फिलिस्तीन, गांधी और भारत की अदालतें,क्या अब नैतिकता पर पहरा है?

Update: 2025-08-03 03:26 GMT
शुक्रवार, 1 अगस्त को उत्तरी गाजा पट्टी के बेत लाहिया के बाहरी इलाके में, गाजा शहर के रास्ते में एक मानवीय सहायता काफिले से लिए गए आटे के बोरे ले जाते हुए फिलिस्तीनी। एपी/पीटीआई

1 अगस्त को बॉम्बे हाई कोर्ट ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [CPI(M)] की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने इज़रायल के ग़ाज़ा पर हमलों के खिलाफ मुंबई में एक सार्वजनिक रैली करने की अनुमति मांगी थी। कोर्ट ने तर्क दिया कि गाज़ा और फिलिस्तीन से जुड़े विरोध-प्रदर्शन घरेलू मुद्दों जैसे बेरोज़गारी और बुनियादी ढांचे की खामियों से लोगों का ध्यान भटका सकते हैं।

न्यायमूर्ति रवींद्र घुगे और गौतम अंखाड की पीठ ने सीधा कहा कि हमारे देश में पहले से ही कई समस्याएं हैं। आप अपनी ही धरती पर ध्यान क्यों नहीं देते? देशभक्त बनिए। इस फैसले ने एक ऐतिहासिक और नैतिक सवाल खड़ा कर दिया। क्या अब अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उल्लंघनों पर बोलना अवांछनीय या ग़ैर-देशभक्ति माना जाएगा?

गांधी की दृष्टि और गाज़ा का सवाल

1938 में महात्मा गांधी ने फिलिस्तीन के मुद्दे पर स्पष्ट रूप से लिखा था कि फिलिस्तीन अरबों का है, उसी प्रकार जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ों का है और फ्रांस फ्रांसीसियों का। गांधी यह बात उस दौर में कह रहे थे जब फिलिस्तीन में हिंसा बढ़ रही थी और यहूदियों द्वारा ज़ायोनिस्ट आंदोलन के तहत अरबों को बेदखल किया जा रहा था। हालांकि गांधी यहूदियों के उत्पीड़न और नाज़ी जर्मनी में उनके नरसंहार के प्रति सहानुभूति रखते थे, फिर भी उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि इस्राइल की स्थापना नग्न आतंकवाद के सहारे नहीं होनी चाहिए।

1946 में, गांधी ने लिखा कि कठिनाइयों ने यहूदियों को शांति का पाठ क्यों नहीं पढ़ाया? वे अमेरिकी धन या ब्रिटिश हथियारों के बल पर खुद को एक ऐसी ज़मीन पर क्यों थोपना चाहते हैं जो उन्हें स्वीकार नहीं करती? उस समय भारत खुद सांप्रदायिक हिंसा, विश्व युद्ध और भयानक बंगाल अकाल से जूझ रहा था। फिर भी गांधी ने वैश्विक नैतिक मुद्दों पर चुप्पी नहीं साधी। क्या आज की न्यायपालिका गांधी को भी कहती कि वे अपने देश की समस्याओं पर ध्यान दें और देशभक्ति दिखाएं?

गाज़ा में हो रहा नरसंहार और भारत की चुप्पी

हमा, द्वारा अक्टूबर 2023 में इज़रायल पर किए गए हमले में लगभग 1,200 लोग मारे गए और 250 का अपहरण हुआ उसके जवाब में इज़रायल ने गाज़ा पट्टी पर क्रूर सैन्य हमले किए। अब तक 60,000 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें ज़्यादातर आम नागरिक हैं। ग़ाज़ा का स्वास्थ्य तंत्र ढह चुका है, भोजन और दवाइयों की किल्लत है, और लाखों लोग बेघर हो चुके हैं।

पूरी दुनिया में इन हमलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पारंपरिक सहयोगी भी इज़रायल से दूरी बना रहे हैं और फिलिस्तीन को अलग देश के रूप में मान्यता देने की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में जब एक भारतीय राजनीतिक दल, वो भी एक पंजीकृत पार्टी, मुंबई में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहती है, तो उसे दृष्टिहीन और देशभक्त ना कहा जाना क्या उचित है?

भारत की विदेश नीति और नैतिक ज़िम्मेदारी

मध्य पूर्व में लाखों भारतीय प्रवासी रहते हैं और भारत की ऊर्जा ज़रूरतों का 40% वहीं से आता है। ऐसे में एक स्थानीय विरोध प्रदर्शन भारत की कूटनीति को नुक़सान नहीं पहुंचा सकता। बल्कि यह उस क्षेत्र को यह संदेश दे सकता था कि भारत के लोग मानवता के मुद्दों पर सरकार से अलग सोच रखते हैं।

न्यायपालिका और नैतिक दृष्टिकोण की परीक्षा

बॉम्बे हाई कोर्ट इस याचिका को पुलिस के प्रशासनिक फैसले का मामला बताकर तकनीकी आधार पर खारिज कर सकती थी। लेकिन ऐसा न कर के जब उसने सीधे देशभक्ति का प्रश्न उठाया और पार्टी की दृष्टि पर सवाल उठाए, तो यह एक बड़े लोकतांत्रिक संकट की ओर इशारा करता है। यह संदेश जाता है कि भारत की जनता को, गांधी के विपरीत, अब ग़ाज़ा के भयावह हालातों को अनदेखा करना चाहिए।

क्या राष्ट्रीयता का मतलब चुप्पी है?

बात अब सिर्फ एक रैली या याचिका की नहीं है। सवाल यह है कि क्या आज भारत में मानवीय संवेदना, अंतरराष्ट्रीय अन्याय के खिलाफ आवाज़ और नैतिक हस्तक्षेप की जगह सिकुड़ती जा रही है? क्या हम गांधी की उस चेतावनी को भुला चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा था जो अन्याय के सामने चुप रहता है, वह भी अपराधी है।

सीपीआई(एम) की रैली पर कोर्ट का प्रतिबंध केवल एक कानूनी मामला नहीं है, यह भारतीय लोकतंत्र की नैतिक चेतना और उसकी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों की परीक्षा है। शांति और मानवाधिकार के लिए आवाज़ उठाना अगर “देशभक्ति” के खिलाफ माना जाने लगे, तो हमें गांधी को भी कठघरे में खड़ा करना होगा।

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