युद्ध अपराधों के लिए 4 श्रीलंकाई नागरिकों पर प्रतिबंध लगाने के कदम से पाखंड की बू क्यों आता है?
ब्रिटेन कोलंबो के खिलाफ इसलिए कार्रवाई कर रहा है ताकि वह घरेलू समुदाय, श्रीलंकाई मूल के तमिल प्रवासी, को खुश कर सके, जिनमें से कुछ अब भी LTTE विचारधारा के प्रति निष्ठावान हैं।;
ब्रिटेन तीसरा पश्चिमी देश बन गया है जिसने श्रीलंका में गृह युद्ध के दौरान किए गए युद्ध अपराधों के लिए कुछ श्रीलंकाई व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। यह युद्ध 16 साल पहले समाप्त हुआ था। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस निर्णय से न तो श्रीलंका को लाभ होगा और न ही वहां के तमिल अल्पसंख्यकों को।
बेशर्मी से दोहरी नीति अपनाने और घरेलू राजनीतिक कारकों के कारण ही ब्रिटेन ने श्रीलंकाई सेना के पूर्व कमांडरों - शवेंंद्र सिल्वा, जगत जयसूर्या, पूर्व नौसेना प्रमुख वसंथा करन्नागोड़ा और पूर्व LTTE नेता विनयगामूर्ति मुरलीथरन उर्फ़ करुणा के खिलाफ कदम उठाया है।
इन प्रतिबंधों में उनकी संपत्तियों को फ्रीज करना और यात्रा पर प्रतिबंध लगाना शामिल है। यह कार्रवाई श्रीलंका और विदेशों में अधिकार कार्यकर्ताओं तथा तमिल कार्यकर्ताओं, विशेष रूप से उन लोगों के निरंतर दबाव के कारण हुई है, जो अब भी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) की अलगाववादी विचारधारा से जुड़े हुए हैं।
अमेरिका और कनाडा के प्रतिबंध
सिल्वा, जिन्होंने 2009 में LTTE और उसके नेतृत्व का सफाया करने वाली 58वीं सेना डिवीजन का नेतृत्व किया था, और करन्नागोड़ा, जो 2005-09 के दौरान नौसेना प्रमुख थे, उन कई श्रीलंकाई अधिकारियों में शामिल थे जिन पर 2020 में अमेरिका ने गंभीर मानवाधिकार हनन के आरोप में प्रतिबंध लगाया था। सिल्वा और करन्नागोड़ा तथा उनके परिवारों को अमेरिका की यात्रा करने से रोक दिया गया है।
तीन साल बाद, 2023 में, कनाडा ने चार श्रीलंकाइयों पर प्रतिबंध लगाए, जिन पर सशस्त्र संघर्ष के दौरान अत्याचारों के लिए सीधे जिम्मेदार होने का आरोप था।
इनमें महिंदा राजपक्षे और उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्षे शामिल थे। महिंदा उस समय श्रीलंका के राष्ट्रपति थे जब LTTE को सैन्य रूप से कुचला गया था, जबकि गोटबाया रक्षा सचिव के रूप में इस युद्ध का संचालन कर रहे थे। बाद में गोटबाया देश के राष्ट्रपति बने।
ओटावा ने उनकी संपत्तियों को फ्रीज कर दिया, उन्हें वित्तीय सेवाओं तक पहुंच से वंचित कर दिया और उन्हें कनाडा में प्रवेश के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।
नया मोड़
ब्रिटेन द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों में करुणा का शामिल किया जाना एक उल्लेखनीय बदलाव था। करुणा, जो LTTE के पूर्व पूर्वी क्षेत्रीय कमांडर थे, 2004 में संगठन से अलग हो गए थे। उनकी बगावत और उनके प्रति वफादार सैकड़ों लड़ाकों के अलग होने के कारण LTTE को सैन्य झटके लगे और अंततः उसका विनाश हो गया।
क्या श्रीलंका में गृह युद्ध के अंतिम चरण के दौरान युद्ध अपराध हुए थे? इसका सीधा उत्तर है – हां। कुछ क्रूरताओं और अत्याचारों का दस्तावेजीकरण किया गया है, जबकि कई को दर्ज नहीं किया गया।
कोई संदेह नहीं कि 2009 में LTTE के तेजी से घटते गढ़ पर किए गए सैन्य हमले में कई निर्दोष तमिल नागरिक मारे गए, जिनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि वे तमिल टाइगर क्षेत्र में फंसे हुए थे।
