बढ़ते समय के साथ घटता हुआ मोदी का ‘जादू’ !
मोदी का कद इस कदर बढ़ चूका था कि बीजेपी उसके पीछे कहीं छुप सी गयी थी. आम बोलचाल में कहें तो हमेशा मोदी ही ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं, मोदी सरकार ही बोला जाता था, बीजेपी सरकार कभी नहीं.
मई 2023 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विधानसभा चुनावों की पूर्वसंध्या पर कुछ सबसे अंदरूनी, आम तौर पर नजरअंदाज किए जाने वाले आवासीय क्षेत्रों में रोड शो करके बंगलुरूवासियों को आश्चर्यचकित कर दिया. मोदी मतदाताओं के बीच किसी भी तरह के संदेह को दूर करने और चुनावों को बीजेपी के पक्ष में मोड़ने के लिए अपना “जादू” दिखा रहे थे.
कुछ दिनों बाद नतीजे आए. मोदी और बीजेपी के लिए वे चौंकाने वाले थे. पार्टी को सिर्फ़ 66 सीटें मिलीं, जो पिछली बार की तुलना में 38 कम थीं. ये सब प्रधानमंत्री की तमाम कोशिशों के बावजूद हुआ. शायद ये पहली बार था कि मोदी के इर्द-गिर्द का कथित आभामंडल फीका पड़ रहा था.
एक साल बाद, हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों ने फिर एक बार साबित कर दिया है कि कर्नाटक से कोई अलग संकेत नहीं था. बीजेपी का मूल बहुमत भी न पा पाना, एक बड़ा बदलाव दर्शाता है. 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद पहली बार भारतीय मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने विनम्रता और शांतिपूर्वक प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द के प्रभामंडल को खत्म कर दिया है.
चिरस्थायी कथा
पिछले एक दशक में ये बात आम हो गई थी कि मोदी जहां भी जाते हैं, वोट बीजेपी के पक्ष में हो जाता है. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री ने 2020 में हैदराबाद जैसे स्थानीय निकाय चुनावों में भी प्रचार करना शुरू कर दिया. इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं था कि मोदी के, किसी निर्वाचन क्षेत्र में जाने से वोट बीजेपी के पक्ष में गया. लेकिन फिर भी, मीडिया में ये कहानी हमेशा चलती रही.
कर्नाटक के बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा से 2019 में पत्रकारों ने लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन के बारे में पूछा था. तब उन्होंने बस इतना कहा था कि उम्मीदवारों का कोई महत्व नहीं है. मोदी ही अंतिम उम्मीदवार हैं और सभी का वोट उन्हीं के लिए है.
दिल्ली में मोदी का सत्ता में आना निस्संदेह अभूतपूर्व था. 2014 में, कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-2 को गंभीर सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा था और बीजेपी ने सत्ता में आने के लिए इसका चतुराई से इस्तेमाल किया. पार्टी के संस्थापक, आरएसएस ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को शीर्ष पद के लिए बीजेपी के नए उम्मीदवार के रूप में बड़ी ही सावधानीपूर्वक योजना तैयार की और उसकी मार्केटिंग की. चाहे वो मोदी का प्रभाव हो या यूपीए के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते जनता का गुस्सा, इसने उस चुनाव में बीजेपी के लिए चमत्कार किया.
आरएसएस की इस योजना का मोदी ने लाभ उठाया और लोगों को खुशखबरी या अच्छे दिन का आश्वासन दिया, जिसका वे बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, जिसमें प्रति व्यक्ति 15 लाख रुपये का(अब मायावी और बहुत उपहासपूर्ण) वादा भी शामिल था.
यूपीए-2 पूरी तरह बिखर गया और कांग्रेस एक ऐसी कार की तरह फंस गई, जिसके पहिए उखड़ गए हों. मोदी और आरएसएस-बीजेपी थिंक-टैंक ने लोगों से वही वादा किया जो वे सुनना चाहते थे; विकास.
यह बात थोड़ी देर बाद पता चली कि ये एक ट्रोजन हॉर्स था, जिसके अंदर एक सांप्रदायिक एजेंडा सवार था.
