विनोद कुमार शुक्ल : शब्दों की चुप्पी और कहानियों का शोर
विनोद कुमार शुक्ल को साहित्य के सबसे बड़े ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चुना गया है.;
हिंदी साहित्य में विनोद कुमार शुक्ल का नाम किसी कोलाहल से भरे साहित्यिक मंच पर एक शांत, गहरे जलस्रोत की तरह है-धीमे बहते हुए लेकिन अपनी धारा में सब कुछ समेटते हुए। उनकी रचनाएँ किसी शोरगुल का हिस्सा नहीं बनतीं, बल्कि पाठक को एक अलक्षित किनारे पर ले जाकर जीवन की नितांत सादगी और उसकी जटिलताओं का नया अर्थ सिखाती हैं। उनके पात्र आम लोग हैं-किसी छोटे कस्बे के सरकारी दफ्तर में काम करने वाले नौकर, अपनी दुनिया में डूबे हुए बच्चे, एक कमरे के घर में सपने देखने वाले लोग। उनके लिए साहित्य जीवन को शब्दों में पकड़ने की एक कोशिश है और इस कोशिश में वे बार-बार यह साबित कर देते हैं कि साधारणता में भी असाधारणता छिपी होती है।
1937 में छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल का साहित्यिक जीवन किसी परंपरागत लेखकीय यात्रा की तरह नहीं रहा। वे न साहित्यिक गुटों का हिस्सा बने, न किसी आंदोलन की धारा में बहे। वे गणित के प्रोफेसर रहे, लेकिन उनके भीतर जो साहित्य का संसार बसा था, वह तार्किक समीकरणों से कहीं अधिक विस्तृत और रंगीन था।
उनका लेखन 70 के दशक में सामने आया, जब नई कहानी और अकहानी जैसी प्रवृत्तियाँ साहित्य में हलचल मचा रही थीं लेकिन शुक्ल का अंदाज़ इन सबसे अलग था। उन्होंने न तो यथार्थवाद के भारी-भरकम औजारों का सहारा लिया, न किसी प्रयोगवादी चकाचौंध में फँसे। उनका रास्ता सीधा, सरल लेकिन अनोखा था. वे चीज़ों को देखना सिखाते रहे, उन्हें बयान नहीं करते थे।
विनोद कुमार शुक्ल का सबसे चर्चित उपन्यास “दीवार में एक खिड़की रहती थी”(1997) हिंदी साहित्य का एक ऐसा दुर्लभ अनुभव है, जो पाठकों को एक नई संवेदना से परिचित कराता है। इस उपन्यास में न कोई भारी भरकम कथानक है, न कोई सनसनीखेज मोड़। उनकी कहानियों में घटनाएँ नहीं होतीं, बल्कि एक अनुभूति की यात्रा होती है। वे पात्रों के बाहरी संघर्ष से अधिक उनके अंदरूनी द्वंद्व को पकड़ते हैं। उनकी शैली में कविता की लय और गद्य का धैर्य है। वे एक साधारण दृश्य में भी असाधारणता खोज लेते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएँ सीधे-सीधे राजनीतिक नहीं लगतीं लेकिन वे अपने भीतर एक अदृश्य विद्रोह रखती हैं। यह विद्रोह व्यवस्था के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उस सोच के ख़िलाफ़ है जो मामूलीपन को महत्वहीन मानती है। वे अपने लेखन में उन चीज़ों को जगह देते हैं, जो साहित्य में अक्सर हाशिए पर रह जाती हैं—छोटे-छोटे सपने, साधारण जीवन, और वह ख़ुशी जो किसी बड़ी उपलब्धि में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की साधारणता में मिलती है। उनकी दुनिया इतनी समृद्ध होती है कि पाठक उसमें धीरे-धीरे उतरते चले जाते हैं, जैसे कोई झील हो जिसमें पानी एकदम स्थिर हो, लेकिन नीचे जीवन अपनी पूरी गति से चल रहा हो।
“नौकर की कमीज़”(1979) को हिंदी साहित्य में एक अनोखी कृति के रूप में देखा जाता है। यह उपन्यास एक सरकारी कर्मचारी की कहानी है, लेकिन इसमें सरकारी दफ्तर की फाइलों के ढेर से अधिक, एक व्यक्ति की साधारण लेकिन जटिल दुनिया खुलती है। इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र नायक नहीं है, बल्कि एक ऐसा व्यक्ति है जो बस ज़िंदा रहने की कोशिश कर रहा है-अपनी नौकरी बचाए रखने, अपने आत्मसम्मान को बनाए रखने, और अपनी दुनिया को थोड़ा-सा सुंदर बनाने की चाह में। ले
