मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामला: बॉम्बे हाईकोर्ट में फंसे पुलिस के 'तीन बिंदु'

मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले में पुलिस द्वारा दर्ज किए गए कबूलनामों के दस्तावेजों में गंभीर अनियमितताएं और संदेहास्पद हस्तक्षेप पाए जाने के कारण बॉम्बे हाई कोर्ट ने आरोपियों को बरी कर दिया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को रोकते हुए मामले की आगे की जांच और न्यायिक प्रक्रिया जारी रखने का निर्देश दिया है।;

Update: 2025-07-26 02:35 GMT

Mumbai train blast case: मुंबई में 2006 के ट्रेन ब्लास्ट मामले की जांच में पुलिस अधिकारियों के बीच हुई पत्राचार में समान दिखने वाले “एलिप्सिस” यानी तीन बिंदुओं (...) के इस्तेमाल ने बॉम्बे हाई कोर्ट को मुंबई पुलिस द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों की सत्यता पर शक करने के लिए मजबूर कर दिया था। इसी आधार पर हाई कोर्ट ने 21 जुलाई को मामले के 12 आरोपियों को बरी कर दिया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 24 जुलाई को महाराष्ट्र सरकार की अपील पर हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे लगा दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने इस फैसले के कारण राज्य में चल रही कई महत्वपूर्ण मामलों, विशेष रूप से महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ़ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट (MCOCA) के तहत चल रहे मुकदमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की चिंता जताई है।

बॉम्बे हाई कोर्ट ने 21 जुलाई के अपने फैसले में सितंबर 2015 में स्पेशल MCOCA कोर्ट द्वारा सुनाए गए सजा के आदेश को रद्द कर दिया था। उस फैसले में पांच आरोपियों को मौत की सजा और सात को उम्रकैद की सजा दी गई थी। 11 जुलाई 2006 को मुंबई लोकल ट्रेनों में सात अलग-अलग विस्फोटों में कुल 189 लोग मारे गए और 800 से अधिक घायल हुए थे। इस मामले में आरोपी नंबर 1 कमाल अंसारी सुनवाई के दौरान जेल में COVID-19 जटिलताओं के कारण चल बसे।

MCOCA मामलों में, पुलिस अधिकारियों के सामने दिए गए कबूलनामे को भी सबूत माना जाता है। इसलिए अदालतें इस बात की कड़ी जांच करती हैं कि बयान दर्ज करते समय कोई दबाव या मजबूरी तो नहीं थी। इस मामले में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई। MCOCA के तहत, कबूलनामे केवल पुलिस अधीक्षक (SP) या उसके समकक्ष अधिकारी जैसे कि मुंबई में उप पुलिस आयुक्त (DCP) के सामने ही दर्ज हो सकते हैं। ये अधिकारी न्यायालय में इस बात की पुष्टि करते हैं कि उन्होंने बयान दर्ज करते समय कोई दबाव नहीं डाला।

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में दिखाया कि पुलिस केस की कमजोरियों में से एक थी पत्राचार में ‘एलिप्सिस’ (...) का असंगत और संदिग्ध इस्तेमाल। हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति अनिल एस. किलोर और श्याम सी. चंदक ने बताया कि तीन बिंदु दर्शाते हैं कि मूल वाक्यांश लंबा था और हटाया गया हिस्सा उद्धृत पाठ का हिस्सा नहीं है।

बचाव पक्ष का आरोप

बचाव पक्ष ने कहा कि सात DCPs ने कबूलनामे बनाने में एक समान गलतियां कीं, जो बताता है कि ये बयान ATS (एंटी-टेररिस्ट स्क्वॉड) के दफ्तर में तैयार किए गए और DCPs के सामने केवल हस्ताक्षर के लिए लाए गए थे। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने इस दलील को मामूली बताया और कहा कि पत्रों के फॉर्मेट का समान होना बयान की असलियत पर सवाल नहीं उठाता। हाई कोर्ट ने नोट किया कि दो DCPs के पत्र लगभग समान थे, जिसमें विषय में ‘statement’ के बाद ‘...’ के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाए गए। DCP आशुतोष डुम्बरे ने कोर्ट में इस ‘तीन बिंदुओं’ की व्याख्या नहीं कर पाए।

बिना जांचे कॉपी किया

हाई कोर्ट ने कहा कि अलग-अलग पत्रों में बिंदुओं की संख्या अलग थी, लेकिन ये अनावश्यक थे। यह दर्शाता है कि DCPs ने फॉर्मेट को बिना उचित जांच के कॉपी किया, जिससे दस्तावेजों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग गया।

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