छवि का बदलाव
तब तक, लोगों का एक बड़ा वर्ग संघ परिवार की इस कहानी से सहमत हो चुका था कि भारत एक महाशक्ति बनने की राह पर है, कि दुनिया ने पहली बार भारत की महानता को पहचाना है, विदेशों में भारतीयों के साथ एक नए सम्मान का व्यवहार किया जा रहा है और मोदी के नेतृत्व में देश के भीतर अंततः "वास्तविक" विकास होने वाला है.
राजनीतिक रूप से, ये कथानक बीजेपी और उसके शुभंकर प्रधानमंत्री के पक्ष में इस हद तक चला कि मतदाताओं ने मोदी को काफी दूर रखा, विशेषकर उन मतदाताओं ने जो किसी विशेष विचारधारा या राजनीतिक दल से जुड़े नहीं थे.
एक चाय विक्रेता के विनम्र बेटे से लेकर एक सफल मुख्यमंत्री और तथाकथित "गुजरात मॉडल" के निर्माता से लेकर देश की सेवा में एक साधारण "चौकीदार" बनने तक, धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य को हिंदुत्व-संचालित राष्ट्र में बदलने वाले एक अजेय शासक बनने तक और अंततः "राष्ट्र की सेवा के लिए ईश्वर द्वारा भेजे गए" एक "ईश्वर-समान" व्यक्ति के रूप में उभरने तक, मोदी ने ये सब करने की कोशिश की है, जिनमें से अधिकांश में उन्हें ईर्ष्याजनक सफलता मिली है.
संभवतः अपनी सफलता और अपने समर्थकों के विशाल समूह तथा मीडिया द्वारा स्पष्ट प्रशंसा से प्रेरित होकर, अन्यथा राजनीतिक रूप से चतुर प्रधानमंत्री, उन उदासीन मतदाताओं की नाराजगी को समझने में असफल रहे, जिन्होंने वादा किए गए परिवर्तनों को देखने के लिए एक दशक तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की.
छवि बदलने की प्रक्रिया में मोदी का कद इतना बढ़ गया कि उसके सामने बीजेपी लगभग लुप्त हो गई. आम बोलचाल में, हमेशा मोदी ही ऐसा करते थे, वैसा करते थे, बीजेपी सरकार कभी ऐसा नहीं करती थी.
विवादास्पद अभियान
हाल के चुनावों में कांग्रेस जैसी अन्य पार्टियों ने पार्टी घोषणापत्र जारी किए, जबकि बीजेपी ने "मोदी की गारंटी" पेश की, जिसे पूरे देश में फैलाया गया. पार्टी थिंक-टैंक ने शायद ये माना होगा कि मोदी का आश्वासन ही बीजेपी को जीत की मंजिल तक पहुंचाने के लिए काफी है, न कि 400 से ज़्यादा सीटें जीतने के लिए.
लेकिन देश के विभिन्न भागों में दिए गए विवादास्पद चुनावी भाषणों ने मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के बीच मोदी के प्रति जो भी सद्भावना बची थी, उसे कमजोर या बेअसर कर दिया है.
उन्होंने हिंदू-मुस्लिम विभाजन का हवाला दिया, कांग्रेस और आप सहित विपक्ष की ईमानदारी पर संदेह जताया, मतदाताओं को चेतावनी दी कि कांग्रेस महिलाओं के "मंगलसूत्र" छीनकर मुसलमानों को सौंप देगी, एससी/एसटी और ओबीसी आरक्षण मुसलमानों को दिया जाएगा, और महात्मा गांधी जैसे प्रतीकों को भी कमतर आंका.
मतदाताओं की धारणा पर इन टिप्पणियों का प्रभाव प्रधानमंत्री के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा होगा. इसके अलावा, संघ परिवार द्वारा मोदी व्यक्तित्व का अत्यधिक लाभ उठाना उपयोगिता के ह्रास के नियम का एक अभ्यास बन रहा है. एक अति-प्रचारित नेता के लिए दोहरावपूर्ण संदेशों के साथ समय के साथ राजनीतिक लाभ कम होना तय है.
कहीं न कहीं, पिछले पांच वर्षों में कभी न कभी मोदी का व्यक्तित्व क्षीण होने लगा था और वो विजयी धार खोने लगा था, जो काफी हद तक किसी की नजर में नहीं आया. 4 जून तक, जब इसने बीजेपी के 400 सीटें पार करने के सपने को चकनाचूर कर दिया.