11 साल में बदल गया लोकतंत्र का चेहरा: मोदी युग में एक अनोखा भारत
लोकतंत्र की आत्मा की रक्षा तब ही हो सकती है, जब राजनीति में पारदर्शिता आए, संवैधानिक संस्थानों की स्वतंत्रता बनी रहे और प्रभावशाली पार्टियां जनता के साथ खड़ी हों।;
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुतबा अब Jawaharlal Nehru और Indira Gandhi जैसे इतिहास के महान प्रधानमंत्रियों के बराबर रही मानी जा रही है। यह तुलना ऐसे समय हो रही है, जब 2024 के लोकसभा चुनावों में उनकी ताकत पर सवाल उठे थे। पिछले 11 साल से लगाार सत्ता संभालने वाले मोदी ने तीन बार सीधे लोकसभा चुनाव जीते हैं—जो एक बड़ी उपलब्धि है।
साल 1962 में जवाहरलाल नेहरू ने बिना किसी परेशानी के तीसरा चुनाव जीता था। मोदी इसका स्तर छूना चाहते थे। लेकिन वे उसमें काफी पीछे रह गए। नतीजा यह हुआ कि पार्टी में असंतोष की स्थिति बन सकती है—विशेषकर जब परिस्थितियां अनुकूल न हों। मोदी भले ही सत्ता में बने हों, लेकिन सीधे जनता से वोट नहीं मिले। उनकी पार्टी को अकेले जीत दर्ज करने में कठिनाई आई, इसलिए गठबंधन की मदद से सरकार बनी। यह लोकतंत्र के लिए संकेत हो सकता है कि वास्तविक जनादेश की बजाय राजनीतिक गणना ज़्यादा मायने रखती देखी जा रही है।
लोकसभा चुनाव के दौरान स्वतंत्रता की भावना को नजरअंदाज करना देश के संविधान के मूल्यों के खिलाफ हो सकता है। चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान चाहे कितने भी दावे करें, लोगों को भरोसा होना चाहिए—जो आज गहराए संदिग्धता की वजह से खोता दिखाई दे रहा है।
2024 के चुनाव में कम से कम 75 सीटों पर परिणाम विवादास्पद बताए गए हैं। विपक्ष और विश्लेषकों ने चुनाव आयोग पर सरकारी दखल और दबाव का आरोप लगाया। खासकर दिसंबर 2023 में चुनाव आयोग के सदस्यों को नामित करते समय जो बदलाव किए गए, उन्हें प्रशासन केंद्र द्वारा नियंत्रित करने की कोशिश कहा जा रहा है। इस बदलाव के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश—जो पहले चयन प्रक्रिया में शामिल थे—को हटा दिया गया और उनकी जगह एक केंद्रीय मंत्री को नियुक्त किया गया।
लोकतंत्र की धज्जियां?
चुनाव आयोग ने उस समय होने वाले सवालों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया, बल्कि सिर्फ प्रक्रियाओं का ज़िक्र करता रहा। इसके साथ ही, मीडिया पर भी दबाव के कारण स्वतंत्र रिपोर्टिंग में कमी आई मानी जा रही है। राजनीतिक लोग आयोग को आड़े हाथों लेते रहे, लेकिन इससे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही हैं—क्योंकि असल में इसे जनता के प्रति अवमानना की तरह देखा जा रहा है।
कांग्रेस की आवाज़ खो गई
कांग्रेस ने चुनाव आयोग पर कमीशन पर सवाल उठाए, लेकिन उसने सक्रिय विरोध आन्दोलन शुरू नहीं किया। सिर्फ ट्विटर और प्रेस कॉन्फ्रेंस तक ही सीमित रही इस लड़ाई की गूंज। कांग्रेस का वास्तविक मूल्य तभी बच सकता था, जब वह आम जनता को सड़कों पर ले जाती, जैसे कुछ दशकों पहले हुआ था। ऐसा न होने से खुद कांग्रेस की कमजोरता सामने आई है और राजनीतिक सत्ता के हस्तक्षेप को नियंत्रित नहीं कर पाई।
लोकतंत्र की समाप्ति?
चुनाव आयोग और विपक्ष दोनों पर कटाक्ष में व्यापक सेंध-मारी देखी गई है, खासकर हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों में। सरकारी दबाव से छाया दिखा और लोकतंत्र से संबंधित संस्थानों को कमजोर करने का आरोप लगा। ऐसे में यह सवाल है कि क्या हम लोकतंत्र की आत्मा खो रहे हैं? चुनाव तो जीतने लगेंगे, लेकिन जनता की उम्मीद और विश्वास खोता जा रहा है। यही सबसे बड़ी ख़तरा है—नई पीढ़ी का विश्वास टूटना।
अगले साल बिहार चुनाव और शायद कई राज्यों की विधानसभा चुनाव भी इसी तरह की रणनीतिक ढ़ांचे में हो सकते हैं। यदि कांग्रेस जैसी पार्टी अपनी जवाबदेही और स्पष्ट आवाज़ नहीं रखती तो लोकतांत्रिक संस्थानों का भारी नुकसान हो सकता है।