ईरान और इज़राइल के बीच सीज़फायर फिलहाल बना हुआ है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस सीज़फायर को सफल बनाने का श्रेय खुद को दिया है। साथ ही उन्होंने सीज़फायर की घोषणा के बाद भी ईरान पर बमबारी करने के लिए इज़राइल की कड़ी आलोचना की। उन्होंने यह भी कहा कि सीज़फायर के बाद ईरान द्वारा इज़राइल पर मिसाइल हमले करना भी गलत था।
इस संघर्ष की शुरुआत इज़राइल ने की थी। 13 जून को इज़राइल ने ईरान की परमाणु सुविधाओं पर हवाई हमले किए, जिससे लड़ाई शुरू हुई। इज़राइली प्रधानमंत्री ने कहा कि ये हवाई अभियान तब तक जारी रहेगा जब तक उनकी सेना ईरान से परमाणु खतरे को पूरी तरह समाप्त नहीं कर देती। हवाई हमलों के अलावा, इज़राइल की खुफिया एजेंसी ने ईरान के भीतर जाकर ईरानी सैन्य कमांडरों और परमाणु वैज्ञानिकों की गुप्त हत्याएं भी कीं।
इसके जवाब में ईरान ने इज़राइल पर मिसाइल दागे। इज़राइल को भरोसा था कि उसका 'आयरन डोम' उसे इन हमलों से बचा लेगा, लेकिन कुछ ईरानी मिसाइल इस प्रणाली को भेदते हुए देश की आधारभूत संरचनाओं को नुकसान पहुंचाने में सफल रहे।
इस पूरे संघर्ष की शुरुआत से ही अमेरिका की सहानुभूति इज़राइल के साथ रही, क्योंकि दोनों देशों के बीच रणनीतिक हित जुड़े हुए हैं। इनमें सबसे अहम है, ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना। इसी कारण ट्रंप ने 22 जून को ईरान के फोर्डो, नतांज़ और इस्फहान में स्थित परमाणु ठिकानों पर बमबारी का आदेश दिया।
फोर्डो एक ऐसा ठिकाना है जो पहाड़ों के भीतर बहुत गहराई में स्थित है, जिसे इज़राइल अकेले नष्ट नहीं कर सकता था। ऐसे में अमेरिका ने अपने B-2 बॉम्बर्स से सबसे शक्तिशाली गैर-परमाणु बम गिराए जो भूमिगत संरचनाओं को भेद सकते हैं।
इस हमले के बाद यह अनिश्चितता थी कि ईरान क्या जवाब देगा। इस्लामी देशों में अमेरिका के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों की भी आशंका थी। कई विश्लेषकों का मानना था कि ईरान खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी ठिकानों पर हमला कर सकता है और संभवतः होरमुज़ जलडमरूमध्य को भी बंद कर सकता है, जो वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति के लिए महत्वपूर्ण मार्ग है। इसका असर वैश्विक शेयर बाजारों और कच्चे तेल की कीमतों पर भी पड़ा।
इस बीच ट्रंप ने ईरान को चेतावनी दी कि यदि उसने अमेरिका के हितों पर हमला किया, तो उसे और भी कठोर हवाई हमलों का सामना करना पड़ेगा।
जंग के हालात के बीच बैकडोर बातचीत
जहां एक ओर सार्वजनिक बयानबाज़ी चल रही थी, वहीं दूसरी ओर अमेरिका, ईरान और क़तर के बीच, जहां अमेरिका का सबसे बड़ा खाड़ी सैन्य अड्डा है, कूटनीतिक प्रयास भी जारी थे। कुछ लोगों को यह हैरानी हो सकती है, लेकिन दुनिया ऐसे ही चलती है, हथियारबंद संघर्ष के बीच भी कूटनीति जारी रहती है। और जब कूटनीति चल रही होती है, तब भी हिंसक कदम उठाए जाते हैं।
ऐसे मामलों में जब पूरी तरह से युद्ध नहीं होता, तो राजनयिक प्रयास हमेशा चलते रहते हैं। कई बार बड़ी शक्तियां संघर्ष समाप्त करने के लिए हस्तक्षेप करती हैं। हालांकि, कई नेता जैसे ट्रंप, कूटनीतिक जीत का श्रेय लेना पसंद करते हैं, भले ही वास्तविकता कुछ और हो।
इस मामले में अमेरिका को यह समझ आ गया था कि एक गौरवशाली देश होने के नाते ईरान का अहं उसे कोई न कोई प्रतिक्रिया देने के लिए बाध्य करेगा। संभवतः क़तर की मध्यस्थता से अमेरिका और ईरान ने यह व्यवस्था बनाई कि ईरान, क़तर में स्थित अमेरिकी अल-उदीद हवाई अड्डे पर मिसाइल हमला करेगा। ईरान समय की जानकारी क़तर को देगा, और क़तर उसे अमेरिका को बता देगा ताकि वह बचाव की तैयारी कर सके।
यही हुआ 23 जून को। अमेरिका ने सभी ईरानी मिसाइलों को निष्क्रिय कर दिया। क़तर ने औपचारिक रूप से अपनी संप्रभुता के उल्लंघन के खिलाफ ईरान से विरोध जताया, लेकिन वह केवल औपचारिकता थी।
अंततः, 24 जून की सुबह (अमेरिकी समय के मुताबिक) में ट्रंप ने इज़राइल और ईरान के बीच सीज़फायर की घोषणा कर दी। ईरान ने पहले ही कहा था कि यदि इज़राइल उसके खिलाफ हवाई हमले बंद कर दे, तो वह मिसाइल हमले रोक देगा।
कई सवाल अनसुलझे हैं
अब कुछ अहम सवाल उठे हैं, जिनका लंबे समय तक विश्लेषण किया जाएगा, कुछ अपेक्षित प्रतिक्रियाएं क्यों नहीं हुईं? ईरान का परमाणु हथियार बनाने का लक्ष्य कितना आगे बढ़ पाया या रोका जा सका? क्या ईरान में सत्ता परिवर्तन (regime change) की संभावना है?
