अपने मन की ‘माया’

बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिस तरह से अपने भतीजे आकाश आनंद के खिलाफ कार्रवाई की है और जो कारण बताया है, उसे लेकर अलग अलग कयास लगाए जा रहे हैं.;

Update: 2025-03-04 17:57 GMT

राजनीति कभी इतिहास रचती है, कभी इतिहास दोहराती है और कभी—बस खुद को मिटाती है। कुछ यात्राएँ सड़क की तरह होती हैं—सीधी, सपाट, स्पष्ट। लेकिन कुछ यात्राएँ भूल-भुलैया की तरह होती हैं जहाँ हर मोड़ पर एक नया रास्ता खुलता है लेकिन अंत में कोई बाहर नहीं निकलता। बीएसपी की राजनीति इसी दूसरी तरह की यात्रा बनती जा रही है—एक ऐसी कथा जो हर कुछ वर्षों में वही पुरानी पंक्तियाँ दुहराती है, बस पात्र बदल जाते हैं।

आकाश आनंद इस कथा के सबसे ताज़ा पात्र थे। कुछ महीने पहले तक यही आकाश बीएसपी के भविष्य थे। दिसंबर 2023 में मायावती ने उन्हें उत्तराधिकारी घोषित किया था। उम्मीद बंधी थी कि बीएसपी की राजनीति में नई लय जुड़ेगी, युवा चेहरा मिलेगा, पार्टी की धड़कन तेज़ होगी। लेकिन अब वही आकाश आनंद पार्टी से बाहर हैं।

उनका दोष? उनकी राजनीतिक ‘अपरिपक्वता’, उनका अपने निष्कासित ससुर अशोक सिद्धार्थ के प्रभाव में आ जाना, उनका ‘ग़ैर-मिशनरी’ स्वभाव। लेकिन इस फैसले के शब्दों से ज़्यादा इसके मौन पर ध्यान देना ज़रूरी है। क्या आकाश आनंद का निष्कासन इसलिए हुआ क्योंकि वे गलत राह पर थे या इसलिए क्योंकि वे किसी राह पर चलने लगे थे?

बीएसपी और एक बंद दरवाज़ा

भारतीय राजनीति में कई पार्टियाँ वंशवादी हैं—यह एक स्थापित सत्य है। लेकिन बीएसपी इस मामले में उलटी है। यहाँ उत्तराधिकार का दावा करने वाले अक्सर दरवाज़े से लौटाए जाते हैं। यह दल सिर्फ एक ही ध्रुव पर टिका है एक ही चेहरे के इर्द-गिर्द घूमता है।

स्वामी प्रसाद मौर्य आए और गए। नसीमुद्दीन सिद्दीकी आए और गए। बाबू सिंह कुशवाहा आए और गए। हर किसी के जाने की वजह अलग बताई गई—अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, बग़ावत। लेकिन असली वजह एक ही रही—बीएसपी में दूसरा कोई नेता बन ही नहीं सकता।

यह देश में दलित राजनीति के लिए एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। बीएसपी कभी बहुजन चेतना का सबसे ताकतवर राजनीतिक मंच थी। कांशीराम ने इसे सामाजिक न्याय की प्रयोगशाला की तरह गढ़ा था। लेकिन प्रयोगशालाएँ निष्क्रिय हो जाएँ तो वे संग्रहालय बन जाती हैं। क्या बीएसपी भी उसी दिशा में बढ़ रही है?

सत्ता की मनोवैज्ञानिक पहेली

नेतृत्व बदलने का अर्थ सिर्फ व्यक्ति बदलना नहीं होता यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। सत्ता जब हस्तांतरित होती है तो केवल अधिकार नहीं बल्कि दृष्टि भी स्थानांतरित होती है। लेकिन मायावती का हर राजनीतिक कदम यह बताता है कि बीएसपी की सत्ता केवल स्थायी रह सकती है साझा नहीं। उत्तराधिकार सिर्फ घोषित करने से स्थापित नहीं होता। यह एक सतत प्रक्रिया होती है—पुराने नेतृत्व का धीरे-धीरे पीछे हटना, नए नेतृत्व का परिपक्व होना, दोनों के बीच एक संवाद का बनना। लेकिन बीएसपी में संवाद का यह सेतु कभी बना ही नहीं। यहाँ उत्तराधिकारी नामित होते हैं लेकिन उन्हें अपनी पहचान गढ़ने का समय नहीं मिलता। उन्हें एक दिन मंच मिलता है अगले दिन पर्दे के पीछे धकेल दिया जाता है।

क्या है दलित राजनीति का भविष्य

बीएसपी के लिए यह संकट सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं पूरी विचारधारा का है। दलित राजनीति अब बहुस्तरीय हो चुकी है। जहाँ एक ओर बीजेपी हिंदुत्व की छतरी तले दलित वोटों को समेट रही है वहीं दूसरी ओर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और छोटे दल नए सामाजिक समीकरण बना रहे हैं। लेकिन बीएसपी अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रही है। उसका वोट बैंक खिसक रहा है लेकिन उसकी राजनीति स्थिर बनी हुई है। उसे चाहिए था कि वह खुद को एक संस्थान में बदले लेकिन वह अब भी एक व्यक्ति की सत्ता के चारों ओर घूम रही है। आकाश आनंद को हटाकर मायावती ने संकेत दे दिया है कि बीएसपी में किसी नए नेतृत्व की गुंजाइश नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या बीएसपी की यह संरचना भविष्य में भी चल पाएगी? क्या पार्टी को एक व्यक्ति के करिश्मे पर निर्भर रहकर आगे बढ़ाया जा सकता है जब मतदाता खुद बदलाव की तलाश में हैं?

राजनीति में हर यात्रा का एक मोड़ आता है जब उसे दिशा बदलनी पड़ती है। कुछ नेता इस मोड़ को पहचान लेते हैं कुछ इसे नकारते हैं। मायावती के पास मौका था कि वे बीएसपी को एक नए युग में ले जातीं लेकिन उन्होंने वही पुरानी राह चुनी—एक और नेतृत्व की संभावनाओं को समाप्त करने की राह। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इतिहास मायावती को किस रूप में याद करेगा—एक अद्वितीय नेता के रूप में या एक ऐसे राजनेता के रूप में जिन्होंने सत्ता को कायम तो रखा लेकिन उसे साझा करने से हमेशा बचती रहीं?

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