इस प्रयास में भी उसे असंख्य अवरोधों का सामना करना पड़ता है-कभी सामाजिक व्यवस्था उसे कुचलने की कोशिश करती है, तो कभी उसकी अपनी सीमाएँ उसे पीछे खींच लेती हैं। यह उपन्यास सीधे-सीधे किसी राजनीतिक विचारधारा का हिस्सा नहीं बनता लेकिन इसके भीतर सत्ता और समाज के रिश्तों पर इतनी गहरी टिप्पणी है कि यह किसी भी यथार्थवादी साहित्य से कहीं अधिक तीखा प्रहार करता है। इसके पात्रों के संवाद, उनकी मन:स्थितियाँ और लेखक की भाषा इस साधारण-सी लगने वाली कहानी को असाधारण बना देते हैं।
“खिलेगा तो देखेंगे”(2011) विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का एक और महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह कहानी प्रतीक्षा की है, उस भरोसे की है जो भविष्य की किसी अनजानी सुबह पर टिका है। यहाँ पात्र जीवन से संघर्ष नहीं करते, बल्कि उसकी लय में खुद को ढालते हैं। यह पुस्तक हमें यह समझने पर मजबूर करती है कि परिवर्तन हमेशा किसी बड़े संघर्ष से नहीं आता, बल्कि कभी-कभी वह बस देखने के तरीके में बदलाव से आता है। शुक्ल का यह उपन्यास हमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी को एक नई रोशनी में देखने के लिए प्रेरित करता है।
विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ भी उनके गद्य की तरह सरल लेकिन बेहद प्रभावशाली हैं। उनका कविता संग्रह “सब कुछ होना बचा रहेगा”(1992) इस बात का प्रमाण है कि वे सिर्फ़ एक कथाकार ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील कवि भी हैं। उनकी कविताओं में कोई जटिल बिंब या भारी-भरकम रूपक नहीं मिलते। वे सीधे-सीधे चीज़ों को देखते और महसूस करते हैं। उनकी कविताओं में गाँव की गलियाँ, पेड़, बच्चे, बूढ़े, और चुपचाप काम में लगे नज़र आते हैं। वे जीवन के छोटे-छोटे सुख-दुख को इतनी ईमानदारी से पकड़ते हैं कि पाठक उनके शब्दों में खुद को देख सकता है।
विनोद कुमार शुक्ल की सबसे बड़ी ताकत उनकी भाषा है। वे चीज़ों को जिस तरह देखते हैं, वैसा शायद ही कोई और देख पाता हो। उनकी भाषा में एक कविता-सी लय है, लेकिन वह कभी बनावटी नहीं लगती। वे लिखते समय किसी हड़बड़ी में नहीं होते, वे चीज़ों को ठहरकर, धैर्यपूर्वक देखते हैं और फिर उन्हें शब्दों में ढालते हैं। उनका लेखन यह दिखाता है कि साधारण जीवन में ही असली जादू छिपा होता है। वे हमें सिखाते हैं कि किसी बड़े बदलाव के लिए कोई क्रांतिकारी विचार ज़रूरी नहीं, बल्कि सिर्फ़ देखने का तरीका बदलने की ज़रूरत है।
विनोद कुमार शुक्ल को इस साल ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यह सम्मान न केवल उनके साहित्यिक योगदान की स्वीकृति है बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि हिंदी साहित्य में सादगी और गहराई की अपनी जगह हमेशा बनी रहेगी। वे उस परंपरा के लेखक हैं जो अपने समय से आगे रहते हैं, लेकिन शोरगुल का हिस्सा नहीं बनते। वे हमारे जीवन की उन बारीकियों को सामने लाते हैं जिन्हें हम अक्सर भूल जाते हैं। उनका साहित्य हमें यह सिखाता है कि असली सुंदरता कहीं बाहर नहीं बल्कि हमारी अपनी दुनिया में ही बसी होती है-बस उसे देखने के लिए एक नई नज़र चाहिए।