दुनिया का कोई भी देश नहीं चाहता कि ईरान परमाणु हथियार बनाए। इस युद्ध के बाद इज़राइल निश्चित ही और मजबूती से इसे रोकने की कोशिश करेगा। ईरानी मिसाइलों द्वारा इज़राइल के ‘आयरन डोम’ को भेद पाने की क्षमता ने यह दिखा दिया है कि अगर ईरान परमाणु हथियार बना लेता है, तो यह पूरे पश्चिम एशिया की सुरक्षा व्यवस्था को बदल कर रख देगा।
अगर ईरान परमाणु शक्ति बन जाता है, तो वह अपने प्रॉक्सी गुटों जैसे हमास और हिज़्बुल्लाह को और सशक्त बनाएगा। ऐसे में इज़राइल गाज़ा जैसे इलाकों पर पहले की तरह आसानी से हमले नहीं कर पाएगा, भले ही उसके पास स्वयं परमाणु हथियार हों।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि ईरान के परमाणु ठिकानों को कितना नुकसान पहुंचा है। ट्रंप का दावा है कि सब कुछ तबाह हो गया, लेकिन अमेरिकी मीडिया में लीक रिपोर्ट्स बताती हैं कि अमेरिकी रक्षा विभाग के अनुसार ईरानी परमाणु कार्यक्रम को केवल कुछ महीनों के लिए रोका जा सका है।
अगर ऐसा है, तो ईरान यूरेनियम संवर्धन का अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं होगा। उसके पास पहले से संवर्धित यूरेनियम का भंडार भी है, जिसे जल्द ही बम-ग्रेड स्तर तक पहुंचाया जा सकता है।
ट्रंप एक समझौता चाहते हैं और ईरान भी। लेकिन अब जबकि अमेरिका ने हमला किया है, ईरान शायद बातचीत तो करेगा, लेकिन भीतर ही भीतर परमाणु हथियार बनाने की कोशिश जारी रखेगा। उसे मालूम है कि उत्तर कोरिया पर अमेरिका कुछ नहीं कर पाया, क्योंकि उसके पास परमाणु हथियार और उसे पहुँचाने की क्षमता दोनों हैं। इसलिए ईरान के लिए उत्तर कोरिया का रास्ता बहुत आकर्षक लग सकता है।
आने वाले वर्षों में दुनिया का ध्यान ईरान के परमाणु कदमों और अमेरिका-इज़राइल की प्रतिक्रिया पर रहेगा। बातचीत भी चलती रहेगी, लेकिन यह पक्का नहीं कहा जा सकता कि इससे ईरान परमाणु हथियार बनाने से रुकेगा।
शासन परिवर्तन का क्या मतलब है?
इस शब्द का प्रयोग अक्सर होता है, लेकिन इसका अर्थ होता है, वर्तमान शासन प्रणाली को बदलना। ईरान में सबसे बड़ा अधिकार एक धार्मिक नेता के पास होता है जिसे कुछ चुनिंदा मौलवी चुनते हैं। वहाँ राष्ट्रपति और संसद तो चुने जाते हैं, लेकिन चुनाव लड़ने की इजाज़त सिर्फ उन्हीं लोगों को मिलती है जिन्हें धार्मिक नेताओं की मंज़ूरी हो।
इस व्यवस्था को "विलायत-ए-फक़ीह" कहा जाता है, जिसे आयतुल्ला खुमैनी ने 1979 में शाह के पतन के बाद लागू किया था। यह प्रणाली व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को प्रतिबंधित करती है और महिलाओं पर काफी कठोर है।
इस व्यवस्था के खिलाफ कुछ विरोध प्रदर्शन हुए हैं, लेकिन इसे रिवोल्यूशनरी गार्ड्स द्वारा बखूबी संरक्षित किया गया है, जो जनता पर बल प्रयोग से नहीं हिचकते। इस व्यवस्था को चुनौती देने के लिए कोई संगठित राजनीतिक ताकत या दल इस समय मौजूद नहीं है।
वर्तमान सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खामेनेई 86 वर्ष के हैं और आने वाले वर्षों में उनका उत्तराधिकारी चुना जाएगा। यह उत्तराधिकारी भले ही नया हो, लेकिन इससे शासन व्यवस्था में बदलाव नहीं होगा, केवल व्यक्ति बदलेगा, व्यवस्था नहीं। और निकट भविष्य में इस व्यवस्था के बदलने की संभावना भी कम ही है।