सितंबर 2025: नरेंद्र मोदी के लिए निर्णायक साबित हो सकता है यह महीना? जानें क्यों

PM Modi: मोदी और भागवत दोनों 75 वर्ष के हो जाएंगे; आरएसएस प्रमुख, जिन्हें अब अपने हिंदुत्व एजेंडे के लिए प्रधानमंत्री की ‘जरूरत’ नहीं है.;

Update: 2024-12-19 17:49 GMT

PM Modi retirement: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने सार्वजनिक रूप से बड़े विश्वास के साथ कहा है कि ब्रह्मांड ने उन्हें सेहतमंद और निरोग रखा है. जिससे कि वह भारत को 2047 तक अमृत काल तक ले जा सकें. हालांकि, इस दौरान उनको एक बाधा का सामना करना पड़ेगा. क्योंकि पीएम मोदी 17 सितंबर 2025 को 75 वर्ष के हो जायेंगे. जबकि आरएसएस (RSS) प्रमुख मोहन भागवत 11 सितंबर को इस महत्वपूर्ण आयु तक पहुंचेंगे. दोनों पूर्व में एक-दूसरे के सहयोगी रहे हैं. लेकिन हाल के वर्षों में दोनों के बीच मतभेद दिखे. भागवत अपने जन्मदिन के मौके पर इस मुद्दे को और आगे बढ़ा सकते हैं और वे पद छोड़ सकते हैं या कम से कम उत्तराधिकारी की घोषणा कर सकते हैं. जैसा कि भाजपा (BJP) के वैचारिक स्रोत आरएसएस (RSS) में परंपरा रही है. ऐसे में यह सवाल उठने लाजिमी है कि क्या मोदी (PM Modi) को भी ऐसा ही नहीं करना चाहिए? क्या उन्हें कम से कम रिटायरमेंट के बारे में बात नहीं करनी चाहिए?

लगातार सवाल

मोदी (PM Modi) ने देशवासियों को यह बताने का कष्ट किया है कि उनका रिटायरमेंट कहीं से भी निकट नहीं है. उनके करीबी सहयोगी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने खुशी-खुशी इसका समर्थन किया है. हालांकि, संघ परिवार की अंदरूनी उलझनों के कारण सवाल फिर से उठाने पड़ सकते हैं. आखिरकार परिवार, खास तौर पर भाजपा (BJP), सेवानिवृत्ति और अगली पीढ़ी के नेताओं को तैयार करने पर बहुत जोर देती है. हर कोई इस बात से वाकिफ है. भले ही वे इसे सार्वजनिक रूप से न भी कहें. मोदी (PM Modi) के लिए, यह कमरे में हाथी की तरह है. वहीं, अगर भागवत एक बड़ा संकेत देते हैं और कहते हैं कि अगले वर्ष, जब आरएसएस का शताब्दी वर्ष समारोह संपन्न हो जाएगा तो वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे तो इससे मोदी को उक्त हाथी को संबोधित करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.

आरएसएस की चाहत

स्पष्ट रूप से चाबी भागवत के हाथ में होगी. कोई नहीं जानता कि क्या वह मौखिक हमले जारी रखेंगे, जो किसी पर लक्षित तो नहीं हैं. लेकिन उनके इरादे भी नहीं छिपते. गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही मोदी (PM Modi) ने आरएसएस और उसके नेताओं को दूर रखा है. उन्हें शासन और नीति पर सलाह देने से मना किया है. अगर आरएसएस को उनकी कार्यशैली पसंद नहीं आई तो भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. क्योंकि उन्होंने अपने वैचारिक लक्ष्यों का पीछा किया. हिंदुत्व को जन-जन तक ले जाना और विवादित, लंबे समय से लंबित उद्देश्यों को पूरा करना, जिसमें अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और अनुच्छेद 370 को हटाना शामिल है. लेकिन आरएसएस ने कभी भी मोदी की आत्म-प्रेम की प्रवृत्ति और उनके व्यक्तित्व पंथ को बढ़ावा देने का समर्थन नहीं किया. संघ परिवार के भीतर एक लंबे समय से चला आ रहा सिद्धांत है कि व्यक्ति हमेशा संगठन से गौण होता है; मोदी ने लगातार इसका उल्लंघन किया है.

शब्दों का युद्ध

अब यह स्पष्ट है कि आम चुनाव के प्रचार के दौरान आरएसएस के उत्साह की कमी दो नारों के कारण थी. जो उन्हें लगा कि उनके अहंकार का प्रतीक थे: 'मोदी की गारंटी' और ' अबकी बार, चार सौ पार '. आरएसएस पदाधिकारियों से जब पूछा गया कि वे सक्रिय रूप से प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं तो उन्होंने मजाकिया अंदाज में जवाब दिया: “अगर मोदी जीत सुनिश्चित करने की गारंटी ले रहे हैं तो हमारे प्रचार करने का क्या मतलब है?” एक अन्य उत्तर में थोड़ी अस्पष्टता रह गई - “देखते हैं कि हमारे प्रचार में शामिल हुए बिना वे क्या परिणाम लाते हैं.” चुनाव प्रचार में आरएसएस (RSS) की स्पष्ट उदासीनता के बावजूद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने आरएसएस नेतृत्व को खुश करने का कोई प्रयास नहीं किया और अहंकारी दावा किया कि भाजपा को अब आरएसएस (RSS) की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि पार्टी काफी सक्षम है और आरएसएस एक विशुद्ध वैचारिक संगठन है.

