धनबल और भ्रष्टाचार की बातें
महाराष्ट्र की राजनीति में भ्रष्टाचार के इन नए कीर्तिमानों ने धनबल और भ्रष्टाचार की बातें उठाने वालो को ही उल्टे कठघरे में खड़ा कर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि जो आम जनता और मतदाता भ्रष्टाचार और सरकारी धन की लूट को रोकने के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं और वोट मांगने आए नेताओं की इस तरह की बातें उठाने पर तालियां बजाते हैं तो लगता है लोकतन्त्र जिंदा रहने वाला है। लेकिन वोटिंग के दिन मतदान केंद्र पर जाने से पहले उनके खातों में किसान निधि या लाडली बहिना का सरकारी पैसा आने के बाद उनका मन एकदम बदल जाता है। सो उसी पार्टी को वोट देकर आ गए , जिनकी वजह से उनके खाते में 2-3 दिन पहले या सुबह सुबह नकद पैसे आए। भले ही उस पार्टी या उम्मीदवार में पांच साल तक उन्हें लाख बुराइयां दिखती रही हों।
पुणे और नागपुर में अपनी चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री मोदी ने जब लोगों से कहा कि ‘भारत विरोधी ताकतों को उसी तरह से स्थायी तौर पर पराजित करें जैसा कि हरियाणा चुनाव(Haryana Assembly Elections 2024) मे किया गया तो बहुत से लोगों ने इसे मात्र चुनावी स्टंटबाजी कहकर खारिज कर दिया था। 13 नवम्बर को महाराष्ट्र में पीएम मोदी के उक्त भाषण को गंभीरता से लेने वालों को अंदेशा हो चुका था कि हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र के चुनाव एक सोची समझी रणनीति के तहत ही एक साथ नहीं कराए गए थे। यानी जो मोदी ने जो कहा उसे पूरा करके दिखाया।’
क्या पीएम मोदी करते हैं भड़काऊ राजनीति
23 नवंबर को महाराष्ट्र की जीत पर दिल्ली में पार्टी मुख्यालय (Delhi BJP Headquarter) में अपने स्वागत और विजय जश्न मना रहे भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस (Congress) पर तीखे कटाक्ष जारी रखे कहा ," वह पार्टी एक परिवार के लिए समर्पित है। कांग्रेस की प्राथमिकता देश में लोकतन्त्र को खत्म करना है। कांग्रेस से जुड़े अर्बन नक्सल देश के सामने चुनौती बने हुए हैं। हम सबको कांग्रेस के मंसूबों के प्रति सचेत रहना होगा मोदी के इस तरह भाषण को देश में लोकतन्त्र और संविधान पर खतरे से चिंतित कई लोगों ने कड़ी आपत्ति की है है वरिष्ठ पत्रकार संजय के झा कहते हैं " दुनिया उम्मीद करती है कि जीत से विनम्रता आनी चाहिए, लेकिन मोदी दूसरे की चुनावी पराजय पर तांडव करते हैं। महाराष्ट्र की चिंता किए बिना वे कांग्रेस के लिए अपशब्द बोलते हैं। वे खुद भड़काऊ राजनीति करते हैं और तुष्टिकरण की सियासत को कोसते हैं। "
मात्र कुछ महीने पहले ही हरियाणा में कांग्रेस ने 10 सीटों में से 5 सीटें जीतकर भाजपा को करारी टक्कर दी थी। लगातार दो लोकसभा चुनावों में भाजपा विधानसभा की तरह लोकसभा में भी भारी जीत हासिल कर रही थी। महाराष्ट्र में तो हरियाणा से भी कहीं बढकर चमत्कार हुआ। राज्य की 48 लोकसभा सीटो ममे से भाजपा मात्र 9 सीटों पर सिमट गई थी। कांग्रेस उद्धव ठाकरे और शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस 30 सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा को तगड़ा झटका इसलिए लगा कि एक तो उसके कई दिग्ïगज चुनाव हार गए थे और दूसरा केंद्र में सरकार बनाने के लिए वह बहुमत से करीब 40 सीटें पिछड़ गई।
नतीजे क्यों करते हैं स्तब्ध
महराष्ट्र की 288 सीटों पर निकले नतीजे हरियाणा के बाद सबसे ज्यादा अविश्वसनीय और स्तब्ध करने वाले इसलिए हैं कि किसी भी ग्राउंड सर्वे में ऐसे परिणामों की लेस मात्र भी कल्पना नहीं की गई थी। विपक्षी महा विकास अघाड़ी (Maha Vikas Aghadi) जिसे केंद्र में बने इंडिया गठबंधन का ही स्वरूप माना जाता है को इस बुरी हार से तगड़ा झटका लगा है। वहां विपक्ष को इस हार से उबरने में काफी साल लग सकते हैं। कई लोगों को लगता है कि इससे महाराष्ट्र में विपक्षी राजनीति कम से कम 10 साल के लिए पीछे चली गई। ज्ञात रहे कि भाजपा के लिए भी उड़ीसा में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इतनी प्रचंड जीत विश्वास से परे है।
