कर्नाटक जाति सर्वेक्षण और ‘संख्या का डर’: आरक्षण की राजनीति में उबाल
जाति सर्वेक्षण, जो एक साधारण प्रशासनिक कवायद लगती थी, अब धर्म, पहचान, राजनीति और आरक्षण की जटिल गुत्थियों में उलझ चुकी है। कर्नाटक में लिंगायत-वीरशैव बहस ना सिर्फ धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठा रही है, बल्कि यह भी दिखा रही है कि राजनीतिक फायदे के लिए धर्म और जाति की परिभाषाएं कैसे बदलती हैं।
कर्नाटक में हाल ही में शुरू हुए जाति सर्वेक्षण (22 सितंबर से) ने राज्य की राजनीति, धर्म और सामाजिक संरचना में एक नई हलचल पैदा कर दी है। यह सर्वे, जिसे लंबे समय से वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय 'वैज्ञानिक डेटा' के नाम पर मांगते आ रहे थे, अब उन्हीं समुदायों के भीतर के विरोध और संदेहों की वजह से विवादों में घिर गया है।
'संख्या का डर'
राज्य के प्रभावशाली समुदायों – लिंगायत और वोक्कालिगा – को इस बात का डर है कि अगर उनकी जनसंख्या वास्तव में 11% के आसपास निकलती है, जैसा कि कुछ रिपोर्ट्स का अंदेशा है तो उनका शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दबदबा कम हो सकता है। अब तक ये समुदाय खुद को क्रमश: 17% और 14-15% मानते आए हैं। इसलिए "विज्ञान" के नाम पर जो संख्या इकट्ठी की जा रही थी, वह अब ‘संख्या का डर’ बन गई है।
वीरशैव-लिंगायत: क्या दोनों एक हैं?
जाति सर्वेक्षण के चलते एक बार फिर यह पुराना ऐतिहासिक और धार्मिक विवाद सामने आ गया है कि लिंगायत धर्म हिंदू धर्म का हिस्सा है या अलग धर्म? वीरशैव, जो कि पंचाचार्यों के अनुयायी हैं और जिनके पीठ देशभर में फैले हैं (कर्नाटक, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश), 12वीं सदी के बसवण्णा को एक धार्मिक सुधारक तो मानते हैं, पर नए धर्म का संस्थापक नहीं मानते। इसके विपरीत लिंगायत समुदाय के कई नेता जैसे कि एसएम जमादार (पूर्व IAS अधिकारी) और दिवंगत विद्वान एमएम कलबुर्गी लिंगायत को पूरी तरह अलग धर्म मानते हैं और बसवण्णा को धर्मगुरु.
एकता की अपील और दोहरे उद्देश्य
हाल ही में वीरशैव समुदाय ने 'वीरशैव-लिंगायत' शब्द को जोड़कर एकता की कोशिशें की हैं। दोनों समुदाय अब बसव जयंती और रेणुकाचार्य जयंती को एक साथ मनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस 'एकता' के पीछे दो प्रमुख उद्देश्य हैं:-
1. लिंगायत धर्म आंदोलन को कमजोर करना, जो चाहता है कि लोग सर्वेक्षण और 2027 की जनगणना में अपने धर्म के तौर पर सिर्फ 'लिंगायत' लिखें और 97 उप-जातियों का उल्लेख करें।
2. यह साबित करना कि वीरशैव-लिंगायत एक ही हैं और हिंदू धर्म का हिस्सा हैं, जिससे वीरशैव समुदाय को केंद्र की OBC सूची में शामिल होने का रास्ता मिले और उन्हें आरक्षण में ज्यादा हिस्सेदारी मिल सके।
धार्मिक विभाजन में बढ़ता असंतोष
सनेहल्ली पंडिताराध्य स्वामी, जो लिंगायत परंपरा के एक प्रखर रक्षक हैं, उन्होंने गहरे असंतोष के साथ लिंगायतों में बढ़ती ‘हिंदूकरण’ प्रवृत्ति का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि गणेश पूजा, हवन, होम और वेद आधारित पूजा पद्धतियां बसवण्णा की विचारधारा के विपरीत हैं। वहीं दूसरी ओर कई मठाधीपति और बीजेपी के लिंगायत नेता इस आंदोलन को 'धर्म को तोड़ने की साजिश' बता रहे हैं। 19 सितंबर को हुबली में एक बड़ी बैठक भी हुई, जिसमें सरकार के खिलाफ आक्रोश जताया गया। लेकिन कोई स्पष्ट समाधान सामने नहीं आया।
'पंचमसाली' स्वामी ने बढ़ाया भ्रम
बगालकोट मठ के पंचमसाली लिंगायत स्वामी, बसवा जयंमृत्युंजय स्वामी, जो पिछले कई सालों से 3B से 2A कैटेगरी में आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन्होंने भी इस ‘एकता मंच’ से दूरी बना ली। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि जब तक लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा नहीं मिलता, सर्वे में 'लिंगायत हिंदू' लिखा जाए। इसके चलते उन्हें पंचमसाली महासभा से बाहर कर दिया गया।
सर्वे को लेकर हर जाति में बेचैनी
अब यह विवाद सिर्फ वीरशैव-लिंगायत तक सीमित नहीं रहा। कुरुबा, इडिगा, भोवी, वाल्मीकि, वोक्कालिगा, ब्राह्मण लगभग हर जाति समूह ने अपने लोगों को सर्वेक्षण में सही जवाब देने के लिए गाइडलाइन जारी की है। पूरे राज्य में राजनीतिक दल, धार्मिक संगठन और जातीय संस्थाएं अपने अपने समुदाय को संगठित करने में जुट गई हैं। क्योंकि संख्या ही ताकत का आधार बन रही है।
औरतें कहां हैं इस बहस में?
इन तमाम विवादों, बैठकों और मठों की चर्चाओं के बीच एक तबका है, जो लगभग गायब है – महिलाएं। वे आज भी मंदिरों में पूजा करती हैं, त्यौहार मनाती हैं और हिंदू वैदिक परंपराओं को जीवित रखती हैं। शायद वे अनजाने में इस बात को दोहरा रही हैं कि ना तो वीरशैव और लिंगायतों में एकता संभव है और ना ही कर्नाटक में हिंदू पहचान एकरूप है।
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