संबंधों की मरम्मत

लोकसभा के नतीजों ने यह साबित कर दिया कि भाजपा (BJP) को अभी भी आरएसएस (RSS) नेटवर्क की 'ज़रूरत' है. आखिरकार, भाजपा ने मेल-मिलाप की दिशा में पहला कदम उठाया. नड्डा और भाजपा के संगठन सचिव बीएल संतोष अगस्त में अखिल भारतीय समन्वय बैठक में भाग लेने के लिए केरल के पलक्कड़ गए. इसके परिणामस्वरूप आरएसएस (RSS) हरियाणा और बाद में महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा के लिए प्रचार करने के लिए वापस लौट आया. भागवत ने भी चुनावों के दौरान चुप्पी बनाए रखी. महत्वपूर्ण बात यह है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की जीत मोदी (PM Modi) के व्यापक प्रचार के बिना ही हासिल हुई. आरएसएस (RSS) इन जीतों को संगठन और हिंदुत्व विचारधारा की जीत मानता है.

निर्भरता में कमी

मूर्ति पूजन (किसी एक व्यक्ति की बेबाक मूर्तिपूजा) के विरोधी होने के बावजूद आरएसएस (RSS) को जन समर्थन हासिल करने के लिए व्यक्तियों के महत्व का पता था. हाल ही में हुए चुनावों के बाद बदला हुआ अर्थ यह है कि हिंदुत्व के लिए समर्थन सीमा पार कर गया है और इससे किसी भी व्यक्ति, यहां तक कि मोदी (PM Modi) पर निर्भरता कम हो गई है. अगर यह भावना बल पकड़ती है तो आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के लिए यह निष्कर्ष निकालना संभव है कि मोदी (PM Modi) जैसे किसी केंद्रीय व्यक्ति की अब कोई आवश्यकता नहीं है- नागपुर के प्रति वफादार 'कोई भी' नेता काम कर देगा.

महाराष्ट्र चुनाव के दौरान यह स्पष्ट था कि देवेंद्र फडणवीस आरएसएस (RSS) के चुने हुए व्यक्ति थे. इसके अलावा अक्टूबर में मथुरा में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में संघ के प्रमुखों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पूरा समर्थन दिया. उन्होंने बांग्लादेश के संदर्भ में दिए गए उनके विवादास्पद बहुसंख्यकवादी बयान का समर्थन किया: ' बटेंगे तो कटेंगे ' ('अगर हम अलग हुए तो हम मारे जाएंगे'), जिसे महाराष्ट्र चुनाव के नारे के रूप में विकसित किया गया - 'एक हैं तो सेफ हैं .'

चुनावी हलचल

आरएसएस (RSS) ने निर्विवाद रूप से भाजपा, खासकर मोदी (PM Modi) को अपनी चुनावी क्षमता का परिचय दिया है. दोनों के बीच बदले समीकरण में, यह संभावना है कि अगले भाजपा अध्यक्ष का चयन आरएसएस (RSS) नेतृत्व के साथ उचित परामर्श के बाद ही किया जाएगा. लेकिन मोदी कोई नौसिखिए राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि वे उतने ही तेज और चतुर हैं, जिनमें राजनीतिक सत्ता हासिल करने की जबरदस्त इच्छा है. वे ड्राइवर की सीट के अलावा कोई और सीट नहीं चाहते. एक दशक से अधिक समय के बाद जब आरएसएस (RSS) को पीछे की सीट पर धकेल दिया गया था. संघ परिवार पर राजनीतिक रूप से नज़र रखने का कार्य चुनौतीपूर्ण और रोमांचक होगा. आरएसएस (RSS) के भीतर 75 वर्ष की सेवानिवृत्ति की कोई नियमावली नहीं है. भागवत के तीन पूर्ववर्ती केएस सुदर्शन, राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) और बालासाहेब देवरस, जो कि सेवाकाल के दौरान नहीं मरे. ऐसे एकमात्र सरसंघचालक थे, जो 78-79 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त हुए थे.

