गतिशीलता को जोड़ते हुए साइकिल योजना शुरू की थी। इस योजना ने लड़कियों के स्कूल नामांकन में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की, बशर्ते आधारभूत ढांचा (सड़क, सुरक्षा) सहायक हो।

नीति का संदेश स्पष्ट था — जब सरकार ऐसे साधन उपलब्ध कराती है जो महिलाओं की “आवागमन की लागत” घटाते हैं, तो वे शिक्षा और रोजगार दोनों में आगे बढ़ती हैं।

2016 में लागू शराबबंदी को कई लोगों ने नैतिक कदम कहकर खारिज किया, पर अध्ययनों ने पाया कि इसने घरेलू हिंसा और पति के शराब सेवन में कमी लाई।यही कारण है कि 2025 के चुनाव में हर दल महिलाओं को लुभाने में जुटा है।

जेडीयू नकद सहायता योजनाओं के ज़रिए, महागठबंधन “माई-बहन सम्मान योजना” के ज़रिए और प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी 243 सीटों में से 40 महिलाओं को टिकट देने के वादे के ज़रिए। मुख्य प्रश्न यही है क्या शिक्षा, सुरक्षा और कल्याण पर केंद्रित ये महिला योजनाएँ स्थायी राजनीतिक समर्थन बना सकती हैं? दरअसल, बिहार आज यह परख रहा है कि क्या “महिला-आधारित कल्याण” शासन की नई स्थिरता बन सकता है।

 प्रवासन और मतदाता सहभागिता: लोकतांत्रिक समावेशन की परीक्षा

बिहार की अर्थव्यवस्था का एक स्थायी लक्षण है बड़े पैमाने पर श्रमिक प्रवासन। लाखों लोग हर साल रोज़गार के लिए अन्य राज्यों में जाते हैं। यह प्रवासन न केवल विकास की कमी को दर्शाता है, बल्कि परिवारों की जीविका रणनीति भी बन चुका है।यह प्रवासन स्थानीय श्रम-बाज़ार पर असर डालता है, औपचारिक नौकरियों की माँग को कम करता है और साथ ही चुनावों में जटिलता पैदा करता है।

प्रवासी मतदाता अक्सर घर लौटकर वोट नहीं दे पाते; ऐसे में मतदाता सूची में संशोधन, दस्तावेज़ों की त्रुटि, और नामों के विलोपन जैसी समस्याएँ सामने आई हैं।इसलिए 2025 में मतदान दर, विशेषकर महिलाओं और प्रवासी परिवारों के बीच, केवल उत्साह का नहीं बल्कि समावेशन का संकेतक बन गया है।

अब तक सामने आए उच्च मतदान आंकड़े यह दिखाते हैं कि मतदाता अब जाति या पहचान से आगे बढ़कर शासन के ठोस मुद्दों पर निर्णय ले रहे हैं।

बिहार का यह अनुभव बताता है कि प्रवासन अब “पृष्ठभूमि की स्थिति” नहीं, बल्कि राजनीतिक उम्मीदों और जवाबदेही को गढ़ने वाला कारक बन चुका है।

 गठबंधन राजनीति: शासन क्षमता की परीक्षा

यह चुनाव संघीय गठबंधन प्रणाली (coalition federalism) की क्षमता का भी टेस्ट है। बिहार की राजनीति मुद्दों से ज़्यादा गठबंधनों की अस्थिरता पर टिकी रही है।एनडीए ने इस बार सीटों का बँटवारा कर समन्वय का संदेश देने की कोशिश की है, लेकिन बीजेपी का बढ़ता प्रभुत्व और नीतीश कुमार की सेहत/नेतृत्व पर चर्चा ने गठबंधन में असमंजस बढ़ाया है। वहीं विपक्षी महागठबंधन “सामाजिक न्याय”, “कल्याण विस्तार” और “बिहारी गर्व” जैसे नारों के साथ चुनाव में उतरा है, पर सीट बंटवारे की खींचतान ने उसकी एकजुटता को कमजोर किया है।

मतदाता इस बार केवल वादों को नहीं, बल्कि यह भी आंक रहे हैं कि कौन गठबंधन के भीतर रहकर स्थिरता और परिणाम दे सकता है।यह गठबंधन राजनीति का नया आयाम है क्षमता संकेत (capacity signalling) के रूप में।

 नीति-केंद्रित चुनाव अभियान

2025 का बिहार चुनाव मुद्दों के लिहाज से बेहद “नीति-घनत्व” वाला चुनाव है। कानून-व्यवस्था जैसा पुराना चुनावी मुद्दा भी अब रोज़गार और कल्याण के प्रदर्शन के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है।आरजेडी रोजगार सृजन और “साफ-सुथरे शासन” पर जोर दे रही है, जबकि एनडीए अपनी “स्थिरता और निरंतर कल्याण योजनाओं” की छवि पेश कर रहा है।

यह चुनाव एक अद्भुत तुलनात्मक अध्ययन का अवसर दे रहा है  क्या मतदाता “भविष्य के रोजगार वादों” को तरजीह देते हैं या “बीते कल्याण कार्यक्रमों” की संतुष्टि को?क्या सुरक्षा और रोजगार जैसे मुद्दे एक-दूसरे के विकल्प बन सकते हैं, या मतदाता दोनों को साथ चाहते हैं?

 संक्षेप में, बिहार का यह चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे कुछ राज्यसभा सीटें प्रभावित होंगी या राष्ट्रीय गठबंधन डगमगाएगा बल्कि इसलिए कि यह भारत का सबसे अधिक जानकारी-समृद्ध (information-rich) चुनाव है। यह एक ऐसा प्रयोगशाला है जहाँ मात्रात्मक सामाजिक न्याय (quantified social justice), महिला-आधारित कल्याण (gendered welfare) और प्रवासी अर्थव्यवस्था (migration economy) तीनों एक साथ परखे जा रहे हैं।

इन सबके बीच गठबंधन की जटिल राजनीति और नीति-निष्पादन की क्षमता मतदाताओं की कसौटी पर है।2025 का बिहार चुनाव यह बताएगा कि आज का भारतीय मतदाता “न्याय”, “सुरक्षा” और “रोजगार” को किस प्राथमिकता क्रम में रखता है और कौन-सा नीति उपकरण उसे सबसे विश्वसनीय लगता है।

Tags:    

Similar News