जातीय रैलियों पर रोक, क्या सचमुच बदलेगी यूपी की सियासत?

उत्तर प्रदेश में जातीय रैलियों पर रोक और “I Love Muhammad” विवाद ने सियासत गरमा दी है। चुनावी मौसम में जाति और धर्म दोनों मुद्दे उभर रहे हैं।

Update: 2025-09-24 01:49 GMT
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यह पूरा घटनाक्रम उत्तर प्रदेश की राजनीति में नए और खतरनाक मोड़ का संकेत देता है। आमतौर पर नेता एक समय में या तो जातीयता (casteism) या सांप्रदायिकता (communalism) का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इस समय दोनों को एकसाथ साधा जा रहा है।

जाति पर यूपी सरकार का बड़ा आदेश

21 सितंबर को योगी सरकार ने एक 10-सूत्रीय आदेश जारी किया, जिसमें जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध, गाड़ियों व बोर्डों पर जाति-नाम लिखने की मनाही और पुलिस रिकॉर्ड में जाति के उल्लेख पर रोक शामिल है।

सरकार का कहना है कि इसका उद्देश्य जातीय भेदभाव को खत्म करना है। आदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट के 16 सितंबर के फैसले पर आधारित है। हालांकि यह फैसला दरअसल शराब तस्करी से जुड़े एक मामले में आया था, न कि जातिगत भेदभाव से जुड़े किसी केस में।

फिर भी आदेश का असली असर राजनीतिक गतिविधियों पर है, क्योंकि इसमें जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। सरकार का तर्क है कि ऐसी रैलियां “सामाजिक संघर्ष” पैदा करती हैं और “राष्ट्रीय एकता व कानून-व्यवस्था” के लिए खतरा हैं।

I Love Muhammad विवाद

इसी दौरान लगभग 90 किलोमीटर दूर कानपुर में एक अलग विवाद खड़ा हो गया। 4 सितंबर को बारावफात (ईद-ए-मिलादुन्नबी) के जुलूस के दौरान एक बैनर लगाया गया, जिस पर लिखा था — “I Love Muhammad”।हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया और कहा कि यह “नई परंपरा” शुरू की जा रही है। पुलिस ने हस्तक्षेप किया और बैनर हटा दिया।

डीसीपी दिनेश त्रिपाठी ने कहा कि सरकार के नियम धार्मिक जुलूसों में नई परंपराओं को जोड़ने की अनुमति नहीं देते। बैनर हटाने की कार्रवाई इसी आधार पर की गई। हालांकि घटना के दौरान हिंदू और मुस्लिम समूहों ने एक-दूसरे पर पोस्टर फाड़ने का आरोप लगाया। इससे माहौल और बिगड़ा।

मुकदमे और राजनीतिक बवाल

9 सितंबर को कानपुर पुलिस ने 24 लोगों पर मुकदमा दर्ज किया, जिन पर आरोप था कि उन्होंने नई परंपरा जोड़ी और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ा।15 सितंबर को AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि I Love Muhammad कहना कोई अपराध नहीं है। उन्होंने पुलिस कार्रवाई की आलोचना की और विवाद राष्ट्रीय स्तर पर फैल गया।

इसके बाद यह आंदोलन कानपुर से निकलकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों  उन्नाव, बरेली, कौशांबी, लखनऊ, महाराजगंज और राज्य के बाहर उत्तराखंड, तेलंगाना और महाराष्ट्र तक फैल गया। कई जगह जुलूस और विरोध प्रदर्शन हुए, कुछ जगह पुलिस से झड़पें भी हुईं।उत्तर प्रदेश में एक ओर सरकार जाति की राजनीति पर अंकुश लगाने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर धर्म आधारित विवादों को सख्ती से संभालने में जुटी है। लेकिन दोनों घटनाएं मिलकर यह दिखा रही हैं कि राजनीति अब जाति और धर्म दोनों के संवेदनशील मुद्दों पर एकसाथ प्रयोग करने लगी है  जिससे आने वाले चुनावी मौसम में माहौल और ज़्यादा गरम हो सकता है।

पूर्व आईएएस अधिकारी वी.एस. पांडे का कहना है कि 2017 से सत्ता में आने के बाद योगी आदित्यनाथ सरकार सभी मोर्चों पर विफल रही है। उनके अनुसार, “हिंदुत्व अब कारगर नहीं रहा, इसलिए सरकार जाति और धर्म दोनों को साधने की कोशिश कर रही है। यह एक हताश कदम है।

