यूपी में 2027 के चुनाव से पहले भाजपा-सपा की 80 बनाम 80 की राजनीति
भारतीय जनता पार्टी के ‘माइनस मुस्लिम’ और समाजवादी पार्टी के ‘माइनस सवर्ण’ से भी बन सकता है विनिंग कॉम्बिनेशन;
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातियों की अहम भूमिका रही है। राम मंदिर आंदोलन का समय रहा हो या मंडल कमीशन का दौर या समय-समय पर राजनीतिक दलों द्वारा धार्मिक विभाजन की रणनीति, हर दौर में यूपी में जातीय ताना- बाना हमेशा भारी रहा। 90 के दशक में यूपी में मंडल-कमंडल की राजनीति शुरू हुई।
उसका असर ऐसा रहा कि हर दौर में राजनीतक दलों ख़ास कर भाजपा और समाजवादी पार्टी ने सत्ता की सीढ़ी तक पहुँचने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति को अपनाया।2014 में केंद्र में बीजेपी की एंट्री के बाद यूपी में भाजपा ने 80-20 या यूँ कहा जाए कि ‘माइनस मुस्लिम राजनीति’ करना शुरू किया।
इस चुनाव मे अपने सहयोगी के साथ इसी फॉर्मूले पर चलकर भाजपा ने 73 सीटें जीतीं थी और दिल्ली की गद्दी का रास्ता तय किया था। इसके बाद से अब तक यूपी में क़रीब 20 परसेंट मुसलमानों को छोड़कर बाक़ी 80 परसेंट मतदाताओं को रिझाने की रणनीति पर ही भाजपा चलती रही।
इस बार लोकसभा चुनाव में अपने पीडीए के नारे की सफलता के बाद भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी समझी जाने वाली समाजवादी पार्टी भी 80-20 की राह पर चल पड़ी है।अखिलेश यादव की सक्रियता, उनके बयान यही बता रहे हैं। यूपी में 2027 से पहले समाजवादी पार्टी फिर PDA यानि पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक को जोड़ कर ‘विनिंग कॉम्बिनेशन’ बनाने की तैयारी में जुट गयी है यानि 80 प्रतिशत पर सपा भी दांव लगाने के लिए तैयार है।
राजनीतिक दलों के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो पीडीए मतदाताओं की संख्या करीब 80 प्रतिशत ही होती है। वहीं भाजपा की तमाम योजनाओं और अभियानों के बाद भी पार्टी का दावा अब तक ‘ माइनस मुस्लिम‘ पॉलिटिक्स पर ही है।यानी 2027 के चुनावी समर में 80 बनाम 80 की नई राजनीति उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ रही है।
पीडीए के ज़रिए सपा की 80 की राजनीति
बीजेपी अपने शुरुआती दौर से ही हिंदी पट्टी पर 80-20 की राजनीति करती रही है। यूपी में 2017 में सत्ता में एंट्री के बाद योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। उसके बाद से बीजेपी की यह रणनीति चरम पर है। इसलिए अखिलेश यादव भी इसी रणनीति से भाजपा से मुक़ाबले के लिए तैयार दिख रहे हैं।
पीडीए फार्मूले के बाद मुसलमानों ने सपा को एकजुट वोट दिया और सपा के साथ गठबंधन में शामिल कांग्रेस के संविधान में बदलाव के नैरेटिव ने पीडीए फार्मूले को तक़रीबन हिट कर दिया। इससे जहाँ सपा उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा सांसदों वाली पार्टी बन गयी वहीं लोकसभा में भी तीसरा सबसे बड़ा दल बन कर उभरी।
इसी के बाद से अखिलेश यादव ने पीडीए यानि 80 प्रतिशत को अपने सियासी अभियान का हिस्सा बना लिया है।अखिलेश पीडीए के इस विनिंग कॉम्बिनेशन पर इतना भरोसा कर रहे हैं कि आज़मगढ़ में सपा कार्यालय का नाम ही ‘पीडीए भवन’ रख दिया। वही आज़मगढ़ जिसके आस-पास पीडिए के सबसे ज़्यादा मतदाता हैं।अखिलेश यादव ने ये भी संकेत दिया है कि दूसरे जिलों में भी सपा के कार्यालय का नाम पीडीए भवन रखा जा सकता है।
ख़ास बात ये है कि भाजपा जिस तरह ‘सबका साथ, सबका विकास’ की सार्वजनिक घोषणा करती रही है पर व्यवहारिक रूप से हिंदू मतों को साधने का प्रयास करती है उसी तरह सपा भी ज़रूरत के अनुसार PDA के ‘A‘ यानि अल्पसंख्यक को कभी अगड़ा, कभी आधी आबादी के रूप में भी परिभाषित कर रही है।
अब अगर 2027 के विधानसभा चुनाव की व्यूह रचना होगी उसमें दोनों ओर से 80-20 का फार्मूला यानि 80 vs 80 की राजनीति दिखाई देगी । दरअसल उतर प्रदेश में पिछड़े यानि कुर्मी,कुशवाहा, कश्यप, बिंद, निषाद, मौर्य प्रजापति, ढीमर जैसी तक़रीबन 56 जातियां हैं जिनको मिलाकर पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की संख्या 50 प्रतिशत से ज़्यादा है। इनका झुकाव किसी भी राजनीतक दल को शीर्ष पर पहुँचा सकता है। यूपी के चुनाव में दोनों दल इन्हीं जातियों को अपने पक्ष में करने की रणनीति पर काम कर रही हैं। माना जाता है कि क़रीब 20 प्रतिशत मुसलमान विकल्प के आभाव में आँख बंद करके समाजवादी पार्टी के साथ हैं।उसी तरह कई मतभेद और असंतोष के बावजूद क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और कायस्थ मतदाता भाजपा के साथ हैं। ऐसे में भाजपा के लिए ‘माइनस मुस्लिम’ रणनीति और सपा के लिए ‘माइनस सवर्ण’ रणनीति भी जीत की राह तय कर सकती है।