मानवाधिकारों का उल्लंघन
लेकिन यह पूरी कहानी का सिर्फ एक हिस्सा है। इस सदी के सबसे भयावह गृह युद्धों में से एक में दोनों पक्ष – श्रीलंकाई सेना और LTTE – ने मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन किया और निर्दोषों को मारा। दोनों ने अपनी हिरासत में बंद कैदियों को यातनाएं दीं।
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पश्चिमी सरकारें लगातार श्रीलंकाई सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाती हैं और LTTE की अनदेखी करती हैं।
ब्रिटिश प्रतिबंध में करुणा को एक पूर्व LTTE कमांडर के रूप में वर्णित किया गया है, जिसने बाद में एक अर्धसैनिक समूह का नेतृत्व किया, जो श्रीलंकाई सेना के लिए काम करता था। इसका मतलब यह है कि करुणा के LTTE छोड़ने के बाद की गतिविधियों को लक्ष्य बनाया जा रहा है, जबकि उनके पुराने अपराधों को नजरअंदाज किया जा रहा है।
करुणा की भूमिका
जो भी श्रीलंका के इतिहास को थोड़ा भी जानता है, वह यह समझता है कि करुणा वर्षों तक LTTE नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरन के करीबी थे। उन्होंने 1990 में LTTE के सामने आत्मसमर्पण करने वाले सैकड़ों श्रीलंकाई पुलिसकर्मियों के नरसंहार और बाद में बट्टीकलोआ में मुसलमानों के सामूहिक हत्याकांड में प्रमुख भूमिका निभाई थी।
ब्रिटेन द्वारा करुणा की LTTE छोड़ने के बाद की गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करना और उनके पूर्व LTTE काल के अपराधों की अनदेखी करना यह साबित करता है कि ब्रिटेन कोलंबो के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है ताकि वह श्रीलंकाई मूल के तमिल प्रवासी समुदाय को खुश कर सके।
जटिल इतिहास
श्रीलंका को राष्ट्रीय सुलह और अतीत के गलत कार्यों के लिए जवाबदेही की सख्त जरूरत है। लेकिन इसकी जटिल ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में केवल काले और सफेद रंग नहीं हैं।
श्रीलंका में पहली ज्ञात सामूहिक अत्याचार की घटनाएं तमिलों पर नहीं, बल्कि बहुसंख्यक सिंहली समुदाय पर हुई थीं।
यह तब हुआ जब कोलंबो ने 1970-71 और फिर 1987-89 में वामपंथी जनथा विमुक्ति पेरामुना (JVP) के सशस्त्र विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया था।
पश्चिमी पाखंड
पश्चिमी सरकारें, जो कथित रूप से अच्छी नीयत से श्रीलंका के लिए काम कर रही हैं, LTTE के खिलाफ कार्रवाई नहीं करतीं क्योंकि इसके सबसे वफादार समर्थक आज पश्चिम में रहते हैं और वे बहुमूल्य मतदाता हैं।
पश्चिमी विदेश मंत्रालयों और खुफिया एजेंसियों ने LTTE को कभी नियंत्रित नहीं किया, यहां तक कि जब इसने 1991 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और 1993 में श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा की हत्या कर दी थी।
क्या पश्चिम इतना सहनशील होता अगर LTTE ने किसी अमेरिकी राष्ट्रपति या ब्रिटिश प्रधानमंत्री की हत्या की होती?
'हम बनाम वे' मानसिकता
श्रीलंका को तमिल और सिंहली परिवारों को मुआवजा देना चाहिए जिनके सदस्य बिना किसी गलती के मारे गए या गायब हो गए, भले ही उनका JVP या LTTE से कोई संबंध न हो।
लेकिन यह एक आसान प्रक्रिया नहीं होगी क्योंकि दशकों की हिंसा ने श्रीलंका में “हम बनाम वे” मानसिकता पैदा कर दी है।
इसलिए पश्चिमी सरकारों को श्रीलंकाई तमिल प्रवासी समुदाय को भारत के खालिस्तानी समर्थकों की तरह बनने से रोकने की जरूरत है।