जाति आधारित रैलियों पर रोक

हाल ही में जारी आदेश में जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध लगाया गया है। पांडे इसे अव्यावहारिक मानते हैं। उनका कहना है, “जब राजनीति का मुख्य आधार ही जाति है, तो जातीय रैलियों पर रोक का क्या अर्थ है? अखिलेश यादव और मायावती जैसी पार्टियों से यह उम्मीद करना कि वे जातीय रैलियां नहीं करेंगी, अवास्तविक है। आखिर नेता करेंगे क्या, अगर जाति की राजनीति नहीं करेंगे?”

पुलिस रिकॉर्ड में बड़ा बदलाव

इस आदेश के तहत अब अधिकांश पुलिस रिकॉर्ड्स एफआईआर, गिरफ्तारी और जब्ती मेमो में आरोपी की जाति नहीं लिखी जाएगी। इसके बजाय आरोपी के पिता के साथ मां का नाम दर्ज करने का प्रावधान है। हालांकि, एससी/एसटी एक्ट जैसे मामलों में जाति का उल्लेख अनिवार्य रहेगा।इसके अलावा, सोशल मीडिया पर भी जातीय घृणा या किसी जाति का महिमामंडन करने वाले संदेशों पर कड़ी निगरानी रखी जाएगी और दोषियों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी।

अदालत की पृष्ठभूमि और कानूनी भ्रांति

सरकार का यह कदम इलाहाबाद हाईकोर्ट के प्रवीण छेत्री बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले से जुड़ा है। अप्रैल 2023 में शराब तस्करी के आरोप में गिरफ्तार छेत्री ने केस खत्म करने की मांग की थी।जस्टिस विनोद दिवाकर ने केस की सुनवाई में पाया कि पुलिस ने आरोपियों की जाति—‘माली’, ‘पहाड़ी राजपूत’, ‘ठाकुर’, ‘ब्राह्मण’ का उल्लेख एफआईआर और जब्ती मेमो में किया था।

अदालत ने इसे पिछड़ेपन और आधुनिक, प्रगतिशील भारत के विचार के विपरीत बताया। जस्टिस दिवाकर ने डीजीपी से पूछा कि जब पहचान के लिए आधार, फिंगरप्रिंट और मोबाइल कैमरे जैसे आधुनिक साधन मौजूद हैं, तो जाति का उल्लेख क्यों किया जाए। उन्होंने इसे कानूनी भ्रांति करार दिया।

भाजपा और जाति की चुनौती

राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी का मानना है कि इस आदेश की तत्कालिक वजह समझना कठिन है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या यह विपक्षी दलों की जाति आधारित लामबंदी को रोकने की चाल है?स्रोतों का कहना है कि 2024 लोकसभा चुनावों में भाजपा को सबसे ज्यादा झटका जातिगत समीकरणों ने दिया। यही वजह है कि भाजपा के लिए यह मुद्दा सबसे बड़ी चुनौती है।

कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि योगी आदित्यनाथ पर “ठाकुर-प्रेमी” होने का ठप्पा लग चुका है, और यह कदम उन्हें “जाति-निरपेक्ष नेता” की छवि देने की कोशिश हो सकता है, खासकर 2027 विधानसभा चुनाव से पहले।

आई लव मुहम्मद विवाद और मुस्लिम समुदाय की अपील

इसी बीच, बरेली की जामा मस्जिद के इमाम मुफ़्ती खुर्शीद आलम ने मुसलमानों से अपील की कि वे अपने घरों के दरवाजों पर “I Love Muhammad” के पोस्टर लगाएं। उनका कहना था कि “पैगंबर से मोहब्बत हमारे ईमान का हिस्सा है और इसे दुनिया के सामने दिखाना चाहिए।”

उत्तर प्रदेश की सियासत इस समय जाति और धर्म के बीच झूल रही है। एक ओर सरकार जाति-आधारित राजनीति पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रही है, दूसरी ओर धार्मिक नारों और प्रतीकों पर विवाद खड़े हो रहे हैं।इतिहास बताता है कि अगर ऐसे आंदोलनों की आग राज्य की सीमाओं से बाहर फैली, तो उसके नतीजे देश के लिए गंभीर हो सकते हैं।

(फेडरल सभी पक्षों के विचारों और राय को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें)

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