महाराष्ट्र में 2014 के पहले भाजपा बालासाहेब ठाकरे (Bala Saheb Thackeray) के नेतृत्व वाली शिव सेना की जूनियर पार्टनर बन कर ही सीमित रहा करती थी । कांग्रेस के मजबूत किले महाराष्ट्र में शिव सेना (Shiv Sena) ही उसकी प्रमुख प्रतिद्वंदी रही। भाजपा ने पूर्व शिवसेना के रहमोकरम पर कुछ सीमित क्षेत्रों मे ही अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश की। कई बार विवाद भी हुए लेकिन अंतत: बाला साहेब ने भाजपा को दो टूक कह दिया था कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में शिवसेना सब तय करेगी और केंद्र के लिए लोकसभा चुनावों के वक्त भाजपा की मर्जी चलेगी। कई चुनावों में शिवसेना और भाजपा के बीच यही व्यवस्था हाल तक चलती रही।
महाराष्ट्र में जब हुआ था उलटफेर
2022 में महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे बड़ा चौंकाने वाला उलटफेर तब हुआ, जब भाजपा ने शिवसना और शरद पवार की पार्टी एनसीपी में विभाजन करवाकर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में ऐसी सरकार बनाई जिसमें भाजपा विधायकों की भारी संख्याबल के बावजूद जूनियर पार्टनर बनी। इसी प्रबंधन के तहत तोडफ़ोड़ कर बनी बेमेल साझा सरकार में भाजपा ने अपने पूर्व युवा मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस को उप मुख्यमंत्री बनने को तैयार किया। इसी तरह शरद पवार के भतीजे अजित पवार (NCP Ajit Pawar) को भी उपमुख्यमंत्री बनाकर ढाई साल सरकार चलाई गई। इस तरह महाराष्ट्र के इतिहास मे पहली बार जनता के सामने शिवसेना उद्धव और भाजपा के बीच हिंदुत्व की बड़ी झंडाबरदार पार्टी चुनने का बेहद कठिन और पेचीदा फैसला करने का कठिन काम था।
महाराष्ट्र की राजनीति और वहां के पांचों प्रमुख अंचलों की राजनीति को वर्षों से बहुत करीब से देखने वालों का मानना था कि इस बार जिस तरह की तीखी लड़ाई और कांटे की टक्कर लग रही थी, उससे यही आसार लग रहे थे कि विधानसभा त्रिशंकु बनकर उभर सकती है, जिसमें किसी को भी सरकार बनाने का पूरा मौका हाथ न लगे। ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि सरकार बनाने की चाबी निर्दलीय जीतकर विधायकों के हाथ में होगी, लेकिन जो नतीजे आए उसने सारे आकलनों और उम्मीदों पर पानी फेर दिया।माना जा रहा है कि इन नतीजों ने उन पार्टियों और राजनीतिक लोगों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया जो चुनावी सियासत को धर्म और उन्माद से दूर रखना चाहते हैं ।
पुणे में वरिष्ठ पत्रकार अनोस मालेकर कहते हैं कि ‘वाकई मे यह एक खतरनाक स्थिति है। धर्म निरपेक्षता की राजनीति करने वालों के लिए ऐसी चुनौती महाराष्ट्र में पहले कभी नहीं आई थी। लेकिन लड़ाई जारी रहेगी।’ उनको पुख्ता यकीन है कि इन नतीजों ने एक और अहम मामले पर सोचने को विवश कर दिया कि क्या महाराष्ट्र के मतदाताओं ने शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के हिंदुत्व को नकार दिया और भाजपा के उग्र हिंदुत्व को स्वीकार कर लिया। क्या दो हिंदुत्व धाराओं के बीच आमने-सामने की लड़ाई में नरमपंथी या उदार हिंदुत्व की राजनीति को अलविदा कहने का दौर आ चुका। जाहिर है इस मुद्दे पर आने वाले काफी दिनों तक बहस के नए आयाम खुलेंगे इसलए जो नतीजे आए हैं उनकी तह में जाकर सवालों की गहराई से पड़ताल करनी होगी।
क्या भाजपा-संघ को भी नहीं हो रहा भरोसा
भाजपा और संघ परिवार के लिए भी चुनाव नतीजे आश्चर्य करने वाले हैं। ऐसी दर्जनों सीटें जहां महायुति के उम्मीदवार जीते हैं,उन्हें चुनाव पचार के दौरान ही इस बात का पक्का एहसास हो चुका था कि वे चुनावी मुकाबले में पिछड़ गए हैं। लेकिन इसके बाद भी उन्हें आश्चर्य करने वाली जीत का तोहफा मिला। कई क्षेत्रों में जहां चुनावी जीत के बाद जश्न का माहौल होता था उन क्षेत्रों में भाजपा में जीत के बावजूद सन्नाटा देखने को मिला है।एकनाथ शिंदे सरकार पर विगत ढाई साल में कई मामलों में भारी भ्रष्टाचार और मंत्रियों पर पद दुरुपयोग के आरोप लगे। प्रदेश की राजनीति में पहली बार दल बदल, भ्रष्टाचार और बड़े घोटाले करने वालों को क्लीन चिट मिली। इसमें उपमुख्यमंत्री अजित पवार और पटेल जैसे कई शामिल हैं जिनके खिलाफ मोदी सरकार की जांच एजेंसियों ने पुख्ता सबूत जुटाए थे। लेकिन उन्हें धीरे-धीरे कर आरोपों से मुक्त करके पुरस्कार मिलता रहा। विडंबना है कि भाजपा राज में यह प्रथा पूरे देश में स्थापित कर दी गई है।