सुविधा का प्रश्न

हालांकि, भाजपा (BJP) में यह नियम सुविधानुसार चलता रहा है. उदाहरण के लिए, जब मोदी (PM Modi) ने 2014 में भाजपा को उसकी प्रसिद्ध जीत दिलाने के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं किया. क्योंकि वे 75 साल से अधिक उम्र के थे. इसके बजाय, उन्हें नवगठित और महत्वहीन मार्गदर्शक मंडल में धकेल दिया गया, जिसकी कभी बैठक ही नहीं हुई. तब से भाजपा में इस आयु-संहिता के संबंध में बहुत कुछ हुआ है. जब आवश्यकता हुई तो इसे माफ कर दिया गया और जब किसी को 'जबरन' सेवानिवृत्त करना पड़ा तो इसका पालन किया गया. स्पष्ट रूप से 'सुविधा' मार्गदर्शक सितारा रही है.

उदाहरण के लिए आनंदीबेन पटेल ने 75 वर्ष की आयु पूरी करने से तीन महीने पहले ही अगस्त 2016 में गुजरात की मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था. हालांकि, बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया. जहां मोदी (PM Modi) को घटनाक्रम पर नजर रखने के लिए एक वफादार की जरूरत थी. पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार को इस वर्ष उत्तर प्रदेश के बरेली से टिकट नहीं दिया गया था. लेकिन बाद में उन्हें झारखंड का राज्यपाल बना दिया गया. जो एक ऐसा राज्य है, जहां प्रधानमंत्री को सतर्क और वफादार नजरों और कानों की जरूरत थी. दूसरी ओर कर्नाटक में पार्टी के कद्दावर नेता बीएस येदियुरप्पा को जब 2019 में मुख्यमंत्री बनाया गया, तब उनकी उम्र 76 वर्ष से अधिक थी. वे 78 वर्ष की उम्र तक पद पर बने रहे.

अनेक उदाहरण

ऐसे कई अन्य उदाहरण हैं, जहां यह 'नियमन' उन लोगों के लिए लागू किया गया जिन्हें मोदी (PM Modi) बाहर करना चाहते थे और जब पार्टी नेतृत्व के लिए किसी की उपस्थिति या बने रहना आवश्यक होता था तो इसमें छूट दे दी जाती थी. पिछले वर्ष मोदी ने अपने लिए इस नियम को माफ कर दिया था, जब उन्होंने 2029 में 79 वर्ष की आयु होने के बावजूद अपना तीसरा कार्यकाल पूरा करने के बारे में विश्वास व्यक्त किया था, जब इस लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होना है. शाह ने तुरंत उनकी बात का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि मोदी पूरे कार्यकाल तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे. लेकिन भाजपा (BJP) के संविधान में सेवानिवृत्ति का कोई प्रावधान नहीं है.

आइए याद करें कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले शाह ने क्या कहा था. जब आडवाणी, जोशी, सुमित्रा महाजन और कलराज मिश्र सहित 20 से ज़्यादा बीजेपी (BJP) के दिग्गजों को पार्टी के टिकट से वंचित कर दिया गया था. जब शाह से पूछा गया तो उन्होंने इस तथ्य का हवाला दिया कि वे 75 साल से ज़्यादा उम्र के हो चुके हैं. पहले गुजरात के विधायक और उसके बाद राज्यसभा सांसद रहे शाह ने अहमदाबाद से आडवाणी का लोकसभा टिकट हासिल किया.

केजरीवाल की 'भविष्यवाणी'

मई में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने कमरे में हाथी होने की बात कही थी. तिहाड़ जेल से अंतरिम जमानत पर रिहा होने के कुछ समय बाद उन्होंने कहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी (PM Modi) के पक्ष में किस्मत आजमाना अमित शाह को प्रधानमंत्री बनाने के समान होगा. ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि मोदी सितंबर 2025 में 75 साल की उम्र में राजनीति से संन्यास ले लेंगे और शाह उनके उत्तराधिकारी होंगे. यह स्पष्ट है कि '75 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्ति' भाजपा (BJP) का आधिकारिक रूप से स्वीकृत सिद्धांत नहीं है. इसके बजाय यह एक 'आदर्श' है जिसे चुनिंदा रूप से 'लागू' किया जाता है.

समय

कलह के दौर की शुरुआत के एक साल बाद, इस बात पर बहुत कम स्पष्टता है कि आरएसएस-मोदी समीकरण 2025 तक हल हो जाएगा या नहीं. मोदी किसी और से ज़्यादा, जानते हैं कि आरएसएस (RSS) के नेता उनके जैसे अपने कार्यकाल को लेकर अड़े नहीं रहते. इससे उन्हें ऐसे फ़ैसले लेने की आज़ादी मिलती है. जो अल्पकालिक असफलताओं का कारण बन सकते हैं. फिर भी, इस समय कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता. किसी भी संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता. यह तो समय ही बताएगा कि यह अमृत काल किसका होगा. लेकिन, निश्चित रूप से मोदी को इससे पहले इतनी बड़ी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा है, चाहे वह बाहर से हो या भीतर से.

(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है. लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक के हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों.)

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