"ट्रंप के टैरिफ झटकों से जूझ रहे ब्राज़ील और अन्य देशों से भारत को क्या सीखना चाहिए"
चीन या कनाडा की तरह भारत ने अमेरिका पर जवाबी टैरिफ नहीं लगाया और न ही WTO में मामला उठाया है। इसका नतीजा यह है कि भारतीय निर्यातक अमेरिकी बाज़ार में बड़ी मुश्किल में फँस गए हैं।;
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने “माफिया बॉस” जैसी दबंग रणनीति अपनाते हुए भारत और ब्राज़ील पर 50% का बर्बाद कर देने वाला शिकारी टैरिफ थोप दिया है। इन दोनों देशों की विपरीत प्रतिक्रियाएँ रणनीतिक प्रतिरोध और पंगु निष्क्रियता की कहानी बयां करती हैं।
ब्राज़ील का आक्रामक प्रतिरोध
ब्राज़ील ने पलटवार करते हुए अमेरिका के खिलाफ WTO में व्यापक व्यापार विवाद दायर किया है और अमेरिकी उत्पादों पर प्रतिशोधी कदम उठाने का अधिकार सुरक्षित रखा है। ब्राज़ील के वित्त मंत्री फर्नांडो हद्दाद ने कहा, “अमेरिका ब्राज़ील पर ऐसा समाधान थोपना चाहता है जो संवैधानिक रूप से असंभव है… यह एक गतिरोध है, ऐसी मांग जिसे पूरा नहीं किया जा सकता।”
भारत की गैर-टकराव वाली नीति
इसके विपरीत, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय सरकार चुप्पी साधे हुए है और अब तक WTO में अमेरिका के एकतरफा और कथित रूप से अवैध टैरिफ को चुनौती देने से बची हुई है।
नई दिल्ली ने अमेरिकी उत्पादों के खिलाफ प्रतिशोध का कोई इरादा नहीं दिखाया है, जबकि यह समानांतर रूप से रूस के साथ साझेदारी मजबूत कर रहा है और चीन के साथ कूटनीतिक रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहा है।
29 अगस्त से भारतीय निर्यातों पर 50% का विनाशकारी टैरिफ लागू होने जा रहा है। मोदी प्रशासन घबराहट में जूझता दिख रहा है। MEGA (Make America Great Again) + MIGA (Make India Great Again) पर आधारित पाँच साल में 500 अरब डॉलर के व्यापार लक्ष्य का सपना अब टूटकर सिर्फ MAGA रह गया है।
भारतीय निर्यातकों पर इस कूटनीतिक असफलता का पूरा बोझ आ गया है। अमेरिकी बाज़ार में उनका सफाया हो रहा है और प्रतिद्वंद्वी देश उनका हिस्सा हथिया रहे हैं। वैकल्पिक बाज़ारों जैसे रूस की ओर रुख करने की कोशिशें भी उम्मीद नहीं जगातीं।
MEGA व्यापार समझौते का पतन
अमेरिका ने द्विपक्षीय व्यापार समझौते की छठी दौर की वार्ता निलंबित कर भारत को एक और बड़ा झटका दिया है। कृषि और डेयरी क्षेत्र में अमेरिकी उत्पादों के लिए बाज़ार खोलने जैसे अहम मुद्दों पर कोई समझौता संभव नहीं दिखता।
कपास आयात पर अस्थायी छूट जैसी छोटी राहतें भारतीय निर्यातकों के लिए नगण्य हैं।
18 अगस्त को Financial Times में व्हाइट हाउस सलाहकार पीटर नवारो ने भारत की तेल लॉबी, खासकर गुजरात की अंबानी रिफाइनरियों पर हमला बोला। उन्होंने आरोप लगाया कि भारतीय रिफाइनरियां रूसी कच्चे तेल को प्रोसेस कर वैश्विक बाज़ार में बेच रही हैं और इस तरह पुतिन की युद्ध मशीन को सहारा दे रही हैं।
चयनात्मक आक्रोश
नवारो की आलोचना में चीन या पश्चिमी देशों का ज़िक्र नहीं है जो रूसी तेल खरीद रहे हैं। इसके बजाय उन्होंने दोहराया कि “भारत दुनिया में सबसे ऊँचे औसत टैरिफ लगाता है और गैर-पारस्परिक बाधाओं का जाल बुनता है जिससे अमेरिकी कामगार और व्यवसाय प्रभावित होते हैं।”
अमेरिकी ट्रेज़री सचिव स्कॉट बेसेंट ने भी आरोप लगाया कि रूस से तेल आयात का लाभ भारत के सबसे अमीर घरानों को मिल रहा है।
WTO को दरकिनार करने का सवाल
भारत अब एक अभूतपूर्व संकट में फँसा है। अमेरिका की चोट के बावजूद सरकार मुक्त व्यापार समझौतों की खोखली बातें करती रहती है। पूर्व भारतीय व्यापार प्रतिनिधि ने EU, न्यूज़ीलैंड और CPTPP देशों के साथ द्विपक्षीय समझौतों की रफ़्तार तेज़ करने की सलाह दी है, लेकिन ये देश भी अपनी सुरक्षा नीतियों और प्रतिबंधों (जैसे कार्बन टैक्स और वनों की कटाई नियम) को लागू कर रहे हैं।
साम्राज्यवादी प्राथमिकताएँ
ट्रंप ने दक्षिण अफ्रीकी वस्तुओं पर 30%, भारतीय निर्यातों पर 25% (जो माह के अंत तक 50% होगा) और ब्राज़ीलियाई वस्तुओं पर 50% टैरिफ लगाया है। ये कदम WTO और GATT के नियमों का उल्लंघन करते हैं।
पूर्व अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि माइकल फ्रॉमन ने लिखा, “वैश्विक व्यापार प्रणाली अब मर चुकी है। WTO न तो वार्ता कर पा रहा है, न निगरानी और न ही सदस्य देशों की प्रतिबद्धताओं को लागू।”
ट्रंप प्रशासन ने दावा किया था कि “90 दिन में 90 समझौते” होंगे, लेकिन अब तक अमेरिका ने केवल कुछ देशों से ही सौदे किए हैं और अपने प्रमुख साझेदार—मेक्सिको, कनाडा और चीन—से कोई समझौता नहीं किया है।
भारत पर सीधा वार
भारत पर लगाया गया 50% टैरिफ दो हिस्सों में बँटा है: 25% अमेरिकी कृषि उत्पादों को बाज़ार न देने के लिए सज़ा और 25% रूस से सस्ता तेल खरीदने के लिए।
क्या भारत गंभीर है?
चीन या कनाडा की तरह भारत ने न तो प्रतिशोधी टैरिफ लगाया है और न ही WTO में औपचारिक विवाद दायर किया है। BRICS में इसकी आधी-अधूरी भागीदारी और चीन के साथ हिचकिचाती नज़दीकी पर सवाल उठ रहे हैं।
जैसे-जैसे व्यापार का फंदा कस रहा है, भारत एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है—क्या यह निष्क्रिय और असंगत रवैये पर कायम रहेगा या फिर ठोस रणनीति बनाकर इस संकट से निपटेगा? भारतीय निर्यातकों और देश के आर्थिक भविष्य के लिए दांव कभी इतने बड़े नहीं रहे।
(द फ़ेडरल सभी पक्षों के विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। आलेखों में व्यक्त जानकारी, विचार या राय लेखक के निजी हैं और ज़रूरी नहीं कि वे द फ़ेडरल के विचारों को दर्शाते हों)