पिछले एक महीने से महाराष्ट्र के प्राय: हर क्षेत्र में मतदाताओं को लुभाने के लिए बेहिसाब पैसा बांटने, मटन पार्टियां और महंगे उपहार के लालच के आरोप सुर्खियों में आते रहे। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े तो एक होटल में करोड़ों रुपए बांटते देखे गए। हालांकि चुनाव आयोग ने उन्हें बचाने में जरा भी देर नहीं की। मात्र 9 लाख 93 हजार रुपए की बरामदगी का हल्का मामला दर्ज कर हाथ झाड़ लिए। मामला रफा दफा हो गया। ऐसे कयास लगा रहे थे कि वोटिंग के मात्र एक दिन पहले मतदाताओं को नोट बांटने का इतना बड़ा मामला सामने आने के बाद भाजपा और महायुति गठबंधन को कई सीटों पर भारी नुकसान होने का अंदेशा था।लेकिन जो नतीजे निकले हैं इस सनसनीखेज कांड का रत्ती भर भी असर नहीं दिखा। मानों अब खुलेआम वोट खरीदने के आरोपों के मतदाताओं के सामने कोई मायने नहीं रह गए।
अब छिड़ी नई बहस
महाराष्ट्र में इस बात पर भी एक नई बहस छिड़ चुकी है कि नतीजों के रुझान ने भाजपा की सांप्रदायिकता की राजनीति को सिर माथे पर ले लिया। ‘बंटोगे, तो कटोगे’ जैसे नारों को चुनाव प्रचार, पोस्टरों और सोशल मीडिया में खूब उछाला गया। बाद में जब विपरीत प्रतिक्रिया का अहसास हुआ तो भाजपा ने नारा बदला ‘एक है तो सेफ हैं’ लेकिन तब तक भाजपा और इस नारे को गढने वालों का असली मकसद पूरा हो चुका था।ऐसा लगता है कि वक्त के बदलते दौर के साथ मतददाताओं को प्रचंड हिंदुत्व के अलावा ऐसा हिंदुत्व भी चाहिए जो सुबह उठते ही नोटों की वर्षा करे यानी सरकारी खजाने और टैक्स के पैसे से सरकार के पास जो खजाना है, उसका नकद वितरण हो,पैसा सीधे उनके खातों में आए।
दूसरा अगर देश के अडानी जैसे नामी उद्योगपति जिनका लाखों करोड़ रुपए का कारोबार महाराष्ट्र और मुम्बई में फैला है वे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए हर कीमत पर राज्य में मनपसंद सरकार चाहते हैं। मुम्बई का धारावी प्रोजेक्ट एक मिसाल है जहां प्रधानमंत्री मोदी के मित्र गौतम अदाणी का एक लाख करोड़ रुपया दांव पर है। इसीलए सत्ताधारी सियासी दल और बड़े उद्योगपतियों और कारोबारियों का पैसा भी इस चुनाव में खुले तौर पर इस्तेमाल हुआ। यह आरोप विपक्षी पार्टियों की चुनाव रैलियों में खुलेआम लगाए गए।
रोचक बात यह है कि पिछले माह चुनाव में भाजपा हरियाणा जीती और जम्मू कश्मीर में पराजित हुई। इस बार झारखंड में पराजित हुई और महाराष्ट्र मे प्रचंड ढंग से जीती। ईवीएम वोटिंग मशीनों (EVM) की धांधलियों के मुद्दे पर एक बार फिर बहस तेज हो चुकी। 2004 में महाराष्ट्र में अखिल भारतीय कांग्रेस के प्रभारी सचिव और पूर्व सांसद हरिकेश बहादुर कहते हैं, इवीएम मशीनें जब तक प्रयोग में रहेंगी तब तक धांधलियो को बंद या रोका नहीं जा सकता।
हैदराबाद में वर्षों से सक्रिय चुनाव मामलों के विशेष और सामाजिक कार्यकर्ता सी राजशेखर राव कहते हैं "महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर से साबित कर दिया है कि कैसे चुनाव नतीजों में खुलेआम धांधलियां की जा रही हैं, उनकी मांग है कि महाविकास अघाड़ी (Maha Vikas Aghadi) के सभी 238 हारे हुए उम्मीदवारों के 5 प्रतिशत पोलिंग स्टेशनों की वीवीपेट पर्चियों की जांच तत्काल होनी चाहिए। क्या इस मामले में महाराष्ट्र का विपक्षी गठबंधन कोई रणनीति तैयार करेगा इसका अंदाजा आने वाले दिनों में मिलेगा। फिलहाल तो भाजपा के नेतृत्व में महायुति सरकार की ताजपोशी का देश और महाराष्ट्र को बेसब्री से इंतजार है।
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