190 दिन काम, 5 करोड़ केस लंबित, किससे हो न्याय की उम्मीद?
भारत की अदालतें साल में 100 से ज्यादा दिन बंद रहती हैं, जबकि 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। क्या अब न्यायपालिका को भी छुट्टियाँ कम करनी चाहिए?;
अब बात एक ऐसे मुद्दे की जो अक्सर चर्चा से बाहर रह जाता है न्यायपालिका की छुट्टियों की संस्कृति। भारत में जब संवैधानिक अधिकारों, न्याय और कानून की व्याख्या के लिए अदालतों की भूमिका लगातार बढ़ रही है, तब यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या देश की लोकतांत्रिक प्रणाली इतनी छुट्टियों वाली न्यायपालिका का बोझ उठा सकती है?
न्यायपालिका की छुट्टियां
अगर आप सुप्रीम कोर्ट का वार्षिक कैलेंडर देखेंगे, तो यह किसी स्कूल के अलमनैक जैसा लगता है। ग्रीष्मकालीन अवकाश 49 दिन, होली, दशहरा और दिवाली पर 6-6 दिन, और शीतकालीन अवकाश 11 दिन। त्योहारों की छुट्टियां अलग से।सवाल उठता है — जब देश में करोड़ों मुकदमे लंबित हैं, तब क्या ये छुट्टियाँ वाजिब हैं?
लंबित मामलों का पहाड़
‘न्याय में देरी, न्याय से इनकार’ यह कहावत अब भारतीय न्यायपालिका की स्थायी पहचान बन गई है। सुप्रीम कोर्ट ऑब्जर्वर (SCO) के मुताबिक़, 2019 में सुप्रीम कोर्ट में 58,000 मामले लंबित थे, जो 2025 तक बढ़कर 82,400 हो गए। यह केवल सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति है असली तस्वीर हाईकोर्ट और ज़िला अदालतों में दिखाई देती है। दिसंबर 2023 में सरकार ने लोकसभा में बताया कि देश भर में 5 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इनमें हाईकोर्ट में 62 लाख और ज़िला व अधीनस्थ न्यायालयों में 4.4 करोड़ मामले रुके पड़े हैं।
समाधान की बातें, लेकिन आधे-अधूरे प्रयास
हालाँकि अदालतों ने इस स्थिति को स्वीकार किया है और कुछ सुधार भी दिखे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर परिवर्तन नज़र नहीं आता। त्वरित न्याय वितरण की बातें हुईं, रजिस्ट्रियों में फेरबदल हुए, लेकिन अवकाश के ढांचे को छूने तक की हिम्मत नहीं हुई।
जब अदालतें बैठेंगी ही नहीं, तो मुकदमे कैसे निपटेंगे?
365 में से केवल 190 कार्यदिवस: सुप्रीम कोर्ट की स्थिति। 2025 में सुप्रीम कोर्ट केवल 190 दिनों के लिए खुला रहेगा। अगर आप शनिवार और रविवार हटा दें, तब भी साल में 261 कार्यदिवस होते हैं। यानी लगभग 50% दिनों में देश की सर्वोच्च अदालत बंद रहती है।कल्पना कीजिए कि आपकी कंपनी में भारी काम पेंडिंग हो और आप बार-बार छुट्टियाँ लें — क्या आपकी नौकरी बचेगी?
हाईकोर्ट और अधीनस्थ अदालतों की हालत भी कुछ अलग नहीं है। हाईकोर्ट्स औसतन 210 दिन ही काम करेंगे, और ज़िला अदालतों की स्थिति भी इससे बहुत अलग नहीं है।क्या देश का कोई दूसरा संस्थान इतना अवकाश ले सकता है, खासकर जब उस पर करोड़ों लोगों की उम्मीदें टिकी हों?
क्या कुछ सीख सकती है न्यायपालिका?
इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति ने 70 घंटे की कार्य सप्ताह की बात कही, और एलएंडटी प्रमुख एसएन सुब्रह्मण्यम ने इसे 90 घंटे तक ले जाने की वकालत की। हालाँकि ये सुझाव विवादित रहे हैं, लेकिन एक बात ज़रूर है ये सुझाव काम के प्रति समर्पण पर केंद्रित हैं। अब ये बात न्यायपालिका पर क्यों लागू नहीं हो सकती?
कॉर्पोरेट छुट्टी मॉडल अपनाए न्यायपालिका?
कॉर्पोरेट जगत में हर कर्मचारी को साल में औसतन 20–24 दिन अर्जित अवकाश (earned leave), 7–10 दिन आकस्मिक अवकाश (casual leave), 10–14 दिन चिकित्सा अवकाश (sick leave), महिलाओं के लिए 3–6 माह का मातृत्व अवकाश मिलता है। तो क्या यही फॉर्मूला न्यायपालिका में लागू नहीं किया जा सकता? इससे जजों को भी ज़रूरत भर की छुट्टियाँ मिलेंगी, वे तरोताज़ा रहेंगे और साथ ही देश की न्याय व्यवस्था भी गति पकड़ेगी।
'मिलॉर्ड्स' को भी जवाबदेह होना होगा
पहले भी जजों की छुट्टियों में कटौती के सुझाव सामने आ चुके हैं। फरवरी 2024 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने आलोचनाओं के जवाब में कहा कि जज सप्ताह के सातों दिन काम करते हैं फैसलों की तैयारी और कानून सेवा शिविरों के ज़रिए पर सवाल उठता है: क्या यह तर्क आम नागरिक के लिए काफ़ी है?
अगर देश की शीर्ष अदालत ही 190 दिन काम करने को पर्याप्त मानती है, तो फिर 5 करोड़ लंबित मामलों का क्या होगा? देश देख रहा है, और पूछ रहा है: "मिलॉर्ड्स, क्या आप केवल न्याय का प्रतीक बने रहेंगे या वाक़ई न्याय देंगे? न्यायपालिका को भी वह करना होगा जो बाकी भारत करता है कम छुट्टियाँ, ज़्यादा काम, और जवाबदेही। न्याय की गारंटी, केवल संविधान में नहीं कोर्टरूम में भी होनी चाहिए।
(फेडरल सभी पक्षों से विचार और राय प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। लेख में दी गई जानकारी, विचार या राय लेखक की हैं और जरूरी नहीं कि वे फेडरल के विचारों को प्रतिबिंबित करें।)